Saturday, December 11, 2010

रुख़साना

ये वो लड़कियाँ हैं जिन्हें अपने नाम का अर्थ नहीं पता। जिनके लिए सुनीता का ‘स’ और रुख़साना का ‘र’ कोई मायने नहीं रखता। मायने रखती है तो चौराहे की लाल बत्ती। भीड़ में खड़ी लम्बी-लम्बी गाड़ियाँ। दौड़ते-भागते शीशा पोंछते इन्हें जो कभी-कभार इक्का-दुक्का पैसे मिलते हैं वही इनके लिए अक्षर हैं, वही इनकी वर्णमाला।

ऑफिस के लिए अपनी कैब का इंतज़ार करते मैं रोज़ इन्हें देखती हूँ। शीशा पोंछने के एवज़ में गाड़ी के मालिक से पैसे मिलेंगे नहीं – इसकी संभावना ज़्यादा होती है। लेकिन ऐसा करना सिर्फ इनके पैसे कमाने का ज़रिया ही नहीं बल्कि मनोरंजन का साधन भी है। इनमें से कुछ को बोलना बहुत आता है और कुछ होठों से तो छोड़िए आँखों से भी बोलने में शर्माती हैं।

मैंने एक बार एक छोटी सी बच्ची को पानी पिलाते वक़्त उससे पूछा था – “नाम क्या है तुम्हारा?”
उसके नाम का मुझे आज तक उससे पता नहीं चल पाया। उसकी सहयोगी रुख़साना ने मुझे बताया –
“सबीना नाम है इसका”
“और तुम्हारा?” – मैंने उससे पूछा।
“रुख़साना”
“रुख़साना का मतलब क्या है?”
“मतलब क्या? नाम है”
10 साल की यही रुख़साना पहली लड़की थी जिसने अपनी बिरादरी की तरफ पहली बार मेरा ध्यान खींचा था।
मैं कैब का इंतज़ार करते हुए कोई किताब पढ़ रही थी। अचानक सामने से एक लड़की दौड़ती हुई आई और अपना हाथ आगे कर अपनी भारी आवाज़ में कहा – “दीदी, एक रुपइया दे दो” – स्वर में थोड़ा अनुनय भी था और थोड़ा विश्वास भी।
“क्यों दे दूँ” – मैंने किताब बंद करते हुए पूछा।
“दे दो न” मैंने मुस्कुराते हुए ‘न’ में सिर हिलाया। कुछ देर तक शायद मुझे अपने निर्णय पर दुबारा सोचने का मौका देते हुए वह खड़ी रही लेकिन ऐसा कुछ न होते हुए देख वापस अपने साथियों के पास चली गई।

अगले दिन मेरे आते ही उसने सड़क की दूसरी ओर से ही पुकार कर कहा – “दीदी, आज दे दो” – और अपना हाथ बढ़ाया। हाथ में कोई डिब्बा था जो काले कपड़े से ढका था। मैंने ‘न’ की मुद्रा में सिर हिलाया और मुस्कुरा कर किताब निकालने में व्यस्त हो गई। लेकिन तबतक वह सड़क पार कर यहाँ आ चुकी थी।
“सनीवार है। सनी महराज को दे दो”
डिब्बे में कुछ सिक्के पड़े थे और उसके अन्दर धूपबत्ती जल रही थी।
“सनी महाराज पैसे का क्या करेंगे?”
“आसीरवाद मिलेगा तुमको”
“किसका? तुम्हारा?”
“अरे दीदी, तुम दे दो न बस”
पर हमेशा की तरह ‘न’ की मुद्रा में सिर हिलता देख हताश होकर कहा – “अच्छा, तो पानी ही पिला दो” – उन्हें पता होता था कि मेरे झोले में पानी की एक बोतल हमेशा मौज़ूद रहती है।

और एक को पिलाने का मतलब होता था पूरे झुंड को पिलाना। एक से दो, दो से तीन – तीन से चार। ऐसे ही एक दिन जब मैं किसी छठी या सातवीं हथेली में बोतल की अंतिम बची कुछ बूंदे डाल रही थी तो रुख़साना ने अपनी उसी भारी आवाज़ में पूछा – “दीदी”
“हाँ”
“वो जो गारी (गाड़ी) आता है, वो क्या तुम्हारा अपना गारी है?”
“न” – कहकर मैंने खाली बोतल को बंद किया और अपने झोले में डाल दिया। पानी खत्म होना था कि हथेलियों के झुंड भी एक-एक कर गायब हो गये।
“दीदी”
“हूँ” – मेरी कैब आने का वक्त हो रहा था।
“तुम इनलोगों की तरह (सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की तरफ इशारा करके) अपना गारी क्यों नहीं लेते हो?”
“पैसे नहीं हैं” – मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
“झूठ। तुम तो ऑफिस में काम करता है। इत्ता बड़ा आदमी है, खरीद लो न!”
“ठीक है, खरीद लूँगी। पर मेरे गाड़ी खरीदने से तुम्हारा क्या फायदा होगा?”
“तुम्हारा गारी पोछूँगा न मैं! तब तो तुम मुझे पैसे देगा न?”
उससे अक्सर मुलाकातें होती रहतीं या यूँ कहूँ कि हम रोज़ ही मिलते। कभी बातें होतीं तो कभी बस दूर से ही मुस्कुराकर अभिभावदन स्वीकार हो जाता। इन्हीं मुलाकातों में उसने मुझसे अपने लिए एक जोड़ी चप्प्ल की मांग भी कर डाली। जिसे मैंने सैलरी मिलने पर खरीदने की बात कहकर टाल दिया। हालंकि, ये बात अलग है कि उसके बाद हर दिन का उसका पहला प्रश्न एक ही होता – “पैसे मिल गए तुम्हें ऑफिस से?”

