Tuesday, September 27, 2011

रुत

रुत को शादी करने का बड़ा शौक था। दसवीं पास कर लिया था और अब शादी का सपना सवार हो गया था। रुत उन लड़कियों में से थी जिसे गुड़िया खेलना और घर-घर खेलना सबसे अधिक भाता था। घर-घर खेलने में मानो वो अपनी खुद की दुनिया बसती देखती थी। बाकी के दोनों भाई-बहन पढ़े-लिखे, अच्छी-खासी उम्र के होने के बाद शादी करके खुश। लेकिन रुत को पढ़ाई-लिखाई बेकार की चीज़ें लगतीं। बरतन की सफाई में जो सुख है, घिस-घिसकर उसे आईना बनाने में जो मज़ा है वह भला भौतिकी की मशीनों में कहाँ?
सुबह उठते ही वह झाड़ू-पोंछा, बरतन, घर सजाने, खाना बनाने और इन सबके बीच अपनी शादी के सपने देखने में मशगूल हो जाती। उसे कुछ नहीं चाहिए – एक प्यारा सा पति, एक अपना सा घर – जिसे वह अपने हिसाब से सजाती-सँवारती रहे। यहाँ तो वह अपनी पसन्द का कुछ कर ही नहीं सकती – सबके अपने-अपने कमरे हैं – सबका अपना-अपना हिसाब। खुद का भी एक अकेला कमरा होता तो कोई बात होती, वह भी माँ और दादी के साथ बाँटना पड़ता है। और अपने घर के ख़्वाब में खो जाती रुत।
बड़े भाई ने बहुत समझाया। पढ़ाई पूरी कर ले रुत, शादी तो होनी ही है। लेकिन ना। पढ़ाई में रुत का बिल्कुल मन नहीं लगता। क्यों करे वह पढ़ाई जब उसे शादी ही करनी है! तो रुत दसवीं पास ही रह गई और उसकी माँ ने उसके लिए कोई लायक लड़का ढूँढना शुरु कर दिया। और इस बात पर बड़े भइया ख़फ़ा हो गए। माँ-रुत एक तरफ और भइया एक तरफ। दीदी की तो पहले ही शादी हो चुकी थी। लेकिन रुत उस शादी से खुश नहीं थी – ऐसी क्या शादी जिसमें दोनों जन दिन भर नौकरी ही करते रहो। ख़ैर, तो भइया ख़फ़ा होकर चले गए अपने शहर हैदराबाद और माँ फिर से अपने कर्तव्य की जल्दी से जल्दी पूर्ति में लग गई।
रिश्ता आया। बुआ के यहाँ से। लड़का अकेला था। अकेला मतलब न माता-पिता, न भाई-बहन। हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा था जब भूकम्प में घर के सभी सदस्य मारे गए थे।
बुआ ने बताया कि लड़का अच्छा है। हालांकि उस हादसे के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और अभी किसी स्टील की कम्पनी में नौकरी करता है। माँ सुनते ही तैयार। बुआ पर उन्हें पूरा भरोसा था। हो भी क्यों न, बहू भी तो वही ढूँढ कर लाईं थीं।
और जब रुत को ये बात पता चली तो उसकी खुशी की सीमाएँ न रहीं, कल्पनाएँ शुरु हो गईं!
शादी, घर और बच्चे – यही उसकी दुनिया थी। जैसे-जैसे शादी की तारीख़ नज़दीक आती गई, रुत की पलकें सपनों से भारी होती गईं। तैयारियाँ अपने परवान पर थीं, इसी बीच बड़े भइया को एक गुमनाम पत्र आया। पत्र लिखने वाले ने अपनी पहचान छुपाते हुए लिखा था कि लड़का कुछ बुरी आदतों का शिकार है। कैसी बुरी आदतें? यह नहीं बताया गया था। भइया गाँव आए। बुआ को बुलावा भेजा। बुआ ने समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, कुछ लोग हैं जो लड़के से जलते हैं और इतनी अच्छी लड़की से उसका रिश्ता होते देख घटिया हरकतों पर उतर आए हैं। माँ ने भी हाँ में हाँ मिलाया। पर भइया का दिल नहीं मान रहा था। उन्होंने माँ को कहा कि अभी भी वक़्त है, एक बार जाकर लड़के से मिल लो। पर माँ ठहरी बुआ पर अंधविश्वास रखने वाली। बुआ आख़िर हमें खराब लड़का थोड़े ही दिलवाएँगी? क्या बहू को शादी से पहले हमने देखा था, नहीं न? फिर इस बार ऐसा क्यों करें? और अब शादी की इतनी तैयारियाँ हो गई हैं, अब क्या होगा मिलजुलकर?
बुआ भी नाराज़ हो गईं – मुझपर भरोसा नहीं है। भइया ने रुत को समझाया – रुत ज़िंदगी खराब हो जाएगी तेरी। इतनी छोटी सी तो है तू, क्या जल्दी पड़ी है शादी करने की? एक बार सही से खोज-खबर तो करवा ले। पर रुत की आँखों में आँसू आ गए। भइया तो शुरु से ही नहीं चाहते कि मैं शादी करूँ। खुद तो मेरे लिए लड़का ढूँढा नहीं, एक बुआ लेकर आई हैं तो उसमें भी खराबियाँ दिख रही हैं। थक-हारकर भइया वापस हैदराबाद चले गए। शादी हुई। धूमधाम से। सभी बहुत खुश। लड़का खूब सुन्दर है, हाँ थोड़ा दुबला है, पर कितना गोरा है देखो तो! फिर नौकरीशुदा, कलकत्ते में रखेगा रुत को! राज करेगी रुत! और रुत तो अपने दूल्हे को देख इतनी खुश कि विदाई के समय का रोना भी भूल गई। माँ हँस पड़ी – “अरे, शकुन के नाम पर तो सबके सामने रो दे रुत”
आज तीन साल बीत चुके हैं। उस रोज़ शकुन के नाम पर भी न रो पाने वाली रुत आज भी खुद को घर के किसी न किसी काम में व्यस्त रखकर किसी के सामने रोने नहीं देती। लेकिन घर वो नहीं जहाँ वह शादी कर गई थी, घर वो जहाँ से उसकी शादी हुई थी। शादी के तीन-चार महीने तक तो सबकुछ बहुत अच्छा रहा। बिल्कुल रुत की कल्पना जैसा, जैसा वह चाहती थी। उसकी गुड़ियों के घर जैसा ही उसका अपना एक छोटा-सा, सुन्दर-सा घर हुआ जिसको वह दिन-रात सजाती रहती। एक प्यारा-सा पति मिला जिसके लिए ख़ुद को सजाती रहती। पति के दोस्त, रिश्तेदार हुए जो यदा-कदा मिलने पर भी पति के नाम पर उसे छेड़ने का कोई मौका नहीं गँवाते और वह अपने गुलाबी गालों को आँचल से ढकती फिरती कि कोई उन्हें शर्म से लाल होते न देख ले।
कितनी अच्छी थी वह दुनिया। पति का नाम था रोशन जो अक्सर अपना सारा समय उसी के साथ बिताता। लेकिन कभी गायब होता तो दो-तीन दिनों के लिए गायब हो जाता। रुत अपने घर से बहुत कम बाहर निकलती थी। कुछेक रिश्तेदार उसके आसपास रहते थे पर अपने घर के कामों से ही फुरसत नहीं मिलती थी, क्या किसी और के यहाँ जाए। रुत पूरी तरह रमी थी अपनी गृहस्थी में, किसी की कोई चिंता नहीं, कोई परवाह नहीं। लेकिन जब रोशन के गायब होने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी और वो हफ्तों-हफ्तों के लिए गायब होने लगा तो रुत को चिंता हुई।
‘नौकरी ही ऐसी है’ – रोशन ने कहा था। लेकिन रुत का दिल घबराता। कहीं किसी और लड़की के साथ..........और रुत का दिल डूबने लगता। एक दिन बुआ आईं घर पर। बातचीत के दौरान रुत ने हिचकते-हिचकते उन्हें रोशन के हर दूसरे-तीसरे दिन गायब होने की बात बताई और उसकी ज़िन्दगी में किसी दूसरी लड़की के होने की अपनी आशंका भी सामने रखी। बुआ ने गंभीर होकर सुना और रुत को दिमाग से किसी और लड़की का वहम निकाल देने को कहते हुए आश्वासन दिया कि वे इसका पता ज़रूर लगाएँगी।
लेकिन न तो रोशन का गायब होना रुका और न ही बुआ का फिर कोई सन्देश आया। आजकल रोशन चिड़चिड़ा भी होने लगा। रात में भी कब आता पता नहीं चलता। अपने-आप में कुछ बड़बड़ाता रहता। रुत पूछती तो उसपर चिल्ला उठता। रुत सहम उठती।
उसकी दुनिया तो ये न थी। उसकी तो वही दुनिया थी जो उसने कभी अपनी गुड़ियों को दी थी, जो उसने कभी घर-घर में खेला था। वहाँ प्यार था, खुशी थी, अपनापन था, सुरक्षा थी। पर यहाँ तो ये सब कुछ धीरे-धीरे कर खत्म हो रहा था। और वह इसमें कुछ नहीं कर पा रही थी।
अभी तक उसने ये बातें अपने घर वालों से संकोचवश छिपा रखी थी। उसे डर था कि भइया पता चलने पर डाँटेंगे और कोई उपाय ढूँढने की बजाय कहेंगे ‘मैंने तो पहले ही मना किया था। अब सम्हालो खुद ही’। क्या करूँ क्या न करूँ इसी उधेड़बुन में एक शाम वह बाहर की सीढ़ियों पर बैठी थी कि उसने किसी को अपने घर की ओर आते देखा। वह कौन था, रुत नहीं जानती लेकिन जिसे वह अपने कन्धों का सहारा दिए ला रहा था वह रोशन था। रोशन ऐसी हालत में? वह लगभग घिसट रहा था। आँखें करीब-करीब बन्द थीं और बदन में मानो जान ही नहीं थी।
रुत घबरा गई। फटाफट दरवाज़ा खोला और रोशन को उस व्यक्ति की मदद से बिस्तर पर लिटाया। वह व्यक्ति उसके मुहल्ले में रहता था और ‘क्या हुआ’ पूछने पर उसका जो जवाब आया, उसे सुनकर रुत के पाँवों तले की ज़मीन खिसक गई।
‘लड़का बुरी आदतों का शिकार है’ – उसे शादी से पहले मिली उस गुमनाम चिट्ठी की याद आ गई।
मेरा रोशन चरस पीता है – उस रात वह बहुत रोई। सुबह उठी तो रोशन गायब था। बहुत हिम्मत करके वह उस बड़े नाले के पास गई जहाँ से कल शाम रोशन को मुहल्ले का वह आदमी उठाकर लाया था। बड़ा सा नाला, बड़े-बड़े पेड़ों से घिरा, काले पानी, आसपास लगे कई छोटे-छोटे पौधों और गन्दगी में मुँह मारते सुअरों से भरा, सुनसान। उसने एक-दो बार रोशन को आवाज़ दी पर कोई जवाब न सुनकर वापस आ गई। उस रात जब रोशन आया तो उससे उसकी पहली लड़ाई हुई जो फिर हर दिन की लड़ाई बन गई। हालांकि उसके बाद से रोशन हफ्तों गायब नहीं रहता बल्कि हर दूसरे-तीसरे दिन उसे कोई न कोई सहारा देकर नाले से घर तक पहुँचा रहा होता। रूनी अन्दर ही अन्दर टूटती रहती। उसके सपने के घरौंदे पर चरस के पौधे उग आए थे। आखिर उसने माँ को बताया। माँ घर आई। रोशन से बात की, लेकिन बातचीत में रोशन बहुत कम शब्द बोलता। हाँ, पर जब तक माँ रही रोशन ठीकठाक रहा। यह ज़रूर चाहता रहा कि माँ जल्दी चली जाए। और माँ जल्दी चली भी गई। यह उम्मीद कर कि अब रोशन सुधर गया लगता है। लेकिन ऐसा नहीं था।
रुत ने माँ को दुबारा बुलाना चाहा तो वह हिंसक हो उठा। चूल्हे की लकड़ी के निशान रुत के बदन पर करीब दस-पन्द्रह दिनों तक रहे। रुत रोती रही – हफ्तों। और जब आँसुओं का सैलाब थमा तो सामने उसने बड़े भइया को खड़ा पाया।
बड़े भइया को बहुत बाद में इस बात की खबर मिली और खबर मिलते ही वो रुत के यहाँ आ पहुँचे। तब आदतन रोशन घर पर नहीं था। रुत से बात कर उन्होंने उसके मोहल्ले वालों से बातचीत की। पता चला कि रोशन को चरस-गाँजे की आदत पहले से थी। इसी चक्कर में उसकी पढ़ाई छूट गई और नौकरी तो उसने कभी की ही नहीं। पुरखों की कमाई थी ही उड़ाने को। कुछ लोगों ने बताया, ‘पहले तो कहीं और जाता था, फिर अभी कुछ दिनों पहले से यहीं नाले के पास उसने अपना खुद का इंतज़ाम कर लिया। इस वज़ह से पहले वाली पार्टी से उसकी लड़ाई भी होती रहती थी। अब वहीं पड़ा रहता है दिन भर। हमें दिखता है तो हम उठा लाते हैं यहाँ।’
रुत को पता था बड़े भइया नाराज़ हैं। घरवालों से, बुआ से, रुत से, और ख़ुद से भी।
रोशन से मिलने का इंतज़ार किए बिना उन्होंने रुत को सामान बाँधने को कहा फिर बड़े नाले के पास जाकर देखा – रोशन सचमुच वहीं पड़ा था – भइया को देखकर उसने हिलने की कोशिश की पर हिल न सका। दो घंटे बाद की ट्रेन से रुत मायके आ गई।


