Saturday, February 20, 2010

जली रोटी

कल रोटी बनाते समय
मेरा हाथ तवे से छू गया
जलन से मैं चिल्ला उठी
उस चीख में
अचानक एक और चीख मिल गई,
पड़ोस की माथुर आंटी की
जब दो महीने पहले
उन्हें ज़िन्दा जला दिया गया था,
उनकी शिफॉन की ख़ूबसूरत गुलाबी साड़ी
भयंकर काले रंग के कूड़े के ढेर में तब्दील हो गई थी,
एक छोटी सी मासूम लड़की की
जब फूल चुनने जाने पर
गार्डन में मालिक के कुत्ते ने
उसे काट खाया था,
उस लड़के की
जब कुछ लोगों ने
उसकी पीठ में छुरा भोंक दिया था
उसकी पॉकेट से तीन सौ दस रुपए लेने के लिए ,
उस लंगड़े भिखारी की
जिसकी नज़रें टिकी थीं
भीख में मिले दस रुपए पर
तब बत्ती हरी हो गई थी
और उसके पीछे बस खड़ी थी,
दंगे में हथियार लिए
गुस्से से पागल भीड़ से भागती,
अपने बच्चे को गोद में चिपटाए
एक माँ की
जिसके बेतहाशा दौड़ते पैर
कभी साड़ी में
तो कभी बुरके के घेरे में फंस जाते हैं,
और भी कई चीखें थीं
जो आपस में इतनी बुरी तरह गुँथीं थीं
कि उन्हें पहचानना मुश्किल था।
मैंने घबराकर अपने कान बन्द कर लिए,
आवाज़ें अभी भी आ रही थीं।
धीरे-धीरे करके जब वे खत्म हुईं
तो उस चीख के खत्म होने पर
एक अजीब मरघट-सी चुप्पी थी,
उस चुप्पी में कई ख़ामोशियाँ थीं
जो
कभी गुजरात में बैठे
एक बूढ़े की आँखों में पथराती हैं,
तो कभी
काश्मीर से भागे
एक पंडित की ज़ुबाँ से चिपक जाती हैं,
कभी सड़क पर पड़े
एक लड़के की लाश से होकर गुज़र जाती हैं
जो अभी कुछ देर पहले थरथराई थी,
कभी किसी चौराहे पर सोए
एक आधे-अधूरे कंकाल पर फैलती हैं
जो कभी शायद ज़िन्दा था,
कभी एक दुल्हन को छू जाती हैं
जिसकी जली हथेलियों में
कभी मेहन्दी भी लगी थी।
एक ऐसी ख़ामोशी
जो सबसे होकर गुज़र जाती है
और सभी चुपचाप, बस चुपचाप
खड़े रह जाते हैं।
मेरा ध्यान तवे पर गया
तवे पर रखी रोटी
बुरी तरह से जल चुकी थी।

Saturday, February 6, 2010

बादलों की सफेदी पर...

बादलों की सफेदी पर अब काले रंग नहीं उभरते क्या?
दो छोटे-छोटे पंख लेकर पंछी भी अब उड़ान नहीं भरते क्या?
लगता है बारिश ने हमेशा-हमेशा के लिए घूंघट ओढ़ लिया है
हवाओं ने भी पीले-हरे पत्तों का दामन छोड़ दिया है।
आँखों से देखो तो आसमान नीला है
और आँखें बन्द करने पर कुछ दिखता ही नहीं
कोरे-कोरे कागज़ सब कोरे ही उड़ जाते हैं
क्या उनपर अब कोई अपना हाल-पता लिखता नहीं?
तितलियों और फूलों में भी बातचीत बन्द है शायद
उड़ते-खिलते दोनों एक-दूसरे को देखते तक नहीं,
या वे भी इंसानों की फेहरिस्त में आ गए
जो दोस्तों के दरवाज़े खटखटाना भूल गया,
अंगुलियों में अंगूठियाँ तो काफी हैं
पर उन अंगुलियों को कलम पकड़ाना भूल गया,
तालियों पर तालियाँ बजाता वह महफिल में
खुशी से पीठ थपथपाना भूल गया।
बादलों की सफेदी पर काले रंग नहीं आते अब
वे सब हमारे नाखूनों में उतरने लगे हैं
पेड़ तो बहुत हैं अपने हिस्से की छाया देते
पर छुईमुई के पौधे सब ज़मीन के नीचे सोने लगे हैं।
देखो ना ईश्वर तुम भी ज़रा झांककर
हर कोई इतना अलग-अलग, चुप-चुप, रूठा-रूठा सा क्यों है?
आँखों के मिलने पर मुस्कुराती हैं आँखें,
पर उन आँखों में कुछ झूठा-झूठा सा क्यों है?
मिलते हैं कभी-कभार हाथों से हाथ भी
पर उन हाथों में कुछ छूटा-छूटा सा क्यों है?
सोचो न तुम भी झाँको न एक बार
सबके लिए सबको मिलाओ न एक बार
क्या हुआ जो एक-दूसरे से टकराएँगे सारे
उस टकराहट में अपनापन मिलाओ न एक बार 
सबको फिर से जिलाओ न एक बार 
अंगुलियों को अंगुलियों से पिराओ न एक बार 
धड़कनों को धड़कनों से मिलाओ न एक बार 
बारिश के घूँघट को हटाओ न एक बार 
आसमाँ पर काला रंग बिखराओ न एक बार 
इस बारिश में तुम भी नहाओ न एक बार।