Wednesday, September 16, 2009

मरते आदमी की कविता

मैं शब्दों के मोहजाल नहीं बिछा सकता,
क्योंकि मैं कवि नहीं हूँ
मैं एक आम आदमी हूँ।
पंक्तियों पे पंक्तियाँ नहीं बिठा सकता
क्योंकि मैं इन्हें बनाना नहीं चाहता
बस ये बनती चली जाती हैं।
इनके बनने में मेरा सिर्फ एक योगदान है
कि मुझे हिन्दी लिखनी आती है।
आम आदमी होने का अनुभव
स्वयं में एक कविता है।
लेकिन कविता ख़ूबसूरती की नहीं,
बदसूरती की भी नहीं
वह कविता सिर्फ रेंग सकने की आपाधापी है
वह कविता ज़िन्दगी से जूझती नहीं
बल्कि ज़िन्दा रहने की कशमकश है।
यह वह कविता है जो ज़िन्दा तो है
पर कब मर जाए कोई ठिकाना नहीं।
और मरने वाला चाहे और कुछ भी हो
पर ख़ूबसूरत नहीं होता।
और इसीलिए
मैं अपनी कविता में शब्दों के मोहजाल नहीं बिछा पाता,
पंक्तियों पे पंक्तियाँ नहीं बिठा पाता।

Monday, September 7, 2009

मन के भीतर कोलाहल में...


मन के भीतर कोलाहल में
जब तेरा चेहरा आए
मैं चुपके से दिल में सोचूँ
तनहाई ना खिंच जाए।

तेरी आँखें ख़ुशकिस्मत सी
जब चाहें तब घिर आएँ
मेरा दिल आवारा पंछी
छोड़ गया तो ना आए।

एक बार जो उठा वहाँ से
ना जाने अब कहाँ फिरे
भूल गया दिल उधर के रस्ते
तू क्यों फिर इस तरफ मिले।

मैं ना जानूँ उस मंज़िल को
जिसको राहें भूल गईं
फिर क्यों उठता है तू अक्सर
ढूंढे उसको कहाँ गई।

वो न रहा, ना होगा फिर अब
जिसको माँगे इन हाथों में
कह दे इन दोनों आँखों को
पलकें वो अब नहीं रहीं।

तेरे सहारे सभी किनारे
हाथ पसारे उसे पुकारे
पर तू ना जाने पागल रे
वो ना आए भूले-हारे।

छूटे सब जो उसके अपने
रूठे कब वो जाने सारे
मैं भी ना खोजूँ अब उसको
वो मुझको भी भूल चला रे।

ना आएगा तेरा था जो
ना आएगा इस रस्ते को
भूल गया वो भूल जा तू भी
इस जंगल को, उस कस्बे को।

तू भी जा अब मुड़ जा वापस
जा तू भी ना आना वापस
तू भी अब जा यहाँ, इधर से
जैसे वो चल दिया इधर से।

मन के भीतर कोलाहल में
भीड़-भाड़ रहने दे थोड़ी
अपने उसको पाने वापस
मत आना इस, उस, जिस पल में।