आज भी रुत मायके में ही है। एक साल भी न चल सकी अपनी गृहस्थी को याद कर सपनों से भारी होने वाली पलकें अब आँसुओं से भारी हो चलती हैं। रुत उन्हें रोकने की कोशिश करती है पर अकेले में वे मानते नहीं – रोशन की तरह। बड़े भइया ने बहुत कोशिश की रुत को किसी इंस्टीट्यूट में दाखिला दिलाने की, पर रुत को अभी भी पढ़ाई पसन्द नहीं। वह अपनी माँ के घर को सजाने में व्यस्त है। पता नहीं व्यस्त है या ख़ुद को व्यस्त रखे हुए है। बहुत कम बोलती है। बोलती तभी है जब बड़े भइया दूसरी शादी की बात करते हैं। रोशन कभी दुबारा मुड़कर आया नहीं और इस वज़ह से उससे तलाक संभव नहीं हो पाया। रुत बोलती है कि जब तक एक से तलाक मिला नहीं तब तक दूसरे से शादी कैसे करूँ। बड़े भइया जानते हैं कि रुत अब न किसी से तलाक चाहती है और न किसी से शादी। वो उसकी आँखों में झाँकते हैं जिसमें उसने कभी अपने लिए गुड़िया जैसी शादी के सपने सजाए थे और चुपचाप उठ जाते हैं।