फिर काफी दिनों तक वो मुझे नज़र नहीं आई। उसकी सखी-सहेलियों से पता चला कि उसकी माँ उसे लेकर अपने मायके ‘मोतीहारी’ चली गई है। इस बीच मैंने भी कैब की सेवा लेना लगभग छोड़ दिया। दो-तीन महीनों में एक बार। एकाध बार उनसे ऑटो में बैठे भी मुलाकात हुई। उसी चौराहे के नज़दीकी सिग्नल पर अगर कभी उन्होंने मुझे ऑटो में बैठे देख लिया तो एक अनोखी, अप्रत्याशित खुशी के साथ चहकते हुए ऐसे घेर कर अपनी बातें बताने लगते मानो ये सिग्नल कभी ग्रीन होगा ही नहीं। शुरुआत पानी की मांग से होती – “दीदी!!!” और फिर नज़दीक आकर – “पानी पिला दो”।
और फिर बातों का सिलसिला शुरु हो जाता। रुख़साना नहीं होती पर उसका ज़िक़्र अपने-आप ही लाते, मानो ये उनका फर्ज़ हो। मेरे पूछे बग़ैर ही उसकी सारी ख़बरें मुझ तक ऐसे ही आवारा पत्तों की मानिंद उड़ते-फिरते पहुँचती रहतीं।
“दीदी, रुख़साना का ना बाबू छोर दिया उसलोगों को”
“उसका मम्मी आया था यहाँ लेकिन उसको वापस भेज दिया”
“रुख़साना कहाँ है अभी?” – मैं भी पूछ लेती।
“वो अपना नानी का यहाँ है”
“यहाँ आएगी?”
“पाता नहीं”
और इन बातों में अक्सर ही इसका ख़याल नहीं रखा जाता कि मेरे साथ क्या कोई और भी उस ऑटो में बैठा है जिसे मुझे इस बातचीत और इस अनोखी दोस्ती या रिश्ते का बैकग्राउंड समझाना पड़ेगा।
फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला भी खत्म हो गया। मेरा उस रास्ते से आना-जाना बिल्कुल बंद हो चुका था और कैब तो अब मेरे लिए एक एलियन शब्द बन चुकी था। एलियन पूरी दुनिया ही हो चुकी थी। कौन से रास्ते कहाँ खुलते थे, कहाँ बंद होते थे कुछ पता नहीं चल पा रहा था। उजाले-अन्धेरों और हाईवे-गलियों के बीच चलते हुए उससे एक दिन फिर मुलाकात हुई।
मुझे किसी ने पीछे से पुकारा – “दीदी!!!!!” – थोड़ी दूर से पर ऐसा लगा मानो अभी तो ये आवाज़ कानों को छूकर गई थी!
मैंने पीछे देखा – रुख़साना थी – करीब 6-7 मीटर की दूरी पर। फुटपाथ पर चुक्का-मुक्का बैठी, सब्जी से सने हाथों में रोटी का टुकड़ा लिए थाली के सामने बैठी। इस फुटपाथ पर उसके जैसे लोगों की पूरी एक बस्ती रहती थी। बड़ी-बड़ी पॉलीथीनों, बैनरों और साड़ियों का टेंट बनाकर रहने वालों की बस्ती, जो अक्सर फ्लाई ओवर के नीचे की जगह को भी अपने फुटपाथ वाले घर का हिस्सा बना लिया करते हैं। इतने सारे लोगों के बीच जाने में मुझे संकोच हुआ, पर जब उसने हाथ के इशारे से मुझे दुबारा बुलाया तो मुझे जाना पड़ा।
“दीदी, यहाँ आओ” – उसने झट से अपना हाथ धोया और वहीं एक टेंट के पास मटमैले रंग की साड़ी पहनी एक महिला को दिखाकर कहा – “ये मेरा मम्मी है”
“मम्मी, देखो ये दीदी है” – उसकी मम्मी ने पलटकर मुझे देखा और मुस्कुराकर हाथ जोड़कर नमस्ते किया।
उसकी बगल में 4-5 साल का एक बच्चा खड़ा था।
“ये भाई है तुम्हारा?” – मैंने रुख़साना से उसकी हू-ब-हू मिलती शक़्ल को ध्यान में रखकर पूछा।
“नहीं” – एक बेहद रूखा जवाब आया और उसने उस लड़के को धक्का देकर वहाँ से चले जाने को कहा। लड़का थोड़ा पीछे खिसक गया। इस बीच रुख़साना की माँ ने अपने को फिर से काम में व्यस्त कर लिया था और चेहरे को आँचल से पूर्ववत् पूरी तरह से ढक लिया था।
“जाता क्यों नहीं? इधर मत आया कर” – उसे ऐसा निर्देश देकर रुख़साना मेरी ओर मुख़ातिब हुई – “ये मेरा भाई नहीं है”
“पर बिल्कुल तुम्हारी तरह दिखता है!” – उनके आपस में भाई-बहन न होने के बावज़ूद बिल्कुल एक जैसी शक़्ल के मालिक होने पर मुझे हैरानी हो रही थी।
“ये सबीना का भाई है। जा तू यहाँ से!”
लड़का थोड़ा और पीछे खिसका।
“दीदी, अब तो तुम दिखते ही नहीं?” – उसकी तरफ से नज़रें हटाकर उसने शिकायत की।
“हाँ” – मेरा ध्यान अब भी उस लड़के की तरफ था। वही आँखें, चेहरे की वही कटिंग, वही नाक...........
मुझे उसकी तरफ देखते हुए देखकर रुख़साना से उसे फिर हड़काया – “तू अभी तक यहीं खड़ा है? भाग!”
“अरे, क्यों भगाती हो? रहने दो खड़ा, क्या फर्क पड़ता है?” – मैंने उसे रोका।
“तुमको पता नहीं है, इसका मम्मी का कारण हमारा बाबू रोज हमारा मम्मी को मारता है” – और फुटपाथ पर पड़े दो कंकड़ एकसाथ रुख़साना के हाथों से दनदनाते हुए रॉकेट की तरह उस लड़के पर झपटे।
“ता अपना मम्मी को बोलो यहाँ से भाग जाए!” – कंकड़ खाकर भी लड़का यह जवाब देने के लिए वहाँ रुका रहा और फिर जीभ दिखाकर सरपट भाग लिया। रुख़साना ने दो-चार कंकड़ और सम्हाले और उसके पीछे भागी।
रुख़साना की माँ ने अब आँचल थोड़ा उठाकर भागती रुख़साना को देखा, आसपास खड़े-बैठे अपनी बिरादरी के लोगों को अपनी ओर अर्थपूर्ण तरीके से मुस्कुराते हुए देखा और आँचल फिर से नीचे खींचकर काम में लग गई।
मेरे लिए वहाँ कुछ रह नहीं गया था। मुझे पीछे से बुलाने वाली रुख़साना अभी किसी और ही के पीछे भाग रही थी। मैं चली आई।
फिर उससे एकबार मुलाकात हुई जो अभी तक की उससे मेरी अंतिम मुलाकात है।
पेट्रोल पंप पर हमारी गाड़ी में पेट्रोल भरा जा रहा था। मुझे फोन पर बात करनी थी इसलिए मैं थोड़ा बाहर आकर खड़ी हो गई थी। नंबर मिलाकर मैंने जैसे ही बात करना शुरु किया, वही आवाज़ – “दीदी”
मैंने सामने देखा। रुख़साना। सड़क की दूसरी तरफ। थोड़ी अलग थी। मुड़ी-तुड़ी पैंट और ऊपर से दो बटन खुली शर्ट ने सलवार कमीज़ का रूप धारण कर लिया था। बेतरतीब सी गुँथी एक चोटी बेतरतीब ही पर दो चोटियों में बदल गई थी। कमर पर रखे रहने वाले हाथों की अंगुलियाँ कंधों पर करीने से रखे गए पीले रंग के दुपट्टे के छोर में गाँठ बांधने-खोलने में व्यस्त थीं।
लापरवाह और बदमाश रुख़साना को ये क्या हो गया?
तब तक अपनी एक सहेली के साथ सड़क पार कर वह मेरे करीब आ गई। पहनावा कुछ भी हो, पर चेहरा वही था – हँसता हुआ – आत्मविश्वासी – चमकीली आँखों वाला।
“तुम गारी ले लिया दीदी?”
“क्यों? पोछना है?”
“नहीं” – हँसता और थोड़ा लजाता हुआ उत्तर।
“वैसे भी, मेरे पास पैसे नहीं हैं”
“तुम कितना झूठ बोलता है दीदी! उस वक्त भी बोला कि नहीं है। अब भी बोल रहा है” मैं मुस्कुरा दी।
कुछ देर हमदोनों चुप रहे।
“मेरा मम्मी यहीं झुग्गी में घर ले लिया है। 1400 रुपया महीना पर”
“1400 रुपये? हर महीने दे देती हो?” – मुझे आश्चर्य हुआ, हर महीने इतना कमा लेते हैं ये!
“हाँ, मम्मी देता है मेरा! हर महीना के अंत में आता है मालिक”
“अच्छा”
“उसके पास भी ऐसा ही गारी है, पर रंग दूसरा है। मम्मी को बिठा के ले जाता है”
“गाड़ी में?........कहाँ?”
“किराया लेने, बैंक”
“.............”
“एक दिन हमको भी ले जाएगा! परामिस (प्रॉमिस) किया है” - भारी आवाज़ में खनक आ गई थी।
“तुम्हें क्यों?”
“क्यों? मैं भी तो घूमूँगा मम्मी के साथ! अभी बोलता है मैं छोटा हूँ, बैंक के अन्दर जाने नहीं देगा” फिर मेरे मोबाइल को देखकर कहा – “तुम्हारा मोबाइल है?”
“हाँ”
“नया है?”
“हाँ, थोड़ा सा”
“मैं देखूँ?” – कहकर हाथ बढ़ाकर उसने मोबाइल ले लिया और 30-40 सैकेंड की जाँच पूरी करने के बाद मुझे लौटाते हुई बोली – “फोटो भी खींचता है ये?”
“हाँ” – मुझे हँसी आ गई – “तुम्हारी खीचूँ?”
“नहीं” - कहकर उसने तुरंत अपना दुपट्टा अपने चेहरे पर कर लिया और पीछे मुड़ गई। लेकिन जाने क्यों मेरे मन ने कहा कि शायद उसका इस निर्लिप्त हँसी से हँसता हुआ चेहरा मुझे दुबारा देखने को न मिले।
और फिर जद्दोज़हद शुरु हुई उसकी एक अच्छी फोटो लेने की।
रूठना, समझाना, झिझक, नाराज़गी, शर्म और जाने क्या-क्या जो मैंने उससे उम्मीद नहीं की थी। और अंतत: जब मेरा धर्य खत्म हो गया तो मैंने भी हार मान ली – “ठीक है, अगर तुम नहीं चाहती कि मैं तुम्हारी फोटो लूँ, तो मैं नहीं लूँगी” – और मैं गाड़ी की तरफ बढ़ गई। गाड़ी काफी देर से सड़क किनारे खड़ी होकर मेरा इंतज़ार कर रही थी। जैसे ही दरवाज़े तक पहुँची – “दीदी” लेकिन इस बार मैं न पलटी न ही मैंने कुछ कहा।
अन्दर बैठने ही वाली थी कि एक दूसरी आवाज़, उसकी सहेली की – “दीदी, खिचवाएगा ये, रुक जाओ”
लेकिन मैंने इस बार भी नज़रअन्दाज़ कर दिया और गाड़ी में बैठ गई। दरवाज़ा बन्द करने से पहले फिर वही आवाज़ – “दीदी, रुक जाओ। ये तैयार है!”
मैंने देखा उधर। अब तक एक पूरा का पूरा झुंड वहाँ खड़ा हो चुका था। बीच में खड़ी रुख़साना लजाती और हँसती हुई मुझे ही देख रही थी।
“लेकिन मैं अकेले नहीं खिचवाऊँगा”
“तुम इसे किताब में तो नहीं छापोगे?”
“चुन्नी ओढ़कर”
“मेरा मम्मी गुस्सा हो जाएगा”
और आख़िरी में – ‘जब फोटो आ जाएगा तो मुझे दिखाओगे न दीदी’ – उसके बोलने का तरीका अजीब-अजीब तरीकों में लिपटा होता था।
“बिल्कुल! तुम देखना कैसी लगती हो फोटो में”
हालांकि उसकी कोई ऐसी फोटोग्राफ जिसे मैं उसकी फोटो कह सकूँ, नहीं ली जा सकीं, 2-3 मिलीं लजाते-लजाते और वो भी उसका आधा-अधूरा चेहरा दिखातीं। बहरहाल, उसके झुंड ने मेरे फोटोग्राफी के इस शौक का पूरा इस्तेमाल किया और बाक़ायदा अलग-अलग पोज़ में जबरन मुझसे कई फोटो क्लिक करवाए गए।

वे फोटोग्राफ मेरे कम्प्यूटर में रखे हैं कहीं। प्रिंट आउट लेकर कभी दे आऊँगी उसे। एक जोड़ी चप्पल भी रखी है। पर जाने क्यों इस बार उससे मिलने से डरती हूँ.........शायद.........उन आँखों को हमेशा चमकीला जो देखा है...

(फोटोग्राफ नहीं डाल रही हूँ, उसने छापने से मना किया था)

Wednesday, December 1, 2010

कुछ जोड़ी कपड़े...


बहुत खुश है बिटिया मेरी..
उसके नये कपड़े आये हैं आज...
लाल फ्रॉक के साथ लाल फीते में बंधी चुटिया कितनी प्यारी लग रही है...
स्वेटर नहीं है...पड़ोस की मुनिया को मिल गया...
उसे खाँसी है, ज़्यादा ज़रूरत है...
दो ही थे.....एक इसके बाबा को दे दिया...
मैं और चुटिया वाली मेरी बेटी उनके शॉल में लिपट लेंगे....

