Friday, January 29, 2010

बदनाम

"ये बदनाम गली है साहब, मैं इधर से नहीं जाऊँगा" - कहकर रिक्शे वाले ने रास्ता बदल लिया।
दूसरे ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होकर हम अपने घर पहुँचे। घर, जिसे मैंने किराए पर लिया था दो महीने के लिए। पैसे देकर मैंने रिक्शे वाले से पूछा - "क्यों भई, वो गली बदनाम क्यों है?"

"क्योंकि वहाँ मीराबेन रहती है और वह अच्छी औरत नहीं है" - इतना कहकर फिर उसने कहा - "साहब आप भूलकर भी उधर मत जाइएगा, अच्छे लोग उस तरफ नहीं जाते"

रात के भोजन के बाद टहलने निकला। चलते-चलते उस तरफ निगाहें गईं। ना चाहने के बावज़ूद एक चाह हुई उधर जाने की।
वह गली सचमुच बदनाम होने योग्य थी। हवा में शराब की बदबू थी, हर थोड़ी दूर पर बोतलें बिक रही थीं, फिल्मों के पोस्टरों से घरों की दीवारें अटी पड़ीं थीं, जगह-जगह कुत्ते बैठे थे और यूँ घूर रहे थे मानो पता लगा रहे हों कि यह आदमी अच्छा है या बुरा; इस गली में आने योग्य है या नहीं, कहीं बल्ब तो कहीं लालटेन की धीमी रौशनी अंधेरे को दूर करने में कहीं सफल तो कहीं थोड़ा कम सफल हो रही थी।

लोग नशे में धुत थे या फिर होने की कोशिश कर रहे थे। हर जगह असभ्यता सड़ांध मार रही थी। कहीं घर के दरवाज़े टूटे पड़े थे तो कहीं खिड़कियाँ, तो कहीं दीवारों में ही छेद था। महिलाएँ पान वालों की दुकान पर पान खाकर होठों को लाल कर रहीं थीं - यह गली सचमुच बदनाम होने योग्य थी।

मैं घबराकर वहाँ से बाहर निकलने ही वाला था कि पीछे से किसी ने पुकारा - "ए बाबूजी"
मैंने मुड़कर देखा, नारंगी साड़ी में लिपटी एक आकर्षक युवती खड़ी थी।
मुस्कुराते, इठलाते, अपनी कमर पर एक हाथ रखकर उसने पूछा - "कहाँ जा रहे हो?"
मैंने बिना कुछ जवाब दिए घर की ओर पाँव बढ़ा दिए।

"मीराबेन से मिले बिना जा रहे हो? हमसे कुछ ख़ता हो गई क्या?" - कहकर वह हँसी, खुलकर हँसी; वैसे नहीं जैसे हमारे घर की महिलाएँ हँसती हैं। उस हँसी में जाने क्या था कि मैंने पलटकर उसे देखा।
वह अचानक चुप हो गई। कुछ देर मुझे देखा और बिना हिचकिचाहट मेरे पास आकर मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा - "जाना चाहते हो? जाओ..."
मैं चल पड़ा।

गली के अंत तक आकर मैंने एक बार फिर पीछे मुड़कर देखा।
मीराबेन अभी भी वहीं खड़ी थी। 
इस बार उसने वहीं से पूछा - "क्यों आए थे?"
मैंने हकलाते हुए बड़ी मुश्किल से कहा - "नहीं....वो...ऐसे ही..."
वह फिर हँस पड़ी शायद मेरी हकलाहट पर, फिर संजीदा होकर बोली - "इस बदनाम गली में ऐसे ही?"
कहकर वह धीरे-धीरे चलते हुए मेरे पास आई।
कुछ देर चुप रहकर बोली - "जानते हो, अच्छे और बुरे लोगों में क्या अंतर होता है?"  फिर ख़ुद ही उसने कहा - "अच्छे लोग अपनी अच्छाई से डरते हैं कि कही वह डगमगा न जाए पर बुरे लोग नहीं डरते, बुरे लोग ख़ुद पर विश्वास करते हैं, अच्छे लोग नहीं कर पाते" - मैं अचंभित होकर उसे देखता रह गया - इतना कहकर वह वापस मुड़ने को हुई।