Monday, September 26, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 25 और 26)

Scene 25


तुरही बजती है। किले का मुख्य दरवाज़ा खुलता है। महाराज का रथ बाहर निकलता है, उनके रथ के बगल में चिंटू और काका का एक रथ निकलता है।
राजा (बाहर खड़े पहरेदारों से): “तुम दोनों इनके रथ के अगल-बगल इनकी रक्षा करने हेतु चलो” ये दोनों वही पहरेदार हैं जिनसे शुरु में चिंटू और काका की मुलाकत हुई थी। महाराज के कहने के अनुसार पहला पहरेदार चिंटू और दूसरा पहरेदार काका की साइड में जाकर खड़ा हो जाता है। चिंटू पहले पहरेदार को देखकर मुस्कुराता है।
चिंटू (पहले पहरेदार से): “क्यों भाईसाहब, भाले को अच्छी तरह से पकड़ा है न?”
पहरेदार चिंटू को देखता है और चौंक जाता है। पहरेदार: “तुम????”
चिंटू: “पहचान लिया?” – कहकर सामने देखने लग जाता है।


Scene 26
बढ़ई का घर छावनी बन गया है। बहुत सारे सैनिक खड़े हैं। झोंपड़ी के सामने ज़मीन पर राजा खड़े हैं। चिंटू और काका महाराज के दाएँ-बाएँ खड़े पहरेदारों के कन्धों पर बैठे हैं। राजा के सामने बढ़ई झुककर खड़ा थर-थर काँप रहा है।
बढ़ई (राजा के चरणों में गिरकर): “नहीं नहीं महाराज, मैं अभी-अभी तुरंत जाकर खूँटे को चीरता हूँ, आप सभी के सामने हे चीर देता हूँ......चलिए”
बढ़ई औजारों वाला झोला उठाता है। राजा, चिंटू और काका रथ पर सवार होते हैं। बढ़ई राजा के रथ के आगे-आगे चल रहा है। पीछे पूरी सेना चल रही है”
वो जगह आती है जहाँ खूँटा है। थोड़ी दूर पर रथ रुक जाता है। राजा, चिंटू और काका बढ़ई के साथ रथ से उतरकर खूँटे तक पैदल आते हैं। बढ़ई खूँटे के पास बैठता है। झोले में से आरी निकालता है। बढ़ई अभी भी काँप रहा है। खूँटा आँखें खोले सब देख रहा है और डर भी रहा है। मगर बोलता कुछ भी नहीं।
बढ़ई आरी को जैसे ही खूँटे पर रखता है वैसे ही खूँटा बोल उठता है – “हमको चीरो-उरो नहीं कोई, हम दाल निकालते हैं अब हीं”
बढ़ई: “चो~~~~~~प...आज तेरी वज़ह से महाराज के सामने मेरी पेशी हुई है, आज तो मैं तुझे छोड़ूंगा नहीं....चीरकर रख दूँगा” – कहकर आरी चलाता है।
खूँटा (गिड़गिड़ाता है): “नहीं-नहीं महाराज, मुझे बचा लीजिए...बचा लीजिए महाराज”
राजा: “रहने दो इसे” बढ़ई आरी हटा लेता है और पीछे खिसककर खड़ा हो जाता है।
राजा (खूँटे से): “दाल निकालो”
खूँटा: “जी” खूँटा आँखें बन्द करता है। अजीब-अजीब सी आवाज़ें निकालता है। कुछ देर के बाद ही उसमें से अचानक एक दाल का दाना निकलता है और छिटककर दूर जा गिरता है। चिंटू जल्दी से जाकर उसे उठा लेता है और बढ़ई के कन्धे पर जाकर बैठ जाता है। पूरी सेना में, महाराज सहित, खुशी की लहर दौड़ जाती है। सभी एक बार ‘महाराज की जय’ के नारे लगाते हैं। फिर चिंटू जोर से बोलता है।
चिंटू (जोर से): “हिप-हिप” सभी एक साथ: “हुर्रे~~~~~~”
तीन बार बोलते हैं। फिर राजा आगे बढ़कर चिंटू के पास आते हैं, उसकी पीठ थपथपाते हैं। फिर अपने सिपाहियों से कहते हैं।
राजा (सिपाहियों से): “चिंटू और और~~~~” – उन्हें काका का नाम नहीं पता इसलिए वे काका की ओर जिज्ञासु आँखों से देखते हैं। काका समझ जाता है और झुककर अपना नाम बताता है।
काका: “काका”
राजा: “हाँ, चिंटू और काका को परदेस ले जाने के लिए रथ का प्रबन्ध किया जाए और रथ को उपहारों से भर दिया जाए” चिंटू खुश हो जाता है पर काका बोल उठता है।
काका: “नहीं महाराज, रथ और उपहार हमें नहीं चाहिए”
चिंटू चौंक जाता है। राजा समेत उनकी पूरी सेना भी हैरान हो जाती है।
राजा (हैरानी से): “मगर क्यों?”
चिंटू (काका से): “हाँ क्यों? महाराज इतने शौक से दे रहे हैं तो हमें उनके उपहारों का सम्मान करना चाहिए। हम महाराज के सामने ऐसी हेकड़ी कैसे दिखा सकते हैं कि इतने प्यार से दिए गए उनके रथ व उपहारों को ठुकरा दें!” काका (राजा को देखकर, हाथ जोड़कर): “नहीं महाराज, इसमें हेठी दिखाने या ठुकराने जैसी कोई बात नहीं, हम तो आपके आभारी हैं कि आपने हमपर इतनी दया दिखाई”
राजा: “फिर क्या परेशानी है काका?”
काका: “दरअसल महाराज, मैं अपनी बहन के यहाँ किसी भी तरह के ताम-झाम के साथ नहीं जाना चाहता। मैं किसी की भी नज़रों में अपने और अपनी बहन के लिए ईर्ष्या का भाव पनपते नहीं देखना चाहता।”
राजा (थोड़ा मायूस होकर): “ठीक है काका, जैसा तुम चाहो”
चिंटू (काका से): “पापा, आर यू श्योर?”
काका ‘हाँ’ की मुद्रा में सर हिलाता है।
चिंटू: “पर डैडी, एक दो अशर्फी उठाने में क्या हर्ज़ है?”
काका: “नहीं चिंटू”
चिंटू (कन्धे उचकाते हुए): “ओ.के. ऐज़ यू विश”
काका: “तो महाराज, हमें विदा दें”
चिंटू: “जी महाराज, और महारानी को मेरा नमस्कार और धन्यवाद दोनों दे दीजिएगा! कहिएगा साँप से डरने की अब कोई ज़रूरत नहीं”
राजा: “ठीक है”
चिंटू और काका उड़ जाते हैं। सभी यहाँ से हाथ हिलाकर उन्हें ‘टाटा’ कहते हैं। बाय कहते हुए राजा कहता है।
राजा (हाथ हिलाते हुए): “कितना प्यारा तोता था! रानी को भी धन्यवाद कह गया (फिर अचानक उनका चिंटू के कहे हुए शब्दों पर ध्यान जाता है) पर ये साँप से डरने को क्यों मना कर गया?”
तब तक काका और चिंटू थोड़ी दूर चले जा चुके हैं। राजा यहीं से जोर से पूछ कर कहता है।
राजा (जोर से): “अरे चिंटू रुको! तुम्हारा धन्यवाद तो मैं दे दूँगा पर ये साँप बीच में कहाँ से आ गया”
चिंटू कुछ नहीं कहता सिर्फ कनखियों से पीछे मुडकर राजा को देखता है, फिर काका को देखता है और फिर स्क्रीन (कैमरे में) की ओर देखकर धीरे से मुस्कुरा देता है। बैकग्राउंड से चिंटू की आवाज़ आती है – “क्या लेकर परदेस जाएँ” – दोनों परदेस को उड़ जाते हैं।