Tuesday, November 2, 2010

नीलोफ़र का पागल


उन दिनों मैं ‘श्री राम भारतीय कला केन्द्र’, मंडी हाउस में संगीत सीखने जाया करती थी। एक दिन कॉपरनिकस मार्ग को cross करते समय सामने के पेड़ के नीचे बैठे एक पागल पर मेरी नज़र पड़ी जो नीले रंग के मफ़लर को लपेटे बैठा-बैठा संतरा खा रहा था। वैसे भी मंडी हाउस में कई पागल इधर-उधर घूमते-चलते मिल जाते हैं इसलिए मैंने उसपर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। दो-तीन दिनों तक लगातार मैंने उसे देखा, उसी तरह नीले मफ़लर को गले में लपेटे चुपचाप संतरा खाते हुए। लगभग 15-20 दिनों तक वह मुझे दिखता रहा। एक ही जगह, एक ही स्थिति में। कोई ऐसा दिन नहीं जिस दिन मैंने उसे वहाँ न देखा हो। एक दिन उधर से गुज़रते वक़्त मैं जब उससे थोड़ी दूर ही थी, उसने अचानक सिर उठाकर मुझे देखा और एकटक देखता रहा। आते वक़्त भी यही हाल। अगले दिन भी जब मैं उधर से गुज़री तो वह मुझे ही देख रहा था और मुझे मालूम था कि जब तक मैं SBKK (श्री राम भारतीय कला केन्द्र) की बिल्डिंग के भीतर नहीं आ गई तब तक वह मुझे देखता ही रहा।
लौटते समय भी वही हुआ, वह चुपचाप मुझे देखता रहा। उसके इस तरह के behavior से मैं थोड़ा डर गई। अन्दर से डरते-डरते लेकिन बाहर से निडरता दिखाते हुए मैं उसके बगल से गुज़र गई, थोड़ी दूर जाकर मैंने पीछे मुड़कर उसे देखा, वह अभी भी मुझे ही देख रहा था। मैं घबराकर अपना चेहरा घुमाने ही वाली थी कि वह मुस्कुरा उठा। अब तो मुझे काटो तो खून नहीं। जैसे-तैसे मैंने सड़क पार की और सड़क के बगल में जूस वाले की दुकान से मिक्स्ड फ्रूट का जूस बनाने को कहा। मैंने एक बार फिर हिम्मत करके उसे देखा तो वह अभी तक मुझे ही देख रहा था और मैं इतनी दूर से भी स्पष्ट देख पा रही थी कि वह अब भी मुस्कुरा रहा था। जूस वाले ने मुझे उधर देखते हुए देखा तो पूछा – “क्या हुआ मैडम? उसने कुछ कहा क्या?” “अ–नहीं” – मैं अचकचा गई। “अच्छा” – कहकर वह हँस दिया। “क्यों भइया?” – मैंने पूछा। जूस वाले ने हँसते हुए बताया कि राह में आते-जाते सभी से वह कहा करता है कि ‘सुनो मेरे पास मत आना, मैं पागल हूँ।’ “अच्छा!” – मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पागल तो कभी ख़ुद को पागल मानने को तैयार ही नहीं होता फिर यह कैसा केस है? मुझे देर हो रही थी इसलिए उस वक़्त तो मैं वहाँ से चल दी मगर मुझे यह मामला थोड़ा interesting लगा और अगले दिन मैं वहाँ थोड़ा पहले ही पहुँची। अपने नीले मफ़लर को लपेटे वह वहीं बैठा था।
इस बार मैंने उसे थोड़ा ध्यान से देखा। सांवला रंग, बड़ी-बड़ी उनींदी आँखें, पतले-पतले होंठ जिनमें उसकी एक मीठी-सी मुस्कान छिपी थी, लम्बा-पतला चेहरा, रूखे-उलझे काले-भूरे गर्दन तक लटकते बाल, इकहरा बदन जिसपर उसने काले और नीले रंग के कपड़ों को पहन रखा था और नंगे पाँव। कुल मिलाकर उसे देखकर ऐसा लगता था कि कभी वह एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी रहा होगा। मैं उसके सामने नहीं गई, थोड़ी दूर से ही उसे देखती रही। उस वक़्त उसके हाथ में संतरा नहीं था, मफ़लर का एक हिस्सा अपने हाथ से मोड़ते हुए वह चुपचाप सामने की ओर कहीं देख रहा था।
कुछ देर बाद मैंने देखा उस जूस वाले ने उसे जाकर एक संतरा दिया, उसका कंधा थपथपाया और वापस अपनी दुकान पर आ गया। उसके दुकान पर आने पर मैंने उससे इस संतरे को देने का कारण पूछा। उसने हँसते हुए बताया कि ‘यह रोज़ सुबह यहाँ आकर बैठ जाता है और फिर शाम तक ऐसे ही यहाँ बैठा रहता है। इसे इस तरह चुपचाप बैठा देखकर मुझे एक दिन दया आ गई और मैंने उसे एक संतरा दे दिया।’ – कुछ देर तक उसी पागल की ओर एकटक देखते रहने के बाद उसने फिर कहा – “उसे लेकर जब वो मुस्कुराया न मैडम जी तो मुझे वह बड़ा प्यारा लगा और तब से बस वही एक हँसता हुआ चेहरा देखने के लिए मैं सुबह-शाम खुद जाकर उसे एक संतरा दे आता हूँ।”
उसकी history के बारे में जूस वाले ने इतना बताया कि वह यहाँ NSD में सैकेंड ईयर का छात्र था। करीब दो साल पहले इसके साथ कुछ हुआ कि यह पागल हो गया। फिर दार्जिलिंग से इसके बड़े भाई साहब इसे ले जाने के लिए आए मगर यह गया ही नहीं, फिर आज तक कोई इसे लेने-वेने नहीं आया। “क्या हुआ था इसके साथ, कुछ पता है?” “नहीं जी इतना तो मुझे पता नहीं” “ये पिछले दो सालों से यहीं है?” “हाँ जी। पहले यहीं पर इधर-उधर घूमता रहता था, अब करीब एक महीने से यहाँ आकर बैठ जाता है” कुछ देर तक पता नहीं क्या सोचकर मैंने उससे पूछा - “भइया, ये ख़तरनाक तो नहीं है न?” “वैसे तो खतरनाक नहीं है लेकिन क्या है कि पागल ही है मैडम, क्या जाने कब पागलपन पूरी तरह से सवार हो जाए” मेरी क्लास का समय हो चुका था। मैंने फिर सड़क पार किया, उसे देखा, उसने भी मेरी ओर देखा और फिर मुस्कुरा दिया। इस बार उसे देखकर मैं भी मुस्कुरा पड़ी। मन किया कि रुकूँ और उससे कुछ बातें करूँ लेकिन फिर मैं क्लास के लिए चली गई। क्लास से बाहर आते समय जून की शाम के 5:30 बजे थे। हवा हल्की-हल्की चल रही थी। धूप पेड़ों की छाँव के अतिरिक्त हर जगह थी और शाम होने के बावज़ूद अपने अस्तित्व के साथ किसी प्रकार का कोई समझौता करने को तैयार नहीं थी। अब तक मैं पूरी तरह निश्चय कर चुकी थी कि आज मैं उससे बातें करूँगी। जूस वाले से उसके बारे में जानने के बाद और उसका मुझे देखकर मुस्कुरा उठने के बाद मेरे मन में उसके प्रति डर काफी हद तक कम हो चुका था।
मैं वहाँ गई और पूरी हिम्मत करके उसके सामने रुकी। उसने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं कहा बस मुझे देखकर मुस्कुराता रहा। मैंने धीरे-से अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया और ‘hi’ कहा। कुछ देर तो उसने कुछ नहीं कहा, फिर अपना हाथ मुझसे मिलाते हुए धीरे-से कहा – ‘hi.’ मुझे उसके जवाब देने से बड़ा आश्चर्य हुआ हालांकि इससे मैं थोड़ा आश्वस्त भी हुई। हाथ छुड़ाकर मैंने उससे पूछा – “संतरा खाओगे?” उसने ‘हाँ’ की मुद्रा में सिर हिलाया। मैं गई और जूस वाले के यहाँ से एक संतरा लेती आई। उसे दिया। वह चुपचाप उसे बेतरतीबी से छीलता रहा और पूरा छीलकर उसने एक पीस संतरा निकालकर अपने मुँह में रख लिया। जब वह उसके दो-तीन पीस खा चुका तो मैंने पूछा – “मुझे नहीं दोगे?” कुछ देर चुपचाप रहकर उसने पूरा संतरा मुझे दे दिया। मुझे हँसी आ गई और उसमें से दो पीस निकालकर बाकी मैंने उसे दे दिया। उसे लेकर वह चुपचाप खाने लगा। कुछ देर बाद मैंने उससे पूछा – “मैं भी यहाँ बैठ जाऊँ?” लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। मैं धीरे-से वहीं बैठ गई।
“ये मफ़लर बहुत अच्छा है” – मैंने उसके नीले मफ़लर की ओर इशारा करके कहा। उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। “तुम्हारा है?”
उसने फिर कुछ नहीं कहा।
“मुझे दोगे?” – कहते हुए मैंने जैसे ही उस मफ़लर को छुआ उसने मेरे हाथ पर जोर से एक हाथ मारा। मैं डर गई। मन किया उठकर भाग जाऊँ पर मैंने इससे बात करने की सोच रखी थी, अत: मैं उठी नहीं। लेकिन उसे संतरे के साथ काफी व्यस्त देखकर मुझे लगा कि मैं शायद उससे बात नहीं कर पाऊँगी और उठने को हुई। तब धीरे-से उसने कहा – “नीलोफ़र का है” – और मेरी ओर देखा। मुझे लगा कि अब समय आ गया है और इसकी हिस्ट्री इसी से पता की जा सकती है। मैंने पूछा – “नीलोफ़र का है?” “हाँ” “कौन है ये नीलोफ़र?” “तुम नीलोफ़र को नहीं जानती?” – यह कहते हुए बेहद गुस्से में आकर उसने मेरी बाईं बाँह को जोर से पकड़ लिया। मैं बुरी तरह डर गई और जल्दी से कहा – “हाँ-हाँ, मैं जानती हूँ - जानती हूँ” उसने तुरंत मेरी बाँह छोड़ दी और खुश होकर कहा – “तुम जानती हो नीलोफ़र को?” “हाँ, मैं जानती हूँ” – मैंने हकलाते हुए कहा।
वह अचानक चुप हो गया। काफी देर तक चुप रहा और खत्म हो चुके संतरे के छिलकों को ज़मीन से उठाता और वापस वहीं गिराता रहा।
मैंने ही फिर उसके मफ़लर की ओर इशारा करके पूछा – “कब दिया उसने तुम्हें यह?” “आज ही सवेरे” “आज ही!!!” “हाँ” कहकर उसने उस मफ़लर को मुझे दिखाकर पूछा – “अच्छा है न?” “हाँ-हाँ, बहुत अच्छा है” – मेरे ऐसा कहते ही उसके चेहरे पर फिर वही जादुई मुस्कुराहट उभरी। फिर उसने कुछ नहीं कहा और मफ़लर के किनारे से अपनी अंगुलियों को लपेटता रहा। कुछ देर रुककर मैंने फिर पूछा – “कहाँ है नीलोफ़र?” उसने सामने देखते हुए कहा – “उधर ही गई है। शाम तक आ जाएगी” – फिर कुछ देर बाद उसने ख़ुद ही कहा – “वो कहती है कि मैं पागल हूँ, क्या मैं हूँ, बताओ?” “नहीं-नहीं, तुम तो बिल्कुल ठीक हो” – बस, मेरे इतना कहते ही वह फिर भड़क उठा – “नहीं, झूठ मत बोलो। नीलोफ़र कहती है कि मैं पागल हूँ” मुझे कुछ कहते नहीं बना। कुछ देर चुप्पी छाई रही। फिर उसने बहुत धीरे-से कहा – “सुनो, मेरे पास मत आना, मैं पागल हूँ” – और ‘जाओ – जाओ यहाँ से’ कहकर उसने मुझे हल्का-सा धक्का दे दिया। अब तक मेरा उसके प्रति डर बस नाम मात्र का रह गया था इसलिए मैं वहाँ से उठी नहीं बल्कि सिर्फ उससे कुछ हट कर बैठ गई। लेकिन कुछ देर बाद मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ, क्या कहूँ। वैसे भी शाम ने अन्धेरे को थोड़ा-बहुत अपने ऊपर ओढ़ना शुरु कर दिया था। मैं उठने को हुई। उसने मुझे उठते हुए देखा तो कहा – “जा रही हो?” “मुझे देर हो रही है, कल आऊँगी” “कल? लेकिन वो तो आज ही आएगी” “मैं कल मिल लूँगी” “लेकिन उसने तो कहा है कि वो आज ही आएगी”
लेकिन अन्धेरा हो रहा था और मुझे घर जाने की देर हो रही थी। मैंने उससे कहा कि ‘अभी तो मैं घर जा रही हूँ। नीलोफ़र आएगी तो उससे कहना कि मैं उससे मिलने आऊँगी।’
“ठीक है” – कहकर वह मुस्कुरा उठा। पर मैं अगले दिन वहाँ न जा सकी। हुआ यों कि घर आते ही मुझे पता चला कि मेरे एक रिश्तेदार की तबीयत अचानक खराब हो गई है और सवेरे ही हम सब उनसे मिलने हैदराबाद जा रहे हैं। फिर चार-पाँच दिनों के बाद यहाँ वापस आने पर जब मैं मंडी हाउस गई तो वो मुझे वहाँ दिखा नहीं। क्लास से वापस आते हुए सड़क पार करते वक़्त मैंने उसे जूस वाले की दुकान पर देखा, वह मुझे देख रहा था। पास आकर मैंने उसे ‘hi’ कहा लेकिन उसने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप मुझे देखते हुए मुस्कुरा दिया।
अगले कुछ दिनों तक वह मुझे वहाँ दिखाई नहीं दिया। कई दिनों बाद एक दिन उसे मैंने ‘त्रिवेणी’ के आगे खड़ा पाया, वैसे ही चुपचाप। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा। मैं उसे देखकर मुस्कुरा दी तो जवाब में वह भी मुस्कुरा उठा और कहीं चल दिया। कुछ दिनों बाद मेरी भी SBKK की क्लासेज़ बन्द हो गईं। मैंने भी वहाँ जाना छोड़ दिया।
 

