Tuesday, March 22, 2011

यह एक बहुत पुराना सा साल

एक साल बीत गया
ख़ामोशियों, तनहाइयों
और समझौतों से भरी
इस एक साल की ज़िंदगी
बड़ी डरावनी रही।
जाने कितने सन्नाटे आए और यहीं के होकर रह गए
जाने कितनी मजबूरियों ने इस दिल पर कितने कहर किए
अटकती, भटकती साँसों के बीच ज़िंदा
एक मरा सा दिल
जाने कितनी ज़िंदगियाँ जीता
अपने-आप को सहारा देता
मुस्कुराहट देने की अधूरी कोशिश करता
साथ चलते इस तानाशाह, बेरुख़े, भयंकर से समय को अनचीन्हा छोड़ता
सदमों की राहों पर
भागता-छिपता-फिरता
कभी रोता, कभी चीखता, कभी घबराता, डरता
कभी गुमसुम, चुपचाप बैठता,
थककर भागता
ये पराया सा बेवकूफ दिल
अपने-आप की गिरफ़्त से छूटता
छटपटाता
इस साल तक कई सालों को जीता रहा
या शायद जीने का अर्थ मिटाता हुआ
अपने-आप से रीत गया,
यह एक बहुत पुराना सा साल
बहुत धीरे-धीरे करके
बहुत कुछ साथ लेकर, सब कुछ मिटाकर, कुछ-कुछ ज़िंदा छोड़कर
बीत गया।


(उस एक नादान से दिल के लिए और उसकी एक नादानी के लिए)

Friday, March 18, 2011

और धुआँ ना उठे

मेरी माटी जल जाए
और धुआँ ना उठे
मैं ख़ाक हो जाऊँ
और धुआँ ना उठे

मेरा आसमाँ खिले
दो जहाँ से मिले
मेरी याद मिट जाए
और धुआँ ना उठे

मेरा रास्ता चले
अपनी मंज़िल तले
ये क़दम बहक जाएँ
और धुआँ ना उठे

वहीं चाँद थम जाए
जहाँ सूरज ढले
रौशनी पिघल जाए
और धुआँ ना उठे

ये हवा भी थम जाए
मौसम बदल जाए
मेरे पर सम्हल जाएँ
और धुआँ ना उठे

Saturday, March 12, 2011

एक अजीब सी दुनिया हो गई है ये...लोग तभी बिलखते हैं जब उनके ख़ुद के दिल में दर्द होता है...सब कुछ अपने हिसाब से ....दूसरों की त्वचा की मोटाई भी अपने हिसाब से देखना पसन्द करने वाली दुनिया, दूसरों की संवेदनशीलता पर भी अपना आधिपत्य जमाने वाली दुनिया....अजीब सी ख़ुदगर्ज़...

Tuesday, March 8, 2011

इस सुनहरी दिन की एक काली, अन्धेरी छाया भी है....

अभी-अभी ‘साझा-संसार’ में ‘बच्चियों का घर (चम्पानगर, भागलपुर) – 1 (http://saajha-sansaar.blogspot.com/2011/03/1.html) पढ़ा। अनाथालय चलाने वाले मोहम्मद मुन्ना साहब का एक कथन है, "फ़ायदा भी क्या है लड़कियों को पढ़ाने से?"

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर आज इस पंक्ति ने बड़ा ही अजीब सा माहौल बना दिया मन के अन्दर....शायद एक टीस, एक बेचैनी या शायद एक आहत मन की जानी-पहचानी आदत...hurt होने की....क्या करें ऐसी लड़कियों के लिए जिन्हें अभी से ही यह महसूस कराया जा रहा है कि स्कूली शिक्षा उनके लिए बेकार है, कि उन्हें सिर्फ क़ुरान के हिसाब से जीकर एक दिन मर जाना है...कि उनका मतलब सिर्फ घर, खाना बनाना, दब-छिप कर रहना, हर ज़्यादती को सामान्य रूप में लेना और अपने समर्थन में यदा-कदा किए गए किसी ‘हाँ’ को अपनी ख़ुशकिस्मती मानना ही है.......जाने क्या बहुत कुछ सा कहना चाहती हूँ पर मन अपने सामने शब्दों का आईना रखने से डरता है, डरता है कि कहीं फिर से एक ऐसी कोशिश का सामना न हो जाए जो आधी-अधूरी रह गई हो.....आज हममें बहुत सी ऐसी महिलाएँ हैं जो अपनी ख़्वाहिशों को जी रही हैं, जैसा ख़ुद जीना चाहती हैं वैसा जी रही हैं, अपने-अपने पसंद की ऊँचाईयाँ छू रही हैं...पर अभी बहुत से घर ऐसे हैं जहाँ लड़कियों ने अभी ये भी नहीं जाना कि वे लड़की होने से पहले इंसान हैं, कि ज़िन्दगी पाबन्दियों के पैबन्दों के अलावा भी कुछ है, बहुत कुछ है...

इंतज़ार में हूँ कि कब वो दिन देखूँगी जब हमें ईश्वर के इस अनमोल उपहार को यह बताना नहीं पड़ेगा कि आज़ादी क्या है, कि कब ऐसा दिन आएगा जब वे ख़ुद अपनी-अपनी आज़ादी को महसूस करेंगी......और इसके लिए उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं पड़ेगी....न मेरी, न आपकी, न ख़ुदा के इनायत की....