समाप्त

Saturday, September 24, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 23 और 24)

Scene 23


रनिवास का दृश्य। पलंग पर रानी डरी-सहमी एक कोने में खड़ी है। उसकी सभी सेविकाएँ किसी न किसी चीज़ (ड्रेसिंग टेबल, सोफा वगैरह) पर जा चढ़ी हैं। रानी के पास वही साँप, जिसे चिंटू ढूँढ रहा था, फन फैलाए खड़ा है और बीच-बीच में फुफकार रहा है।
रानी (डरते-डरते): “म-मुझसे क्या चाहते हो तुम? क्यों मेरे सामने इस तरह से फन फैलाए फुफकार रहे हो? मुझे डर लग रहा है, अरे उतरो पलंग से...क्या हार्ट अटैक करवाओगे मेरा?”
साँप: “ना रानी हार्ट अटैक नहीं, तुम्हें सिर्फ याद दिलाना चाहता हूँ”
रानी: “क्या?”
साँप: “याद है रानी एक तोता तुम्हारे पास एक फरियाद लेकर आया था”
रानी: “हाँ-हाँ, याद है। वो नामुराद....”
साँप (बीच में बात काटते हुए): “उस नामुराद की बात तुमने उस वक्त नहीं मानी थी”
रानी: “अरे, वो मुझे राजा को छोड़ने को कह रहा था, नामुराद!”
साँप (कुटिल मुस्कान मुस्कते हुए): “अगर मैं तुमसे कहूँ कि मैं भी तुम्हें वही करने कह रहा हूँ तो?”
रानी डर से उसे देखती है। साँप उसे देखकर थोड़ा और मुस्कुराता है।