                            
.............मैं नहीं जानती कि नीलोफ़र कौन है, कहाँ है, कब आएगी, आएगी भी या नहीं, उससे इसका क्या रिश्ता है। बस इतना जानती हूँ और कहना चाहती हूँ कि कभी आपको भी अगर मंडी हाउस में कोई पागल नीले रंग का मफ़लर लपेटे दिख जाए तो उससे डरिएगा नहीं बल्कि उसे देखकर हल्का-सा मुस्कुरा दीजिएगा, वह भी मुस्कुरा पड़ेगा...................


और हो सके तो उसे बताइएगा कि उसकी नीलोफ़र ने जो उसे मफ़लर दिया है वह बहुत अच्छा है, और तब आप देखिएगा कि उसकी मुस्कुराहट कितनी प्यारी है।

Wednesday, October 6, 2010

हत्या और आत्महत्या


शुक्रवार, शाम के 5.45 बजे, नई दिल्ली के संसद मार्ग के एक सरकारी भवन की 5वीं मंज़िल पर क ख ग मंत्रालय के ‘X’ विभाग के कमरा नम्बर 5033 में धीरे-धीरे अन्धेरा एक कोने से जाग कर दूसरे कोने तक दौड़ रहा है। सभी मेजों पर बेतरतीबी से फाइलें आवारा, खुजली वाले कुत्तों की तरह गन्दी और बेपरवाह पड़ी हैं और अपनी पीली आँखों से पास से गुजरने वालों की आहट पर खुलती-बन्द होती हैं।
विभाग के चपरासी श्याम बाबू जाते समय हमेशा लाइटें बन्द करते हैं। आज भी घर जाने की जल्दी में सभी स्विचों को बन्द करके लटकते हुए मशीनी उपकरणों को सांस लेने का मौका दे रहे हैं। वहीं उनके पीठ के पीछे की कुर्सी की कतारों में सबसे कोने में फाइलों के ढेर के बीच सुषमा सिर झुकाए बैठी है। श्याम बाबू मुड़कर सामने की ओर के स्विच को बन्द करने के लिए बढ़ते हैं। सुषमा को बैठा देखकर कहते हैं अरे मैडम, सब कब के जा चुके, आप अभी तक यहाँ हैं? तबीयत तो ठीक है?
सुषमा धीरे से सिर उठाकर कहती है सर में दर्द है, सोचा अभी गोली खाई है, थोड़ी देर सिर टेक लूँ।
मैडम, 6 बजने वाले हैं, मुझे कमरा बन्द करना है, अगर तबीयत ठीक हो तो....
अच्छा, ठीक है
सुषमा उठी और अपना सामान समेटने लगी, पानी की बोतल, खाने का डब्बा, मोबाइल।
सफेद चेहरे पर एक काली रेखा खिंच गई, जैसे ही उसका हाथ नीता मैडम की बेटी के शादी के कार्ड पर पड़ा। शादी.........! बारात.......!! नई दुनिया........!! नन्ही ज़िन्दगी.........!!!
सुषमा खड़े-खड़े ही शादी के कार्ड पर बने गणेश भगवान के डिज़ाइन को नाखून से खुरचने लगी। उसके नाखून गणेश भगवान के हाथों को खुरचकर आँखों की ओर बढ़ गए। धीरे-धीरे......और गहरे...और गहरे...और दर्द...और ज़्यादा दर्द..........!!
मैडम, मुझे कमरा बन्द करना है........... श्याम बाबू थोड़ा झुंझला गए, उन्होंने देख लिया था। सुषमा की नज़र ऊपर उठी। अपनी ज़िन्दगी की खुरचन वह छुपा नहीं पाई थी।
अरे, टाइम तो लगता है न, तबीयत ठीक नहीं है मेरी एक तीखी, नुकीली नज़र के साथ सुषमा कमरे के बाहर निकल गई। उसके पर्स में अभी भी वह कार्ड था। शादी का कार्ड, रंग-बिरंगा, दुल्हन के जोड़े की तरह सोने-सा, लाल जोड़ा, हाथों में मेहन्दी.......!!
सुषमा यह सोचते हुए ऑफिस के बाहर निकली, बस पकड़कर मेट्रो पहुँची, फिर नया नगर स्टेशन से एक्ज़िट कर अपने घर की तरफ चलने लगी। कदम धीरे-धीरे उठ रहे थे, भाव और ज़्यादा सफेद होते जा रहे थे, घर के मोड़ पर सुषमा ने कार्ड निकाला और उसके टुकड़े कर नाली में फेंक दिया। फटे हुए कार्ड का एक टुकड़ा सुषमा की आँखों में चुभ गया
“Nilima weds Chirag”
सब बकवास उसका मन बोल उठा।
सुषमा वेड्स विनोद। काइंडली कम एंड ग्रेस द ओकेज़न! -  दो साल पहले उसके शादी के कार्ड पर भी लिखा गया था।
घर के दरवाज़े पर लगी घंटी बजाने से पहले ही सुषमा को पता था अन्दर क्या चल रहा है। आगे जो होने वाला है उसकी भयावहता व कुण्ठा को अपने में जगाकर दनादन 5 बार घंटी को बजा दिया टा टा टा टा टा
अन्दर से विनोद के चिल्लाने की आवाज आ रहा हूँ के कुछ मिनटों बाद धड़ाम से दरवाजा खुला।
तुझसे सबर नहीं होता है?
तुमसे नहीं रखा जाता तो मैं कैसे रखूँ
आते ही जुबान चलने लगी तेरी....इतनी देर क्यों हुई है, 5.30 बजे दफ्तर छूटता है, अब 7 बज रहे हैं। मैडम अब आ रही हैं
विनोद की जबान से ज़्यादा वह खुद लड़खड़ा रहा था। लड़खड़ाते हुए वह सोफे पर बैठ गया। उसके शाम का इंतज़ाम पूरा परवान पर था दो बोतल, एक आधी- दूसरी भरी, सोडा एक भरा गिलास, कुछ नमकीन आधी प्लेट पर आधी मेज पर, एक सिगरेट का डिब्बा जिसमें से दो सिगरेट मानो सुषमा की तरह ही उंगली करके कह रही हो मुझे तुम खत्म क्यों नहीं कर देते एक ही बार में, क्यों आधी सुलगाकर मसल देते हो एशट्रे पर, अब आज़ाद करो मुझे
जिस लम्बे सोफे पर विनोद पसरकर बैठा था उसी के दूसरे कोने पर सुषमा ने खड़े-खड़े ही अपना बैग दे मारा।
ये क्या हरकत है
मुझे भी यही पूछना है, तुम कब सुधरोगे। अब तो कुछ समझो, अब हम दो नहीं हैं, अब...............खुद को नहीं सम्भाल सकते तो क्यों कह रहे हो मुझे इस बच्चे को जन्म देने के लिए। जिस बच्चे का बाप ऐसा है, सोचो वह खुद कैसा होगा
चुप रहो! तुमको हक नहीं है बच्चा गिराने का। वह मेरा भी है समझी तुम  - आवेग में आकर उठ तो पड़ता है, लेकिन सहारे के बिना खड़ा नहीं रह सकता वह, नशे में और होश में भी।
जाकर कुछ काम क्यों नहीं ढूँढते तुम? कम पैसे सही, काम तो मिलेगा
नहीं करना मुझे कम पैसे का काम। तुम यही चाहती हो न कि मैं तुमसे कम पैसे कमाऊँ, ताकि दूसरे के आगे........है न.........तुम सरकारी लोग न काम समझते हो न ही पैसा........!
ढूँढ लेते कोई पराइवेट वाली जो पैसे कमा.......
मिली थी, पर माँ के कहने पर...
कौन वो शिवा.....
चुप.....रहो और उठकर उसने भरा हुआ कांच का गिलास तोड़ दिया।
काँच के बिखरे टुकड़े फैल गए फर्श पर, छोटे-छोटे और कुछ बड़े,....ज़िन्दगी साफ दिख रही थी उसमें दोनों की........जिसे समेटने की इच्छा भी सन्नाटे में खो गई थी।
सुषमा की आँखें भी अब इस सन्नाटे के तमाचे की तरह सुनसान हो गई। विनोद पीता रहा। करीब घंटे बाद सुषमा बाहर आई। बाल कसकर बन्धे थे। सुबह के वही कपड़े, सिलवटों से और भर गए थे। सुषमा ने आकर विनोद की बगल से अपना बैग खींचा तो मेज पर रखी खाली बोतल ने डर के मारे सुसाइड कर लिया।
विनोद पीकर जाग चुका था, और ज़्यादा वहशी और ज़्यादा हिंसक।
कहाँ जा रही हो!
अबॉर्शन करवाने
रुको विनोद ने हाथ पकड़ लिया घर के बाहर कदन रखा तो टाँगे तोड़ दूँगा।
है हिम्मत! एक पीया हुआ इंसान जो चल तो पाता नहीं और मारने की बात....मुझे न तुम चाहिए और न तुम्हारा बच्चा कहकर सुषमा दरवाजे की तरफ मुड़ी।
विनोद ने आगे बढ़कर उसके बालों को खींचा।
ओह...छोड़ दो! जंगली.....
आह.............
ओह! नहीं........?
हत्या और आत्महत्या का सामान वहाँ मौज़ूद था, काँच के टुकड़े जिससे उसने कलाई काटी और भरी हुई शराब की बोतल जिससे उसके सर के दो टुकड़े हो गए।
सुबह उनके मकान के बाहर भीड़ इकट्ठा थी। परिवार, पुलिस और तमाशबीन समाज। परिवार और तमाशबीन समाज को बस इतना पता है कि एक ने हत्या की दूसरे ने आत्महत्या। सुषमा के परिवार वालों का अनुमान है कि विनोद ने हत्या करने के बाद आत्महत्या की है और विनोद का परिवार इससे ठीक उल्टा समझता है। अभी वह बाहर है इस सस्पेंस के साथ कि किसने किसकी हत्या की और किसने आत्महत्या?