इस बार मुझे न जाने क्या हुआ कि मैंने उसका हाथ पकड़ लिया -
"मीराबेन"
"बोलो"
"तुम ये सब क्यों करती हो?"
क्योंकि मुझे पसंद है, ये लोग, ये बातें, ये खुलापन, ये गली सब पसंद हैं मुझे"
"लेकिन इससे तुम्हारी बदनामी........" - कहकर मैं रुक गया।
"रुक क्यों गए? बोलो"
"क्या बोलूँ"
मीराबेन ने मेरा हाथ अपने दोनों हाथों में लेते हुए कहा - "यह बदनामी भी पसंद है मुझे" 
"लेकिन......." - मैं कुछ बोलने ही वाला था कि उसने मेरा हाथ छोड़ते हुए कहा - "लेकिन क्या?........एक बात बताओ बाबू, तुम्हें कितने लोग पहचानते हैं और मुझे कितने लोग जानते हैं" - उसकी आँखों में विश्वास था, आवाज़ में कठोरता थी, होठों पर हँसी थी, मेरी आँखों में झाँकते हुए उसने कहा - "मैं बेशक बदनाम हूँ पर इधर-उधर चलते लोगों की तरह, तुम्हारी तरह गुमनाम तो नहीं" - कहकर वह फिर ज़ोर से हँसी, ऐसी हँसी जिसमें एक ऐसा आत्मविश्वास था जो उसका भी था और उसके जैसे कई औरों का भी था।
"ये बदनामी इस बात को सच करती है कि मैं जीवित हूँ" 
मैं उसका चेहरा देखता रह गया और सलाम कर वह वापस चल दी हँसते-मुस्कुराते।
अचानक गली में कहीं दूर से किसी ने पुकारा - "अरे मीराबेन"
और मीराबेन उस तरफ मुड़ गई।

Thursday, January 28, 2010


काश कि कुछ ऐसा हो पाता
कि जो सड़क पर है वह अपनी आवारीगर्दी को जी पाता
इस ठंढे मौसम की खुशहाली, हरियाली को
किसी गर्म, रुईदार कम्बल में सी पाता
ठंढ को सिरहाने रख, ज़िन्दगी के गर्म बिस्तर पर सोता वह
किसी तकिए की खुश्बू को जीता, अलाव की गरमी को पी पाता
काश..कि कुछ ऐसा हो पाता

Tuesday, January 12, 2010

यार हवा

यार हवा
चुप रहो
मत बोलो इतने ज़ोर-ज़ोर से
ठंढ की भाषा
चुप रहो उसी तरह
जिस तरह
ये ऊँचे-ऊँचे पेड़ चुप हैं
तुम्हारे ये थपेड़े खाकर भी,
मत बोलो उसी तरह
जिस तरह
ये हरा-भरा मैदान
कुछ नहीं कहता
अपनी घास को सफेद बर्फ में
बदलते देखकर भी,
चुप रहो
जिस तरह
खिड़की के कोने में बैठी
वह बिल्ली चुप है
अपने-आप को
परदे के पीछे छुपाकर,
जैसे
ये सड़क चुप है
अपने ऊपर बर्फ का बोझ सहते हुए भी,
उसी तरह
जिस तरह
बाबा के आगे जलते
अलाव की आग
कुछ नहीं कहती,
वैसे ही जैसे
भूरा ओवरकोट पहने
मेरी पड़ोसन चुप है,
चुप रहो; क्योंकि
तुम्हारी यह भाषा बहुत ठंढी है
जो हमारे भीतर की गरमी सोख लेती है,
मत बोलो; क्योंकि
तुम्हारी यह तेज़ आवाज़
हमारी कई आवाज़ों को लील जाती है
और इसीलिए
इन सभी की तरह तुम भी
कुछ मत बोलो
चुप रहो,
यार हवा।