Scene 24
मेज पर एक कागज रखा जाता है। मेज राजा के सामने रखी है। राजा राजदरबार में बैठे हैं। मंत्रीगण भी साथ में हैं। राजा (कागज़ देखकर): “ये क्या है?”
राजा के सामने एक सिपाही खड़ा है। उसी ने मेज पर वह कागज़ रखा है।
सिपाही: “जी, डाइवोर्स पेपर्स”
राजा: “क्या?” – सिपाही को देखकर – “मगर हमने तुमसे विवाह कब किया?”
सिपाही: “जी, मैंने नहीं, ये तो महारानी ने भिजवाया है आपके पास”
राजा (रिलैक्स्ड होते हुए): “ओहो, अच्छा अच्छा (फिर अचानक चौंकते हुए) क्या कहा? रानी ने भिजवाया?”
सिपाही: “जी”
राजा (जैसे उसे विश्वास नहीं हो रहा हो): “क्या सचमुच??”
सिपाही: “जी महाराज”
राजा की आँखों में आँसू आ जाते हैं। वो प्रधानमंत्री की ओर कागज़ दिखाकर उनसे कहते हैं।
राजा (प्रधानमंत्री की ओर कागज़ दिखाकर): “मंत्रा जी देख रहे हैं आप....आप देख रहे हैं न! ये डिवोर्स पेपर रानी ने हमें भेजा है...रानी ने खुद हमें भेजा है”
मंत्री (दुखी होते हुए): “जी महाराज, देख रहा हूँ इस मनहूस कागज़ को”
राजा (आश्चर्य से): “मनहूस कागज़!!”
मंत्री (दुखी होकर): “जी”
राजा: “लॉटरी टिकट कहिए इसे मंत्री जी! दस करोड़ का लॉटरी टिकट!”
मंत्री (आश्चर्य से): “जी!!!!”
तबतक काका और चिंटू दरबार में आते हैं।
राजा (तलाक के कागज़ों को अपनी आँखों से लगाते हुए): “आप नहीं जानते मंत्री जी, इन पेपर्स को देखने के लिए मेरी आँखें तरस गई थीं। (भावुक होकर) मैं-मैं तो इस दिन की कल्पना भी नहीं कर सकता था! सच है, सच है दुनिया में देर है अन्धेर नहीं! (फिर सम्हलकर) बताओ, बताओ मुझे कहाँ हस्ताक्षर करना है। लाओ, कोई कलम लाओ.....सिपाही कलम लेकर आओ”
चिंटू (काका से): “यहाँ तो उल्टा ही मामला हो गया”
काका: “कुछ करो तुरंत” चिंटू जल्दी से महाराज के पास जाता है।
चिंटू: “ठहरिए महाराज!”
राजा (चौंककर): “कौन? कौन है?”
चिंटू: “सरकार, मुझ नाचीज़ को चिंटू कहते हैं। आप इस पेपर पर हस्ताक्षर न करें, महाराज”
राजा: “मगर क्यों?”
चिंटू राजा से पेपर लेने की कोशिश करता है मगर राजा कागज़ को जोर से अपने सीने से लगा लेता है। चिंटू ज़रा जोर लगाकर राजा से कागज़ छीन लेता है।
चिंटू: “महाराज, आप रानी को क्यों छोड़ना चाहते हैं? वो इतनी अच्छी हैं, माशाअल्लाह इतनी खूबसूरत हैं! इतनी सह्रदया, इतनी दयालु हैं!”
राजा: “दूर के ढोल सुहावने चिंटू, पास रहे वो ही जाने” – कहकर अपने दोनों हाथों से चेहरा ढककर राजा फूट-फूटकर रोने लगता है।
चिंटू: “नहीं-नहीं महाराज! रोइए मत। आप जैसे शूरवीर, महावीर, कर्मवीर, धर्मवीर, युद्धवीर (अटक जाता है) युद्धवीर (कुछ और शब्दों को याद करता है) हाँ, शुद्धवीर (याद कर-करके बोलता है) कालवीर, भक्तिवीर, शक्तिवीर और भी जाने कौन-कौन से वीर को ये रोना-धोना शोभा नहीं देता”
राजा आँखें फाड़-फाड़कर चिंटू को देखता है। फिर अपने आँसू पोंछता है।
राजा: “हाँ, तुम सही कह रहे हो”
चिंटू: “और फिर महाराज, आपको अपनी रानी को डिवोर्स देने पर अपनी आधी सम्पत्ति देनी पड़ जाएगी”
राजा (सोचते हुए): “हूँ~~~”
चिंटू: “सोचिए महाराज ज़रा सोचिए, आप अपनी आधी जायदाद को यूँ ही कैसे जाने दे सकते हैं! आप ऐसा नहीं कर सकते महाराज!”
राजा: “हाँ, मैं ऐसा नहीं कर सकता”
चिंटू: “आप नहीं कर सकते”
राजा: “मै नहीं कर सकता”
ये पंक्तियाँ इन दोनों द्वारा तीन बार ऐसे ही दुहराई जाती हैं फिर राजा को अचानक जैसे होश आता है।
राजा (चिंटू से): “मगर मैं क्या नहीं कर सकता? दुनिया में ऐसी कौन सी चीज है जो मैं नहीं कर सकता!”
चिंटू: “आप डिवोर्स नहीं दे सकते”
राजा: “मगर क्यों?”
चिंटू (अपने सर पर हाथ मारते हुए): “ओफ्फ महाराज! क्योंकि आपको अपना आधा राज्य रानी को देना पड़ जाएगा और अपने पुरखों की मेहनत से बनाए गए इस राज्य को आप यूँ हीं रानी को नहीं सौंप सकते”
राजा: “हाँ, तुम सही कह रहे हो”
चिंटू: “मगर रानी तो नहीं मानेंगी ऐसे”
राजा: “तो?”
चिंटू: “तो ये राजन् कि आप ये पता लगवाएँ कि रानी के इस डिवोर्स पेपर भेजने के पीछे कारण क्या है?”
राजा (सहमति में): “हाँ-हाँ (सिपाही को बुलाता है) सिपाही”
सिपाही: “जी महाराज”
राजा: “महारानी की मांग क्या है?”
सिपाही: “जी वो चाहती हैं कि आप बढ़ई को जाकर डाँटें, जिससे वह बढ़ई खूँटे को चीर कर उसमें से दाल निकाले जिसे लेकर ये दोनों तोते परदेस जा सकें”
राजा (गुस्से से चिंटू को देखकर): “ओहो तो ये तुम दोनों की करतूत है!”
चिंटू: “नही महाराज! हम तो रानी के पास गए भी नहीं। उन्हें ज़रूर उनकी सखी चंद्रलता ने ये बातें बताई होंगी। जब मेरे पिताजी दाल के दाने के लिए परेशान हो रहे थे तब वे उस पेड़ के नीचे हीं थीं। उन्होंने ज़रूर हम दोनों की बातें सुनी होंगी और रानी को जाकर बताया होगा। महारानी से हमारा दुख देखा नहीं गया होगा और उन्होंने हमारे दुख को दूर करने का ये तरीका अपना लिया होगा”
राजा ‘हूँ’ कहकर सोचने की मुद्रा बनाता है।
चिंटू (दुखी होने की ऐक्टिंग करते हुए)कहता है: “महाराज हमने आपको इतनी अच्छी सलाह दी और आप हमारे ही ऊपर शक कर रहे हैं”
राजा: “नहीं-नहीं ऐसा नहीं है (सिपाहियों से) रानी की मांग पूरी होगी और इन दोनों भले पक्षियों का दुख दूर किया जाएगा। तत्काल सेना तैयार की जाए। रथ मंगवाएँ जाएँ”
सिपाही (सर झुकाकर): “जी” – कहकर जाने लगता है।
राजा: “और सुनो” सिपाही रुक जाता है और महाराज की ओर आज्ञा लेने के लिए उनकी ओर मुड़कर खड़ा हो जाता है। राजा: “इन दोनों तोतों के लिए भी रथ तैयार करवाएँ जाएँ, इसने हमें आज यह अहसास करवाया कि हमारी रानी कितनी दयालु हैं और इनकी वज़ह से आज मैं अपने आधे राज्य को खोने से भी बच गया। रथ तैयार करवाएँ जाएँ”
सिपाही: “जी महाराज” - कहकर चला जाता है।
चिंटू काका को मुस्कुराकर देखता है। काका थोड़ा घबराए हुए चेहरे से उसे देखता है। चिंटू उसे इशारे से चिंता न करने की सलाह देता है।



क्रमश:

Saturday, September 17, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 21 और 22)

Scene 21


पूरे नगर में आग फैलती हुई आगे बढ़ रही है। मकानों, प्राणियों और पेड़ों को छोड़कर पूरी ज़मीन पर आग फैलती जा रही है। सभी लोग डरकर इधर-उधर भाग रहे हैं। हाहाकार मचा हुआ है। धुएँ और आग के सिवा कुछ भी ठीक से नहीं दिख रहा। आग चारों ओर यही कहते हुए तेज़ी से आगे बढ़ रही है – “कहाँ है लाठी? पहलवान की लाठी कहाँ है? आज हम उसे जलाकर राख कर देंगे, कहाँ है??”
चिंटू और काका भी साथ-साथ ऊपर उड़ रहे हैं। अचानक चिंटू की नज़र लाठी पर पड़ती है। लाठी भी बाकी के भागते हुए लोगों के साथ भागा जा रहा है। चिंटू लाठी की ओर उंगली दिखाता है और आग से कहता है।
चिंटू: “वो रहा”
आग उधर देखता है जिधर चिंटू ने बताया था और लाठी को देख लेता है। आग अपनी एक लपट को आगे बढ़ाकर लाठी को घेर लेता है।
लाठी (गिड़गिड़ाते हुए और गरमी से बचने के लिए उसी घेरे में इधर-उधर भागते हुए, इस बीच उसकी मूँछ नीचे की ओर लटक जाती है): “नहीं-नहीं मुझे मत जलाओ। मैं जीते-जी नहीं जलना चाहता, अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है! इसे हटाओ, हटाओ वरना मैं जल जाऊँगा, मेरी सूरत खराब हो जाएगी, मेरी मूँछे जल जाएँगी। अरे, अभी तो मैंने दुनिया देखनी शुरु ही की है! क्यों अभी से मेरी चिता तैयार कर रहे हो?”
चिंटू (लाठी से): “दुनिया देखनी शुरु की है तो इस दुनिया में साँप को भी कहीं न कहीं देखा ही होगा?”
लाठी (चिंटू की ओर देखता है): “अरे तुम? तुम्हें तो मैंने कहीं देखा है”
चिंटू: “हाँ, मैं जानता हूँ। पहले ये बताओ साँप को देखा है?”
लाठी: “हाँ-हाँ देखा है”
चिंटू: “तो तुम्हें साँप को ज़रा परलोक दिखाना है”
लाठी: “अरे, किसी ने पहले भी ये बात मुझसे कही है”
चिंटू: “वो छोड़ो, पहले ये बताओ तैयार हो?”
लाठी: “मगर क्यों, उसे मैं परलोक क्यों दिखाऊँ?”
चिंटू: “चिता देखी है?”
लाठी: “हाँ”
चिंटू: “उसमें खुद को देखना है?”
लाठी: “न-न-नहीं”
चिंटू: “तो साँप को परलोक दिखाना होगा”
लाठी: “ठ-ठ-ठीक है पर पहले इसे (आग को छूता है) आ~~~~~ई~~~~~ (चिल्लाता है) इसे हटाओ”
आग धीरे-धीरे हटती है। लाठी जल्दी से उसके घेरे से बाहर निकलता है। अपनी मूछें छूता है जो नीचे की ओर हो गई हैं उसे वापस ऊपर उठाता है और आग को धीरे-धीरे वापस जाते देखता रहता है।