एक बहुत ही अज़ीज़ दोस्त द्वारा लिखी गई कहानी जो यह जानना चाहती हैं कि वो कैसा लिखती हैं....:)

Friday, October 1, 2010

......................................

लोग भी अजीब होते हैं.....

Thursday, September 23, 2010

24 सितम्बर 199..........या 201.................?

कोई राम मन्दिर या कोई बाबरी मस्ज़िद ही क्यों, अल्लाह या राम के छोटे-छोटे, मासूम पैगम्बर क्यों नहीं?
.........एक पवित्र धार्मिक स्थल पर एक अनाथाश्रम क्यों नहीं?????

Saturday, September 4, 2010

शरणार्थी

मैं जा रही थी
रास्ते में
मिली हवा
उसने पूछा - "शरणार्थी हो क्या?"
मैंने कहा - "नहीं, मेरा घर है यहाँ।"
मैं चल पड़ी।
रास्ते में
मिले खेत
सरसों ने पूछा - "शरणार्थी हो क्या?"
मैंने कहा - "नहीं, मेरा घर है यहाँ।"
मैं चल पड़ी।
रास्ते में
मिली गौरैया
उसने पूछा - "शरणार्थी हो क्या?"
मैं चीखी - "नहीं, मेरा घर है यहाँ।"
और मैं दौड़ी।
और फिर, कोई नहीं मिला।
घर पहुँची।
माँ थीं,
उन्होंने दरवाज़ा खोला।
"माँ, क्या मैं शरणार्थी हूँ?" - मैंने पूछा।
वे मुस्कुराईं,
मेरा सर सहलाया
और कहा - "हाँ"
"यह तेरा घर नहीं, एक छोटा-सा शरण-स्थल है।"
मैंने फिर यही कहा - "हाँ, मैं शरणार्थी हूँ।
सुना न तुमने ऐ हवा, सरसों के खेत, पंछी, नदिया!
तुमने सुना न!"

Tuesday, August 10, 2010

आलो आँधारी - एक भोली सी जीवन कथा


कहते हैं साहित्य सृजन के लिए शब्दों पर पकड़ से ज़्यादा महत्व रखता है संवेदनाओं पर पकड़। यदि संवेदनाएँ गहरी हों तो शब्द खुद-ब-खुद खिंचे चले आते हैं।
आलो-आँधारी
लेखिका बेबी हालदार
प्रकाशक: रोशनाई प्रकाशन, काँचरापाड़ा, पश्चिम बंगाल।
मूल्य: 75 रुपये।
अब तक हमने ऐसे कई उपन्यास पढ़े हैं जिसमें बड़े-बड़े लेखकों ने अपनी सशक्त, धारदार लेखनी के माध्यम से अशक्त लोगों के जीवन के उजालों और अन्धेरों का चित्रण किया है। आलो-आँधारी एक ऐसी भोली आत्मकथा है जिसकी लेखिका इस बात को लेकर बेहद सशंकित रहती है कि क्या उसे इतने शब्द आते हैं कि वह कुछ लिख सके
सोच रही थी कि लिख सकूँगी या नहीं/चिट्ठी सुनकर मैं अवाक् रह गई। मैंने ऐसा क्या लिखा है जो उन लोगों को इतना अच्छा लगा! उसमें अच्छा लगने की तो कोई बात नहीं! फिर मेरी लिखावट भी खराब है और लिखने में भूलें इतनी कि उसका कोई ठिकाना नहीं!
चौका-बरतन, झाड़ू-पोंछा करके अपनी और अपने बच्चों की जीविका चलाने वाली बेबी को जब उसके तातुश ने अपने जीवन के दुखों और संघर्षों की गाथा को कागज़ पर उतारने के लिए कहा तो उसकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि सातवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ देने के बाद अब क्या उससे कुछ लिखा-पढ़ा जाएगा?
लेकिन जब उसने लिखा तो अपने कष्टकारी जीवन के सभी संघर्षों को बेहद सहज व सरल शब्दों में इस प्रकार लिख डाला कि यह लक्ष्मण गायकवाड़, लक्ष्मण माने, सिद्दलिंग्या जैसे दलित लेखकों की आत्मकथा की श्रेणी में जा पहुँचा।
मुर्शिदाबाद में रहने वाली छोटी सी बेबी की माँ घर छोड़कर चली जाती है, सौतेली माँ आती है, फिर 11-12 की उम्र में बेबी का विवाह हो जाता है, जल्दी-जल्दी तीन बच्चे, उन बच्चों को पढा-लिखा कर आदमी बनाने की चाह और उसके बाद उसके दुखों का अनवरत संघर्ष में बदल जाना। संघर्ष की यह गाथा किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से पूर्ण रूप से अछूती है। तभी तो बात-बात में उसपर हाथ उठाने वाला उसका स्वामी भी कभी-कभी उसे माया का पात्र दिखता है। इस संघर्ष में उसका अपना कोई नहीं तो पूरी तरह से पराया भी कोई नहीं। न कोई हीरो है न कोई विलेन। बकौल मदन कश्यप, बेबी हालदार की कथा में न कोई नायक है, न ही खलनायक। जो बुरा दिखता है, उसके भीतर भी कुछ अच्छाईयाँ हैं और जो बहुत अच्छा-अच्छा बना रहता है उसकी धूर्तताएँ भी प्रकट हो जाती हैं। उसके साथ सब कुछ बुरा ही बुरा नहीं है। समय-समय पर मदद पहुँचाने वाले कुछ अच्छे लोग भी मिलते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त कर चुकी इस ईमानदार सी आत्मकथा में कुछ भी कल्पना नहीं है, न ही कोई बनाव-सिंगार है। भाषा-शैली के बनावटी तनाव से कोसों दूर आलो-आँधारी बिना किसी साहित्यिक विश्लेषण की चिंता किए बस सीधे-सीधे अपनी राह चलती जाती है और इस राह में चलते-चलते कभी वह इतनी खो जाती है कि उसे खुद पता नहीं चलता कि कब वह मैं से वह में चली गई है। इस बारे में बेबी का कहना है कि अपने जीवन की कुछ घटनाओं को भुलाते रहने की कोशिश में मुझे अब कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे वे घटनाएँ मेरे नहीं बल्कि किसी और के साथ घटी थीं। पूरी आत्मकथा में प्रमुख पात्र को मैं से संबोधित करते-करते कभी भी वह उस मैं को वह मान बैठती है बेबी के भाग्य में क्या था वह मैं खूब जानती हूँ
बेचारी बेबी! बेचारी नहीं तो क्या! और किसका होगा इतना छोटा बचपन कि दीवार से टिककर बैठ, पूरा का पूरा याद कर लिया जाए! फिर भी बेबी को उससे मोह है।
इतने दुख का दिन बेबी ने कितनी हँसी-खुशी से पार कर दिया! कुछ समझ ही नहीं पाई कि उसके साथ यह क्या हो गया
विजय मोहन सिंह (सहारा समय) के शब्दों में आत्मकथा का यह तर्जे-बयाँ उल्लेखनीय है क्योंकि यह किसी शिल्पकौशल के तहत नहीं अपनाया गया है, बल्कि अपने मैं के वह में तब्दील कर देने की प्रक्रिया में इतना स्वत: स्फूर्त और तटस्थ है कि अत्यंत प्रामाणिक और घनिष्ठ रूप से घटित लेखन की प्रक्रिया में स्वत: अपने से बाह्र होकर अपने को देखने लगता है
मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखी गई आलो-आँधारी का अनुवाद अब तक 15 भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में हो चुका है। हिंदी में इसका अनुवाद श्री प्रबोध कुमार (मुंशी प्रेमचंद के नाती) ने किया है। अनुवाद में सातवीं कक्षा तक पढ़ी बेबी हालदार की भाषा को अधिक छेड़ा नहीं गया है। पुस्तक की रूह को ज़िंदा रखने की ख़ातिर कई शब्द और वाक्य-विन्यास बंग्ला के ही रहने दिए गए हैं।
जीवन से जूझती यह आत्मकथा हमें सिर्फ किसी एक बेबी हालदार की कहानी नहीं सुनाती बल्कि जाने ऐसी कितनी बेबी हालदार होंगी जो इस कथा में वर्णित संघर्षों को जी रही होंगी और जीवटता से उनका मुकाबला कर रही होंगी।
जैसा कि मेधा पाटकर कहती हैं, मेहनतकश समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली बेबी हालदार ने इस आत्म-चित्रण में ही शोषितों, भुक्तभोगियों का जीवन-चित्रण किया है, जिसका न केवल भावनिक या साहित्यिक बल्कि राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में भी योगदान होगा। एक महिला अपनी संवेदना से अन्यायकारी दुनिया की पोल-खोल कितनी गहराई से, फिर भी सरलता से कर सकती है, इसकी प्रतीक है यह किताब।