Scene 22


लाठी (गुस्से से): “कहाँ है साँप? आज मैं उसकी ताकत मापने आया हूँ, कहाँ है बुलाओ उसे”
मदारी की झोंपड़ी। सामने कई साँप लेटे पड़े हुए हैं, कई डिबियाँ खुली हुई हैं। लाठी की ललकार सुन वे सभी जल्दी-जल्दी आनन-फानन में खुली डिबियों में घुस जाते हैं और ऊपर से ढक्कन लगाकर उसमें से झाँकते हैं।
लाठी, चिंटू और काका वहाँ आते हैं। चिंटू और काका झोंपड़ी की खुली खिड़की पर बैठते हैं। चिंटू काका से कहता है।
चिंटू (काका से): “आज तो लाठी और साँप की बढ़िया सी लड़ाई देखने को मिलेगी बापू”
काका (डाँटते हुए): “चुप कर”
लाठी - “कहाँ है, कहाँ है साँप” कहता हुआ इधर-उधर उस साँप को ढूँढ रहा है। फिर वह एक डिबिया के पास आता है, उसके नज़दीक झुकता है। उसमें बैठी साँपिन, जिसने एक बड़ी सी लाल बिन्दी लगा रखी है, ‘उई माँ’ कहकर उद डिबिया में बैठे बाकी के साँपों के बीच दुबक जाती है। लाठी जब ये देखता है कि साँप उससे डर रहे हैं तो उसकी हिम्मत बढ़ती है और वह उस डिबिया में मुँह घुसा लेता है।
लाठी (डिबिया में मुँह घुसाकर दहाड़ता है): “कहाँ है साँप?”
किसी और डिबिया से एक साँप की हकलाती हुई, धीमी आवाज़ आती है: “अ-आप नन्दू साँप को ढ-ढूँढ रहे हैं क-क्या?”
लाठी (उसी डिबिया में मुँह घुसाए-घुसाए): “नन्दू हो या चन्दू, हमें इससे कोई मतलब नहीं। हमें बस साँप चाहिए, वो साँप हमें दे दो, दे दो हमें वो साँप”
वही साँप (जल्दी से): “जी सर वो तो रानी को डसने गया है”
चिंटू (आश्चर्य से): “क्या??”
वही साँप: “जी, उसे ये ख़बर हो गई थी कि आप पहलवान जी के इन लाठी महाराज के साथ आ रहे हैं तो...”
चिंटू (खुश होते हुए): “वाह! यहाँ तो ऐसे ही काम हो गया!”

क्रमश:

Thursday, September 15, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 19 और 20)

Scene 19


हाथियों का बड़ा विशाल झुंड निकलता है जिसमें नेता हाथी सबसे आगे चल रहा है, उसके मुरेठे (पगड़ी) पर काका और चिंटू बैठे हैं। चलते-चलते वे समुन्दर के तट पर पहुँचते हैं और समुन्दर में घुसकर खूब धमा-चौकड़ी मचाते हैं। फिर सभी मिलकर समुन्दर का पानी पीना शुरु कर देते हैं। सागर का पानी बड़ी जल्दी-जल्दी घटने लगता है। तभी समुन्दर से बड़ी-बड़ी लहरें उठने शुरु हो जाती हैं और उसमें से आवाज़ आती है।
समुन्दर: “अरे-अरे तुम सब ये क्या कर रहे हो? इस तरह तो मैं सूख जाऊँगा”
चिंटू (जोर से): “वही तो हम कर रहे हैं”
समुन्दर: “मगर क्यों? मैंने ऐसी क्या गलती कर दी?”
चिंटू: “आपने हमारी बात नहीं मानी थी”
समुन्दर: “कौन सी बात?”
चिंटू: “आग को बुझाने की बात”
समुन्दर: “आग? कौन सी आग? कैसी आग? मुझे कुछ याद नहीं आ रहा”
चिंटू: “अभी याद आ जाएगा जब आपमें एक तालाब भर पानी रह जाएगा”
समुन्दर: “अरे रुको-रुको.....अरे रोको कोई इन्हें”
चिंटू: “यहाँ आपकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं सिन्धु महाराज! आपके पास बचने का केवल एक ही तरीका है और आप बखूबी जानते हैं कि वो क्या है”
समुन्दर: “अच्छा-अच्छा, ठीक है। मैं तैयार हूँ-तैयार हूँ...अब तो रोको”
चिंटू: “ठीक है”
चिंटू एक सीटी बजाता है। सभी हाथी एकसाथ चिंटू को देखते हैं।
चिंटू: “मौज-मस्ती खत्म। आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद। अब आप सभी अपने गंतव्य स्थल पर जा सकते हैं” सभी हाथी समुन्दर से निकलकर चले जाते हैं।
समुन्दर: “मैं आग को बुझाने से पहले एकबार यहीं से उनसे बात करना चाहता हूँ”
चिंटू: “ठीक है”
समुन्दर (जोर से, काफी गंभीर-गूँजती हुई आवाज़ में): “अग्नि देव नमस्कार, मैं सिंधु बोल रहा हूँ”
बैकग्राउंड से आग की आवाज़: “नमस्कार सिन्धु महाराज!”
समुन्दर: “मैं आ रहा हूँ आपके पास”
आग: “हमारे पास? मगर कारण?”
समुन्दर: “आपकी इच्छा पूर्ति करने.....आपको बुझाने”
आग: “हमारी इच्छा पूर्ति? हमें बुझाने!!”
समुन्दर: “जी”
आग: “मगर हमारी ऐसी इच्छा कब हुई?”
समुन्दर: “क्यों? आपने संदेसा नहीं भेजा?”
चिंटू आग का जवाब देने से पहले ही बोल पड़ता है।
चिंटू (जोर से): “तो अग्नि देवता, इसका मतलब आप बुझना नहीं चाहते”
आग: “नहीं, हम भला क्यों....?”
चिंटू (बीच में ही): “तो आपको उस तोते की बात मंज़ूर है?”
आग: “कौन से तोते की बात?”
चिंटू: “वो मैं आपको आकर बताता हूँ। पहले वादा कीजिए कि आपके पास जो तोता आ रहा है आप उसकी इच्छा पूरी करेंगे”
आग: “कौन सी इच्छा? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, ये कौन बोल रहा है?”
चिंटू: “वो मैं अभी आकर आपको समझा देता हूँ, आप पहले वादा तो कीजिए कि आप उस तुच्छ छोटे से तोते की इच्छा पूरी करेंगे”
आग (सोचते हुए, थोड़े से कंफ्यूज़्ड): “अ....ठीक है, हम प्रतिज्ञा करते हैं”
चिंटू: “धन्यवाद, मैं आ रहा हूँ (समुन्दर की ओर देखकर) आप अब आराम करें” चिंटू उड़ चलता है। पीछे-पीछे काका भी उड़ चलता है।


Scene 20
आग जल रही है। सामने चिंटू और काका खड़े हैं।
आग (चिंटू को देखकर): “ओहो, तो तुम हो!”


चिंटू: “जी”
आग: “क्या लाठी सचमुच यहाँ नहीं आ सकती? क्या हमें ही उसतक चलकर जाना पड़ेगा? हम जो यहाँ से वहाँ तक फैले हैं....हम जिसकी....” आग अपनी गौरव-गाथा का फिर से बखान करना शुरु करता ही है कि चिंटू बीच में ही टोक देता है।
चिंटू (बीच में ही): “जी अग्नि देव, आप ही, आप ही को वहाँ तक चलकर जाना होगा, लेकिन एक बात का ध्यान रहे कि आपकी लपेट में उस लाठी के अलावा और कोई न आए”
आग (थकी-हारी सी आवाज़ में): “मंज़ूर....चलो”

क्रमश:

Tuesday, September 13, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 17 और 18)

Scene 17


रात का अन्धेरा। आकाश में तारे टिमटिमा रहे हैं। सभी हाथी इधर-उधर लेटे खर्राटे ले रहे हैं। बीच-बीच में कोई हाथी करवट बदलता है। जाल पेड़ की एक डाल पर लटका सो रहा है, उसी पर बैठा-बैठा काका भी सो रहा है। चिंटू नीचे एक हाथी के पेट पर सो रहा है। अचानक हाथी करवट लेता है और चिंटू उसके नीचे दब जाता है। चिंटू ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाता है लेकिन किसी पर कोई असर नहीं होता, सभी गहरी नींद में हैं। एक-दो बार वह और चिल्लाता है पर जब फिर भी किसी को सुनाई नहीं पड़ता तब वह अपनी चोंच से उस हाथी को काट खाता है। हाथी हड़बड़ाकर उठ खड़ा होता है। जल्दबाज़ी में हाथी किसी और हाथी की पूँछ पर खड़ा हो जाता है जिससे वह दूसरा हाथी भी हड़बड़ाकर उठ खड़ा होता है लेकिन वह भी जल्दबाज़ी में किसी और की पूँछ पर अपना पाँव रख देता है। ऐसे ही छ: हाथी उठ खड़े होते हैं और आपस में लड़ने लगते हैं। चिंटू धरती में दबा-दबा ज़ोर से उन्हें पुकारता है।
चिंटू (जोर से): “अरे भाई, लड़ो मत” किसी को उसकी आवाज़ नहीं सुनाई देती। वह फिर चिल्लाता है: “अरे, पहले मुझे यहाँ से निकालो! सुनो तो मेरी आवाज़!”
सभी हाथी चौंककर इधर-उधर देखने लगते हैं कि ये आवाज़ कहाँ से आई। एक हथिनी की नज़र ज़मीन में धँसे चिंटू पर पड़ती है और वह डर के मारे ‘उई माँ’ कहती है और उछलकर किसी और हाथी की गोद में चढ़ जाती है। वह हाथी लड़खड़ाता है फिर सम्हल जाता है। सभी हाथी चिंटू को देखते हैं। तभी वह हाथी, जिसपर चिंटू सोया था, चिंटू को पहचान लेता है और कहता है।
हाथी: “अरे ये तो...”
चिंटू (बीच में ही): “हाँ, मैं हूँ। अब इस तरह आँखें फाड़-फाड़ कर मत देखो मुझे एम्बैरेसमेंट हो रही है। अपनी सूंड लाओ इधर।”
वह हाथी अपनी सूंड चिंटू के पास ले जाता है। चिंटू बड़ी मुश्किल से अपने पंखों को खींचतान कर बाहर निकालता है, सूंड पकड़ता है और फिर पूरी तरह से धँसे हुए अपने शरीर को किसी तरह बाहर निकालता है। वह पूरी तरह से पिचक गया है। बाहर निकलकर वह उसी हाथी को झिड़कता है जिसपर वह सोया था।
चिंटू (झिड़कते हुए): “बड़े अजीब तरीके से सोते हो तुमलोग यार!!”
वह हाथी (मासूमियत से): “मैंने क्या किया?”
चिंटू: “क्या किया? देखा नहीं? मुझे आधा पाताल में पहुँचाकर पूछते हो क्या किया? वो तो मैं था जिसने अपने-आपको खींचकर बाहर निकाल लिया वरना पता है अन्दर के लोग मेरी टांग पकड़कर अपनी ओर खींच रहे थे!”
वह हाथी: “सॉरी...मैंने जानबूझकर नहीं किया”
चिंटू: “ठीक है-ठीक है लेकिन अभी सम्हलकर सोना, ओ.के.?”
वह हाथी सहमति में सर हिलाता है और कहता है: “ओ.के.” सभी हाथी धीरे-धीरे सोने चले जाते हैं। चिंटू गहरी साँस लेकर अपने पिचके शरीर को फुलाता है।
चिंटू (उसी हाथी पर फिर चढ़ते हुए): “कैसे-कैसे लापरवाह लोग होते हैं! या अल्लाह, रहम कर” आँखें बन्द करता है, फिर जैसे अचानक कुछ याद आता है, आँखें खोलता है और जल्दी से बोलता है।
चिंटू: “मेरे ऊपर, ये नहीं कि किसी और के ऊपर कर दिया रहम, हाँ!” सो जाता है।

Scene 18
बिल्कुल सुबह का समय। चिंटू की नींद खुलती है। अंगड़ाई लेता है। फिर हर किसी के पास जा-जाकर ‘चलो भाई, उठो भाई। समुन्दर पीने चलना है” कहकर उन्हें उठाता है। इधर काका और जाल की नींद भी टूटती है। तीनों मिलकर बाकी बचे सोते हुए हाथियों को उठाते हैं। नेता हाथी दूर से ही चिंटू से कहता है।
नेता हाथी (चिंटू से): “मगर पहले नहा-वहाँ लें तब चलेंगे”