Friday, June 25, 2010

जैक्सन - एक अकेला, अनसुलझा सितारा

'In Our Darkest Hour
In My Deepest Despair
Will You Still Care?
Will You Be There?
In My Trials
And My Tribulations
Through Our Doubts
And Frustrations
In My Violence
In My Turbulence
Through My Fear
And My Confessions
In My Anguish And My Pain
Through My Joy And My Sorrow
In The Promise Of Another Tomorrow
I’ll Never Let You Part
For You’re Always In My Heart'


कभी ये पंक्तियाँ जैक्सन ने हमारे लिए गाई थीं पर आज हम इन्ही पंक्तियों को जैक्सन को समर्पित कर रहे हैं। एक ऐसा सितारा जिसने दुनिया भर में जाने कितने लोगों की आँखों में उसके जैसे बनने के कितने सपने भरे..कितने कदमों को एक नया अन्दाज़ दिया..नई थिरकन दी...आज एक साल हुए शांत पड़ा है, एनर्जी से भरपूर अपने स्टेज शो पर कभी न थकने वाला MJ आज कहीं छ:-साढ़े छ: फीट के अन्दर चुपचाप पड़ा है...
अपने  करीबन हर गाने से हमें सांत्वना और आशा देने वाला माइकल आज एक अजीब सी चुप्पी साधे है, एक ऐसी चुप्पी जो कभी टूट नहीं सकती.....एक ऐसी खामोशी जिसे कभी आवाज़ नहीं दिया जा सकता...
मैं नहीं जानती MJ के ऊपर जिस भी तरह के आरोप लगाए गए वो सही थे या गलत (हालांकि एक दशक से भी अधिक समय तक चली इस लड़ाई में कोर्ट ने ज़्यादातर मामलों में उन्हें बरी कर दिया) लेकिन 17 साल तक FBI और मीडिया के एक वर्ग से एक अजीब सी लड़ाई लड़ता यह कलाकार सुकून के लिए हमेशा संगीत और नृत्य की ही गोद में आया ..संगीत ही उसकी दवा थी, संगीत ही उसकी दुआ थी...
और इस दुआ के लिए किंग ऑफ पॉप के नाम से मशहूर MJ के हाथ सिर्फ उसके लिए ही नहीं उठते थे बल्कि दुआओं के रूप में निकले उसके कई अधिकतर गाने सामाजिक सन्देशों से भरे पड़े थे....'हील द वर्ल्ड' 'ब्लैक ऑर व्हाइट' 'अर्थ सॉंग' जैसे जाने कितने गाने हैं जिसने हमें इस दुनिया को एक पॉज़िटिव टच देने को प्रेरित किया, जिसने हमें बताने की कोशिश की कि हम कहाँ गलत जा रहे हैं, क्या गलत कर रहे हैं और इसे कैसे हम 'हील' कर सकते हैं.....
हालांकि दुनिया भर को अपने गानों से आशा और सांत्वना देने वाले इस कलाकार को खुद कितनी शांति मिली इसका पता नहीं...उसके जीवन के खालीपन को हम सबने उसके कई  गानों में महसूस किया....'विल यू बी देयर', 'स्ट्रेंजर इन मास्को', 'आइ विल बी देयर', 'लीव मी अलोन' ऐसे कई गाने हैं जिसमें जैक्सन के मुश्किल जीवन के दर्द को समझा जा सकता है...
इन सबके अलावा 'हिस्ट्री' 'ब्लड इन द डांस फ्लोर' 'जैम' 'घोस्ट' जैसे भी कई गाने हैं जिसे सुनते ही पाँव जैक्सन के स्टेप्स पर थिरकने को मचलने लगते हैं....उसके मून वॉक्स, उसके नीचे से चार इंच छोटे पैंट, हैट, ग्लव्स और इन सबके बीच उसका अपना स्टाइल..कोई और हमें नहीं दे सकता....
जीवन के समाप्त होने के एक वर्ष बाद ऐसा लगता है कि मौत ने भी उसके साथ नाइंसाफी की...
जब अपनी सभी लड़ाईयाँ लड़ते हुए MJ ने अपना कमबैक फिक्स किया और दुनिया का सबसे बड़ा एंटरटेनर हमें एक बार फिर अपने साथ, अपने संगीत के साथ कहीं और उड़ा ले जाने की तैयारी करने लगा तो उस पल का बेकरारी से इंतज़ार करती पूरी दुनिया को उस शो से कुछ दिनों पहले 25 जून 2009 को एक सन्नाटेदार खबर सुनने को  मिली......



MJ is no more.......................
                                                                                                                       


But MJ..we know that you will be there for me for us for everyone..always...through your dance, through your songs we will always get in touch with you....Yes you are there in our heart....
We all love you...Thank u for spending 50 years of your life in our world...Thank u..

Friday, June 4, 2010

काली आज़ादी

एक अजीब तनहाई है
चारों तरफ एक शोर से घिरी,
शोर
अविश्वास का, अनमनेपन का, गहरे विषाद का,
गुस्से का, अनास्था का, अनजानेपन का।
एक अजीब सन्नाटे को ख़ुद से लपेटे
यह ज़िंदगी
जितनी गुज़रती है, उतनी ही खुदगर्ज़ होती जाती है
बेईमान होती जाती है, ख़तरनाक होती जाती है।
एक काली आज़ादी है जैसे
अंधकार की आज़ादी,
धोखेबाज़ी की आज़ादी,
दूर होते रहने की आज़ादी।
वह घास जो दूर से हरी दिखती है
उसके जितने पास जाओ, वह रेत की तरह पीली होती जाती है
उसे आज़ादी मिली है पीले होने की।
उस घास में दर्प है, अहंकार है
पीले होने का,
काली आज़ादी का
जो उसे अंधेरी ही सही
पर
आज़ादी तो देती है।

Saturday, April 3, 2010

याद आते हो

सागर किनारे की लहरें जब छूती हैं मुझे ,
तुम याद आते हो
डूबते सूरज के पीछे से झाँकते हो
धीरे से मुस्कुराते हो,
तुम याद आते हो।
अमलतास के पीले फूल पूछते हैं मुझसे
पूरब की खिड़की मेरी बंद है कब से
पीपल के सूखे, झड़े हुए पत्ते
उड़ते-उखड़ते तुम्हें चाहते हों जैसे
पीलेपन में इनके जब तुम छा जाते हो
धीरे से आकर इन्हें थपथपाते हो,
तब याद आते हो।
परछाईयों तक पसरकर शाम की मरियल धूप
मांगती है मुझसे अपना सुनहरा रंग-रूप
शिकवा करती है तुम्हारी यह पागल हवा
पूछती है कहाँ गई वह सोंधी सबा
अनजान बनकर दामन जब छोड़ जाते हो
हसरतों को इनकी जब आज़माते हो,
तुम याद आते हो।

Friday, March 26, 2010




जंगली मन का जीना,
जैसे हर दिन एक नया जंगल
जीना...
जंगली मन के साथ,
सुबह-शाम-दिन-रात..

Saturday, March 6, 2010

कुछ ऐसे सरल उपाय जिन्हें अपनी दिनचर्या में शामिल करके आप तनाव और इसके प्रभावों को अपने-आप से कोसों दूर रख सकते हैं...पढ़िए,,आसान हैं और मजेदार भी!

हमने अक्सर लोगों से यह सुना है कि ज़िन्दगी हमें एक या अधिक-से-अधिक दो मौके देती है लेकिन यदि आप जीवन में अधिक से अधिक मौके पाना चाहते हैं तो हर परिस्थिति में अपने-आप को शांत और धैर्यवान बनाने की कोशिश कीजिए। हालांकि आज की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में हममें से अधिकतर लोग ऐसा कर नहीं पाते। बढ़ती महंगाई, बच्चों की पढ़ाई, करियर, डेडलाइनें, ट्रैफिक जाम,...कई ऐसी चीज़े हैं जिनसे बचा नहीं जा सकता। तनाव हमारे जीवन में ऐसा घर कर गया है कि इसे अपनी जीवनचर्या से निकालना असम्भव सा हो गया है।
शायद हममें से कई लोग यह नहीं जानते कि अधिक तनाव हमें कई तरह की शारीरिक समस्याएँ देता है, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: मांसपेशियों का खिंचाव, चिंता, चक्कर आना, दिल की धड़कनों का तेज़ होना, सर में दर्द, भूख कम लगना, अस्थमा, मधुमेह, एलर्जी, पीठ का दर्द, शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का कम होता जाना, हाईपरटेंशन होना, आत्मविश्वास की कमी, डर, डिप्रेशन, हृदय संबंधित रोग और यहाँ तक कि कैंसर भी। इसके अलावा तनाव की वज़ह से हमें अल्सर, माइग्रेन तथा पाचन संबंधित बीमारियाँ भी हो सकती हैं।
इन घातक बीमारियों का शिकार होने से बेहतर है कि हम तनाव को अपने जीवन से निकाल बाहर करें और यदि हम इसे अपने जीवन से निकाल नहीं सकते हैं तो इसे अपने ऊपर हावी न होने देने के तरीकों के बारे में जानें और इन बीमारियों से दूर एक बेहतर और खुशहाल जीवन बिताएँ। ऐसे कई तरीके हैं जिनकी मदद से हम इसी तनावग्रस्त दुनिया में रहते हुए और यही जीवन जीते हुए कई बीमारियों के जड़ इस तनाव से दूर रह सकते हैं। इन नुस्खों को अपनाइए और देखिए कि कैसे तनाव आपके लिए कम खतरनाक होता जाता है:
1. मसाज कराएँ मसाज हमारे शरीर और मन दोनों को शिथिल करता है और यहीं से हमारे मन को शांति मिलनी शुरु होती है। कहते हैं जब शरीर को आराम मिलता है तो मानसिक चिंताएँ अपने-आप कम होने लगती हैं। मसाज हमारे रक्त संचार को बढ़ाता है और बढ़ा हुआ रक्त संचार हमारे शरीर को ताज़ा ऑक्सीजन लेने में सहायक होता है। और यह तो हम सभी जानते हैं कि ताज़ा ऑक्सीजन हमें कई बीमारियों से बचाता है। तो जब भी तनाव हो मसाज कराएँ और वैसे भी यह सुविधा तो आप घर बैठे प्राप्त कर सकते हैं। वैसे मसाज आपको टच थेरैपी भी उपलब्ध कराता है जो तनाव मिटाने में काफी सहायक सिद्ध होता है।
2. एक्यूप्रेशर और एक्यूपंचर: ये दोनों ही तनाव भगाने की एक बहुत ही कारगर और आसान तकनीक है क्योंकि आप इसे कहीं भी और कभी भी इस्तेमाल में ला सकते हैं। इनसे आप सर दर्द, एलर्जी, गर्दन और पीठ के दर्द तथा कई प्रकार के न्यूरोलॉजिकल डिसॉर्डर इत्यादि से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं।
 3. योग व व्यायाम: यह तो आजकल हम सभी जानते हैं कि नियमित योग, व्यायाम, सुबह-शाम की वॉक और साइकिलिंग जैसी गतिविधियाँ न हमें सिर्फ शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रखती हैं बल्कि किसी भी प्रकार की नकारात्मक विचारों से दूर रख कर मानसिक रूप से भी फिट रखने में सहायक होती हैं।

4. हँसे-गाएँ: और न सिर्फ हँसे बल्कि खुल कर, जी भर कर हँसे, और यदि हँसी ऐसे न आए तो कोई कॉमेडी फिल्म देखें, कोई मज़ेदार पुरानी बात याद करें...
बच्चों के साथ खेलें या ज़ोर-ज़ोर से अपना पसन्दीदा गाना गाएँ, यह न सोचें कि पड़ोसी क्या कहेगा; सोचें कि अगर पड़ोसी कुछ कहेगा तो उसे भी साथ बिठा लेंगे गाने को।
5. कोई प्यारा सा जानवर पालें और उसके साथ खूब खेलें: तनाव भगाने का एक और भी बहुत कारगर तरीका है वह है पालतू जानवर। घर में कोई न कोई जानवर पालें - बेहतर होगा कि कुत्ते पालें क्योंकि कुत्ते प्यार दर्शाने में बहुत माहिर होते हैं और आपके प्रति अपने अन्दर के प्यार को सुबह-शाम दर्शाकर वे आपके अन्दर खुशी और उत्साह का संचार करते हैं। इसके अलावा कुत्ते आपको सुरक्षा का अहसास भी कराते रहते हैं।
6. कहीं घूमने जाएँ: मौका मिलते ही घूमने निकल जाएँ, यदि परिवार और दोस्त साथ हों तो क्या बात है, लेकिन यदि कोई साथ न आ पा रहा हो तो अकेले ही भ्रमण करें। अकेले घूमने से कई बार हमारा ध्यान उन चीज़ों पर जाता है जिनपर किसी के साथ रहने से हमारी नज़र तक नहीं पड़ती।
 7. अपनी आलोचना को सकारात्मक रूप में लेना शुरु करें: हालांकि यह बहुत ही कठिन कार्य है लेकिन की गई आलोचना की कटुता को नज़रअन्दाज़ करते हुए इसकी सच्चाई पर ध्यान दें और उस क्षेत्र में सकारात्मक रूप से काम करना शुरु करें। याद रखें आलोचना ही हमें आगे भी बढ़ाती है और आलोचना ही हमें नीचे भी गिराती है, यह हमपर निर्भर करता है कि हम इसमें से क्या चुनते हैं।
8. तनाव में कोई निर्णय न लें|
9. खाली समय में कुछ रचनात्मक कार्य करें। किसी स्पोर्ट्स क्लब से जुड़ें और हर शाम नियमित रूप से वहाँ जाएँ, जी भर कर बच्चों की तरह खेलें या पोएट्री क्लब से जुड़ जाएँ, पेंटिंग बनाएँ, फोटोग्राफी करें या कुछ भी जो आपका शौक हो। अपने शौक का एक कलेक्शन बनाएँ और उसे प्रदर्शित करने के उपाय के बारे में सोचें।
10. किसी भी चीज़ की योजना पहले से बनाएँ। जल्दबाज़ी और अंतिम समय में बनाई गई योजनाएँ अक्सर खराब परिणाम देती हैं और फिर ये आपके तनाव का कारण बनती हैं।
11. लोगों के लिए कुछ अच्छा करें। चाहे छोटी-मोटी मदद हो या कोई बड़ी सहायता, किसी के मुस्कुराते चेहरे के साथ कहा गया धन्यवाद शब्द हमें अन्दर तक खुश और संतुष्ट कर जाता है।
12. माफ करते चलें: माफ कीजिए और खुद ही देखिए कैसी अनुभूति होती है।
13. यदि आप तनाव देने वाली स्थिति में सुधार कर सकते हैं तो सकारात्मक सोच और पूरी दृढ़ता के साथ उसमें जुट जाइए लेकिन अगर स्थिति के बेहतरीकरण में आप कुछ नहीं कर सकते तो सोचिए कि जो हो रहा है, अच्छे के लिए हो रहा है। इससे भी बुरा हो सकता था।
14. और अंत में अगर आपकी चिंता करने से कुछ होता है तो अपने स्वास्थ्य की चिंता करनी शुरु कीजिए और देखिए तनाव कैसे खुद-ब-खुद आपसे दूर हो जाता है।
तो आज ही से इन गुरों को अपनाइए और ज़िन्दगी में मिलने वाले कई सारे मौकों को जीते जाइए।

Saturday, February 20, 2010

जली रोटी

कल रोटी बनाते समय
मेरा हाथ तवे से छू गया
जलन से मैं चिल्ला उठी
उस चीख में
अचानक एक और चीख मिल गई,
पड़ोस की माथुर आंटी की
जब दो महीने पहले
उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया था,
उनकी शिफॉन की ख़ूबसूरत गुलाबी साड़ी
भयंकर काले रंग के कूड़े के ढेर में तब्दील हो गई थी,
एक छोटी सी मासूम लड़की की
जब फूल चुनने जाने पर
गार्डन में मालिक के कुत्ते ने
उसे काट खाया था,
उस लड़के की
जब कुछ लोगों ने
उसकी पीठ में छुरा भोंक दिया था
उसकी पॉकेट से तीन सौ दस रुपए लेने के लिए ,
उस लंगड़े भिखारी की
जिसकी नज़रें टिकी थीं
भीख में मिले दस रुपए पर
तब बत्ती हरी हो गई थी
और उसके पीछे बस खड़ी थी,
दंगे में हथियार लिए
गुस्से से पागल भीड़ से भागती,
अपने बच्चे को गोद में चिपटाए
एक माँ की
जिसके बेतहाशा दौड़ते पैर
कभी साड़ी में
तो कभी बुरके के घेरे में फंस जाते हैं,
और भी कई चीखें थीं
जो आपस में इतनी बुरी तरह गुँथीं थीं
कि उन्हें पहचानना मुश्किल था।
मैंने घबराकर अपने कान बन्द कर लिए,
आवाज़ें अभी भी आ रही थीं।
धीरे-धीरे करके जब वे खत्म हुईं
तो उस चीख के खत्म होने पर
एक अजीब मरघट-सी चुप्पी थी,
उस चुप्पी में कई ख़ामोशियाँ थीं
जो
कभी गुजरात में बैठे
एक बूढ़े की आँखों में पथराती हैं,
तो कभी
काश्मीर से भागे
एक पंडित की ज़ुबाँ से चिपक जाती हैं,
कभी सड़क पर पड़े
एक लड़के की लाश से होकर गुज़र जाती हैं
जो अभी कुछ देर पहले थरथराई थी,
कभी किसी चौराहे पर सोए
एक आधे-अधूरे कंकाल पर फैलती हैं
जो कभी शायद ज़िन्दा था,
कभी एक दुल्हन को छू जाती हैं
जिसकी जली हथेलियों में
कभी मेहन्दी भी लगी थी।
एक ऐसी ख़ामोशी
जो सबसे होकर गुज़र जाती है
और सभी चुपचाप, बस चुपचाप
खड़े रह जाते हैं।
मेरा ध्यान तवे पर गया
तवे पर रखी रोटी
बुरी तरह से जल चुकी थी।

Saturday, February 6, 2010

बादलों की सफेदी पर...

बादलों की सफेदी पर अब काले रंग नहीं उभरते क्या?
दो छोटे-छोटे पंख लेकर पंछी भी अब उड़ान नहीं भरते क्या?
लगता है बारिश ने हमेशा-हमेशा के लिए घूंघट ओढ़ लिया है
हवाओं ने भी पीले-हरे पत्तों का दामन छोड़ दिया है।
आँखों से देखो तो आसमान नीला है
और आँखें बन्द करने पर कुछ दिखता ही नहीं
कोरे-कोरे कागज़ सब कोरे ही उड़ जाते हैं
क्या उनपर अब कोई अपना हाल-पता लिखता नहीं?
तितलियों और फूलों में भी बातचीत बन्द है शायद
उड़ते-खिलते दोनों एक-दूसरे को देखते तक नहीं,
या वे भी इंसानों की फेहरिस्त में आ गए
जो दोस्तों के दरवाज़े खटखटाना भूल गया,
अंगुलियों में अंगूठियाँ तो काफी हैं
पर उन अंगुलियों को कलम पकड़ाना भूल गया,
तालियों पर तालियाँ बजाता वह महफिल में
खुशी से पीठ थपथपाना भूल गया।
बादलों की सफेदी पर काले रंग नहीं आते अब
वे सब हमारे नाखूनों में उतरने लगे हैं
पेड़ तो बहुत हैं अपने हिस्से की छाया देते
पर छुईमुई के पौधे सब ज़मीन के नीचे सोने लगे हैं।
देखो ना ईश्वर तुम भी ज़रा झांककर
हर कोई इतना अलग-अलग, चुप-चुप, रूठा-रूठा सा क्यों है?
आँखों के मिलने पर मुस्कुराती हैं आँखें,
पर उन आँखों में कुछ झूठा-झूठा सा क्यों है?
मिलते हैं कभी-कभार हाथों से हाथ भी
पर उन हाथों में कुछ छूटा-छूटा सा क्यों है?
सोचो न तुम भी झाँको न एक बार
सबके लिए सबको मिलाओ न एक बार
क्या हुआ जो एक-दूसरे से टकराएँगे सारे
उस टकराहट में अपनापन मिलाओ न एक बार 
सबको फिर से जिलाओ न एक बार 
अंगुलियों को अंगुलियों से पिराओ न एक बार 
धड़कनों को धड़कनों से मिलाओ न एक बार 
बारिश के घूँघट को हटाओ न एक बार 
आसमाँ पर काला रंग बिखराओ न एक बार 
इस बारिश में तुम भी नहाओ न एक बार।

Friday, January 29, 2010

बदनाम

"ये बदनाम गली है साहब, मैं इधर से नहीं जाऊँगा" - कहकर रिक्शे वाले ने रास्ता बदल लिया।
दूसरे ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होकर हम अपने घर पहुँचे। घर, जिसे मैंने किराए पर लिया था दो महीने के लिए। पैसे देकर मैंने रिक्शे वाले से पूछा - "क्यों भई, वो गली बदनाम क्यों है?"

"क्योंकि वहाँ मीराबेन रहती है और वह अच्छी औरत नहीं है" - इतना कहकर फिर उसने कहा - "साहब आप भूलकर भी उधर मत जाइएगा, अच्छे लोग उस तरफ नहीं जाते"

रात के भोजन के बाद टहलने निकला। चलते-चलते उस तरफ निगाहें गईं। ना चाहने के बावज़ूद एक चाह हुई उधर जाने की।
वह गली सचमुच बदनाम होने योग्य थी। हवा में शराब की बदबू थी, हर थोड़ी दूर पर बोतलें बिक रही थीं, फिल्मों के पोस्टरों से घरों की दीवारें अटी पड़ीं थीं, जगह-जगह कुत्ते बैठे थे और यूँ घूर रहे थे मानो पता लगा रहे हों कि यह आदमी अच्छा है या बुरा; इस गली में आने योग्य है या नहीं, कहीं बल्ब तो कहीं लालटेन की धीमी रौशनी अंधेरे को दूर करने में कहीं सफल तो कहीं थोड़ा कम सफल हो रही थी।

लोग नशे में धुत थे या फिर होने की कोशिश कर रहे थे। हर जगह असभ्यता सड़ांध मार रही थी। कहीं घर के दरवाज़े टूटे पड़े थे तो कहीं खिड़कियाँ, तो कहीं दीवारों में ही छेद था। महिलाएँ पान वालों की दुकान पर पान खाकर होठों को लाल कर रहीं थीं - यह गली सचमुच बदनाम होने योग्य थी।

मैं घबराकर वहाँ से बाहर निकलने ही वाला था कि पीछे से किसी ने पुकारा - "ए बाबूजी"
मैंने मुड़कर देखा, नारंगी साड़ी में लिपटी एक आकर्षक युवती खड़ी थी।
मुस्कुराते, इठलाते, अपनी कमर पर एक हाथ रखकर उसने पूछा - "कहाँ जा रहे हो?"
मैंने बिना कुछ जवाब दिए घर की ओर पाँव बढ़ा दिए।

"मीराबेन से मिले बिना जा रहे हो? हमसे कुछ ख़ता हो गई क्या?" - कहकर वह हँसी, खुलकर हँसी; वैसे नहीं जैसे हमारे घर की महिलाएँ हँसती हैं। उस हँसी में जाने क्या था कि मैंने पलटकर उसे देखा।
वह अचानक चुप हो गई। कुछ देर मुझे देखा और बिना हिचकिचाहट मेरे पास आकर मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा - "जाना चाहते हो? जाओ..."
मैं चल पड़ा।

गली के अंत तक आकर मैंने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा।
मीराबेन अभी भी वहीं खड़ी थी। 
इस बार उसने वहीं से पूछा - "क्यों आए थे?"
मैंने हकलाते हुए बड़ी मुश्किल से कहा - "नहीं....वो...ऐसे ही..."
वह फिर हँस पड़ी शायद मेरी हकलाहट पर, फिर संजीदा होकर बोली - "इस बदनाम गली में ऐसे ही?"
कहकर वह धीरे-धीरे चलते हुए मेरे पास आई।
कुछ देर चुप रहकर बोली - "जानते हो, अच्छे और बुरे लोगों में क्या अंतर होता है?"  फिर ख़ुद ही उसने कहा - "अच्छे लोग अपनी अच्छाई से डरते हैं कि कही वह डगमगा न जाए पर बुरे लोग नहीं डरते, बुरे लोग ख़ुद पर विश्वास करते हैं, अच्छे लोग नहीं कर पाते" - मैं अचंभित होकर उसे देखता रह गया - इतना कहकर वह वापस मुड़ने को हुई।

इस बार मुझे न जाने क्या हुआ कि मैंने उसका हाथ पकड़ लिया -
"मीराबेन"
"बोलो"
"तुम ये सब क्यों करती हो?"
क्योंकि मुझे पसंद है, ये लोग, ये बातें, ये खुलापन, ये गली सब पसंद हैं मुझे"
"लेकिन इससे तुम्हारी बदनामी........" - कहकर मैं रुक गया।
"रुक क्यों गए? बोलो"
"क्या बोलूँ"
मीराबेन ने मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में लेते हुए कहा - "यह बदनामी भी पसंद है मुझे" 
"लेकिन......." - मैं कुछ बोलने ही वाला था कि उसने मेरा हाथ छोड़ते हुए कहा - "लेकिन क्या?........एक बात बताओ बाबू, तुम्हें कितने लोग पहचानते हैं और मुझे कितने लोग जानते हैं" - उसकी आँखों में विश्वास था, आवाज़ में कठोरता थी, होठों पर हँसी थी, मेरी आँखों में झाँकते हुए उसने कहा - "मैं बेशक बदनाम हूँ पर इधर-उधर चलते लोगों की तरह, तुम्हारी तरह गुमनाम तो नहीं" - कहकर वह फिर ज़ोर से हँसी, ऐसी हँसी जिसमें एक ऐसा आत्मविश्वास था जो उसका भी था और उसके जैसे कई औरों का भी था।
"ये बदनामी इस बात को सच करती है कि मैं जीवित हूँ" 
मैं उसका चेहरा देखता रह गया और सलाम कर वह वापस चल दी हँसते-मुस्कुराते।
अचानक गली में कहीं दूर से किसी ने पुकारा - "अरे मीराबेन"
और मीराबेन उस तरफ मुड़ गई।

Thursday, January 28, 2010


काश कि कुछ ऐसा हो पाता
कि जो सड़क पर है वह अपनी आवारीगर्दी को जी पाता
इस ठंढे मौसम की खुशहाली, हरियाली को
किसी गर्म, रुईदार कम्बल में सी पाता
ठंढ को सिरहाने रख, ज़िन्दगी के गर्म बिस्तर पर सोता वह
किसी तकिए की खुश्बू को जीता, अलाव की गरमी को पी पाता
काश..कि कुछ ऐसा हो पाता

Tuesday, January 12, 2010

यार हवा

यार हवा
चुप रहो
मत बोलो इतने ज़ोर-ज़ोर से
ठंढ की भाषा
चुप रहो उसी तरह
जिस तरह
ये ऊँचे-ऊँचे पेड़ चुप हैं
तुम्हारे ये थपेड़े खाकर भी,
मत बोलो उसी तरह
जिस तरह
ये हरा-भरा मैदान
कुछ नहीं कहता
अपनी घास को सफेद बर्फ में
बदलते देखकर भी,
चुप रहो
जिस तरह
खिड़की के कोने में बैठी
वह बिल्ली चुप है
अपने-आप को
परदे के पीछे छुपाकर,
जैसे
ये सड़क चुप है
अपने ऊपर बर्फ का बोझ सहते हुए भी,
उसी तरह
जिस तरह
बाबा के आगे जलते
अलाव की आग
कुछ नहीं कहती,
वैसे ही जैसे
भूरा ओवरकोट पहने
मेरी पड़ोसन चुप है,
चुप रहो; क्योंकि
तुम्हारी यह भाषा बहुत ठंढी है
जो हमारे भीतर की गरमी सोख लेती है,
मत बोलो; क्योंकि
तुम्हारी यह तेज़ आवाज़
हमारी कई आवाज़ों को लील जाती है
और इसीलिए
इन सभी की तरह तुम भी
कुछ मत बोलो
चुप रहो,
यार हवा।