चिंटू: “अरे दादा, अब नहाना-वहाना वहीं समुन्दर में”
जाल: “अच्छा, अब अपुन का कोई काम नहीं। अपुन जा रेला है”
चिंटू: “हाँ भाई तू जा, जा” जाल चला जाता है।

क्रमश:

Monday, September 5, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 15 और 16)

Scene 15


काका, चिंटू और चूहा तीनों वहीं आते हैं जहाँ जाल रस्सी पर टँगा है। तीनों उसी जाल के पास आते हैं जिससे पहले मिल चुके थे। जाल उन्हें देखता है। जैसे ही उसकी नज़र चूहे पर पड़ती है वैसे ही वह उछल पड़ता है।
जाल (चूहे को देखकर चिंटू से कहता है): “अबे तू ये क्या उठा लाया? इस दँतनिकले को मुझसे दूर ही रखियो (चूहे को) चल भाग यहाँ से...भाग!”
चूहा: “चला जाऊँगा – चला जाऊँगा भइया, दरअसल मेरी दाँतों में ज़रा खुजली हो रही है”
जाल (पैनिक होकर): “तेरे दाँतों में खुजली हो रही है तो मैं क्या करूँ? मैं कोई खुजली की दवा हूँ क्या?”
चूहा: “हें-हें कुछ ऐसा ही समझ लो” – कहकर चूहा करीब आता है।
जाल ‘ए-ए’ कहकर चूहे से दूर हटता है।
चिंटू (जाल से): “अभी भी वक्त है जाल भाई, इसकी खुजली की दवा बनना है या गजराज को फँसाना है, सोच लो” जाल: “चल कहाँ चलना है, सोच लिया”
चूहा (खुश होकर, चिंटू से): “तो अब मैं जाऊँ?”
चिंटू: “हाँ भाई, तुम जाओ। फिर कभी ज़रूरत होगी तो आऊँगा.........या ऐसे भी मिलने आता रहूँगा”
चूहा: “हाँ-हाँ, बिल्कुल-बिल्कुल, जब मरजी हो आना लेकिन ज़रा अकेले हें-हें-हें”
चिंटू: “आपकी कृपा बनी रही तो तो अकेले ही आऊँगा”
काका (चिंटू से, मुस्कुराते हुए): “तो चलें गजराज के पास?”
चिंटू: “हाँ-हाँ नेक काम में भला देर किस बात की! क्यों जाल भइया?”
जाल कुछ नहीं कहता, बस बेमन से ‘चल’ कहता है।


Scene 15
हाथियों का समुदाय अभी भी वहीं नदी किनारे पड़ा है। रात होने वाली है इसलिए कुछ हाथी मोमबत्ती और लालटेन जला रहे हैं। कुछ हथिनियाँ स्टोव पर खाना बना रही हैं। कुछ बच्चे सो रहे हैं, कुछ चुपचाप बैठे हैं। अन्धेरा नहीं है पर रौशनी भी बहुत कम है। सबसे किनारे नेता हाथी बैठा है। सामने चिंटू, काका और जाल हैं।
नेता हाथी (गिड़गिड़ाते हुए): “देखो भाई, मैं आज़ादी पसन्द आत्मा हूँ। मुझे यूँ जाल में जकड़ दोगे तो मैं तो जीते-जी मर जाऊँगा। भगवान के लिए ऐसा मत करो”
चिंटू: “आज़ादी इतनी पसन्द है तो इसे बचाने के लिए थोड़ी मेहनत तो करनी पड़ेगी दादा”
नेता हाथी: “क्या करना है?”
चिंटू: “समुन्दर सुखाना है”
नेता हाथी (चौंककर): “क्या कहा? समुन्दर!! तुम्हें पता भी है कि समुन्दर कितना बड़ा होता है? मैं अकेला भला उसे कैसे सुखा सकता हूँ?”
काका: “तुम अकेले कहाँ हो भाई, पूरी फ़ौज़ है तुम्हारे साथ” – कहकर हाथियों के समूह की ओर हाथ दिखाता है।
नेता हाथी उन हाथियों की ओर देखता है। थोड़ी दूर चुप रहता है फिर चिंटू को देखकर कहता है।
नेता हाथी: “मुझे सबसे एकबार पूछना होगा”
चिंटू: “ठीक है, आप मीटिंग कर लें। तब तक हम भी थोड़ा सुस्ता लें” – कहकर चिंटू जम्हाई लेता है।
जाल: “लेकिन अपुन इतनी देर तक नहीं ठहरने वाला, या तो कहो तो अपना काम शुरु करूँ या फिर यहाँ से खिसकूँ” – कहकर खड़ा हो जाता है।
चिंटू (जाल को देखते हुए काका से कहता है): “पापा, उस चूहे के दाँत काफी बड़े थे न!” काका मुस्कुरा देता है।
जाल (वापस बैठते हुए): “अच्छा-अच्छा, ठीक है (नेता हाथी से) लेकिन मीटिंग ज़रा छोटी रखना”
नेता हाथी उन सभी हाथियों के बीच जाता है। यहाँ से काका, चिंटू और जाल बैठे उसे देख रहे हैं। नेता हाथी अपनी सूंड उठाकर ‘फुर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्र’ की आवाज़ निकालता है। सभी हाथी एकबार उसकी ओर देखते हैं। नेता हाथी वहाँ एक टीले पर बैठ जाता है। सभी हाथी जल्दी-जल्दी उसके इर्द-गिर्द बैठ जाते हैं। उनमें सूंड उठा-उठाकर काफी देर तक बहस चलती है। इस बीच चिंटू सो जाता है।
कुछ देर बाद नेता हाथी वापस आता है। काका चिंटू को उठाता है।
नेता हाथी: “चलो ठीक है, हम सभी तैयार हैं। पर अभी नहीं। अभी तुमलोग भी थक गए होगे, आराम से खाओ-पीओ और गहरी नींद सोओ। कल सुबह-सुबह हम सभी चलेंगे”
जाल: “खाना-पीना अच्छा कराना और अल्लसुबह ही चले देना और रात भर में कोई गड़बड़-घोटाला नहीं करने का”
नेता हाथी: “ठीक है, चलो। खाना तैयार है।”
चिंटू: “हा: हा: इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के दाम!”
सभी एक चट्टान पर बैठते हैं। उन तीनों के सामने बड़े से केले के पत्ते में पूरी, सब्ज़ी, हलवा, पकौड़े परोसा जाता है। तीनों खाने पर टूट पड़ते हैं।
चिंटू: “पापा, क्या हमें अंत में आइसक्रीम मिलेगी या फिर इस बगीचे के आम मिलेंगे?”
काका: “जो मिल रहा है चुपचाप खा लो, ज़्यादा फरमाइश कर दी तो आम क्या आम की गुठलियों के दाम भी नहीं मिलेंगे। ऊपर से ये हमारी ही गुठलियाँ निकाल लेंगे”


क्रमश: