Thursday, July 28, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 5 और 6)

Scene 5



काका और चिंटू दोनों बाज़ार के बीचोबीच बने महाराज की मूर्ति पर बैठे हैं।
काका: “अब क्या होगा चिंटू? हमारी सहायता में तो कोई भी आगे नहीं आ रहा”
चिंटू (गाते हुए): “जाने क्या होगा रामा रे, जाने क्या होगा मौला रे”
दोनों कुछ देर चुप रहते हैं। कुछ देर बाद चिंटू बोलता है।
चिंटू: “छोड़ो बापू....जाने दो उस दाल को (लम्बी साँस छोड़ते हुए कहता है) दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम”
काका (जोश में): “नहीं चिंटू, अब तो मुझे भी उस दाने को लेने की ज़िद हो आई है”
चिंटू भौंचक्का होकर काका के इस रूप को देखता है। फिर अपना सर हिलाता है मानो यकीन न हो रहा हो।
फिर यकायक काका की पीठ थपथपाकर कहता है: “ये हुई न बहादुरों वाली बात!”
उसके पीठ थपथपाने पर काका उसे आँखें दिखाता है। चिंटू तुरंत उसकी पीठ पर से अपना हाथ हटाकर गहरी सोच की मुद्रा बना लेता है। दोनों कुछ देर सोचते हैं। अचानक चिंटू चुटकी बजाता है और कहता है।
चिंटू (चुटकी बजाते हुए): “आइडिया!”
काका उसे देखता है। चिंटू काका को देखकर उसे थोड़ी दूर पर सपेरे की डिबिया में बैठे साँप की ओर देखकर अपने पंखों से इशारा करता है और मुस्कुराता है।

Scene 6

डिबिया में मोटा, काला साँप बैठा है।
चिंटू (थोड़ी दूर बैठकर): “साँप साँप तुम रानी डसो, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
साँप: “मुझे देशद्रोही समझा है क्या? चला जा, जा किसी और के पास जा। एक दाल के दाने के लिए मैं....हुँह” साँप आँखें बन्द कर सो जाता है।
चिंटू: “अरे साँप भाई सुनो तो....”
आँखें बन्द किए बीच में ही साँप अपनी बड़ी सी लपलपाती जीभ उसतक तेज़ी से लाकर बड़े ज़ोर से ‘हिस्स’ की आवाज़ निकालता है।
चिंटू डर से चार-पाँच कदम पीछे हट जाता है और धीरे-से कहता है।
चिंटू (धीरे से): “तुझे तो मैं देख लूँगा”
साँप एक बार फिर धीरे-से ‘हिस्स’ की आवाज़ निकालता है।
चिंटू: “जा रहा हूँ भाई जा रहा हूँ”
उड़ने के लिए चिंटू पीछे मुड़ता है तभी उसकी नज़र अखाड़े पर पड़ती है। पहलवान कुश्ती लड़ रहे हैं, दण्ड-बैठक कर रहे हैं। वहीं पर कुर्सी पर बैठा एक पहलवान सभी को कुछ न कुछ सिखा रहा है। उसकी कुर्सी से टिकाकर एक लाठी रखी हुई है। चिंटू चुपचाप उस लाठी के पास जाता है। लाठी की मूँछे हैं। चिंटू लाठी को हसरत भरी निगाहों से देखते हुए उसे हौले से छूता है।
चिंटू (छूते हुए): “लाठी भाई क्या तगड़ी बॉडी पाई है तुमने!”
लाठी गर्व से कहता है: “मेरा मालिक रोज़ मेरी तेल मालिश करता है”
चिंटू: “वो तो देखकर ही लग जाता है। तुमने कई बड़े-बड़े वीरों के छक्के छुड़ाए हैं, सुना है!”
लाठी: “सही सुना है”
चिंटू: “अच्छा?”
लाठी (अपनी मूछों पर ताव देते हुए): “और नहीं तो क्या? बड़े से बड़ा पहलवान मेरे सामने आज तक नहीं टिक सका, कोई नहीं टिक सकता”
चिंटू: “कोई नहीं?”
लाठी: “ना, कोई भी नहीं”
चिंटू: “साँप भी नहीं?”
लाठी (हँसते हुए): “हा:-हा:, साँप भला मेरे सामने क्या चीज़ है?”
चिंटू: “तुम इतने मज़बूत हो लाठी भाई, मेरी एक सहायता करोगे?”
लाठी: “सहायता?”
चिंटू: “लाठी-लाठी तुम साँप मारो, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
लाठी (हकलाते हुए): “स-स-साँप? त-त-तुम चाहते हो कि मैं साँप को मारूँ?”
चिंटू: “हाँ लाठी भाई, अभी तुमने ही तो कहा कि तुम्हारे आगे साँप........”
लाठी (बीच में ही): “हाँ, वो तो ठीक है। लेकिन तुमने देखा नहीं कि अभी-अभी मालिक ने मुझे तेल लगाया है? इस मारपीट के चक्कर में अगर मैं गन्दा हो गया तो?”
चिंटू कुछ कहने के लिए मुँह खोलता ही है कि लाठी फिर बोल उठता है।
लाठी: “तुम जाओ यहाँ से, मैं साँप-वाँप को मारने वाला नहीं”
चिंटू: “पर?”
लाठी: “जाते हो या?” कहकर उछल कर चिंटू के एक कदम नज़दीक आता है।
चिंटू डरकर एक कदम पीछे हो जाता है।


क्रमश:

Wednesday, July 27, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 4)

Scene 4

महारानी मुकुट लगाए, सजी धजी ब्यूटी पार्लर में बैठी हैं। उनके अगल-बगल चार उन्हें सजाने वालियाँ हैं। एक उनकी हाथ की अंगुलियों में नेलपॉलिश लगा रही है, दूसरी पाँव की। तीसरी उनके बालों में कंघी कर रही है। महारानी के चेहरे पर मुल्तानी मिट्टी का लेप लगा है और आँखों पर खीरा रखा है। चिंटू रोशनदान से ब्यूटी पार्लर के अन्दर जाता है और सामने रखे क्रीम के डिब्बे पर बैठते-बैठते पूछता है।
चिंटू: “महारानी साहिबा हैं क्या?”
कंघी करने वाली सेविका: “तेरे सामने हैं”
चिंटू (आश्चर्य से): “तू?”
सेविका: “नहीं, ये” (कहकर महारानी की ओर इशारा करती है)
चिंटू: “ओहो” झुककर सलामी देता है।
चिंटू: “महारानी की जय हो”
महारानी (वैसे ही बैठे-बैठे): “बोलो”
चिंटू: “जी, वो बात ये है कि...........”
महारानी (बीच में ही): “जो कहना है जल्दी कहो, मैं ज़रा बिज़ी हूँ”
चिंटू (एक साँस में कह जाता है): “रानी-रानी तुम राजा छोड़ो, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
रानी भड़क उठती है। आँखों पर से खीरा निकालकर फेंक देती है, सीधी बैठ जाती है और चिंटू को क्रोधित नज़रों से खोजती है। सभी सेविकाएँ डर जाती हैं।
रानी (इधर-उधर देखते हुए): “क्या कहा? कौन है ये?”
सभी डरी-सहमी सेविकाएँ चिंटू की ओर इशारा करती हैं जो महारानी के क्रीम के डिब्बे पर बैठा है।
महारानी (दाँत पीस कर): “एक दाल के दाने के लिए मैं महाराज का साथ छोड़ दूँ? जनम जनम का साथ छोड़ दूँ? तुम्हारी ज़ुर्रत कैसे हुई ऐसा कहने की? पकड़ो इस तोते को, आज मैं इसका नमकीन हलवा महाराज को खिलाऊँगी”

इतना कहना था कि पार्लर में अफरा-तफरी मच जाती है। चारों सेविकाएँ हर तरह से चिंटू को पकड़ने में लग जाती हैं। चिंटू यहाँ-वहाँ भागता फिर रहा है। कई सामान गिर जाते हैं, पूरा हड़कंप मच जाता है। इस धमाचौकड़ी में उसके ऊपर भी पाउडर, तेल वगैरह गिर जाते हैं। किसी-किसी तरह चिंटू वापस रोशनदान से बाहर की ओर भाग निकलता है। जब वह बाहर आता है तो डाल पर बैठा काका उसे ऐसे रूप में पहचान नहीं पाता और उसे अपनी ओर तेज़ी से आता देख डर कर भागने लगता है।
चिंटू (उसे भागता देख चिल्लाकर कहता है): “अरे, ये मैं हूँ”
लेकिन काका पेड़ के झुरमुट में छिप जाता है। तब चिंटू डाल पर बैठकर गाता है: “अरे मेरे पापा, मुझे पहचानो, कहाँ से आया, मैं हूँ कौन, मै हूँ कौन, मैं हूँ कौन, मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ........(थकी और दुखी आवाज़ में) चिंटू” (पुराने डॉन के टाइटल ट्रैक की धुन में) काका चौंकता है। ध्यान से चिंटू को वहीं से देखता है और फिर बाहर आता है। काका (आश्चर्य से): “चिंटू ये तू है!!”
चिंटू: “हाँ, महारानी ने ज़रा प्यार से मेकअप कर दिया था न सो...”
काका खूब ज़ोर-ज़ोर से हँसता है, हँसते-हँसते लोटपोट हो जाता है।
काका (हँसते हुए): “हा-हा-हा, जाकर सूरत देख अपनी, हो-हो-हो”
चिंटू नज़दीक के एक तालाब में खुद को देखता है और वो भी हँसने लगता है।

क्रमश:

Tuesday, July 26, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 3)

Scene 3

महाराज का किला। दरवाज़े पर दो पहरेदार भाला लिए खड़े हैं। काका और चिंटू उड़ते हुए आते हैं और दरवाज़े से अन्दर जाने लगते हैं। दोनों पहरेदार भालों को क्रॉस करके उन्हें रोकते हैं और एक पूछता है -
पहरेदार 1: “ए, कहाँ चले जा रहे हो?”
चिंटू (किले को दिखाकर): “क्या है ये”
पहरेदार 1: “महाराज का किला”
चिंटू: “तो महाराज के किले में जा रहे हैं!”
काका: “दरअसल भाई, महाराज से मिलना है, कुछ काम है उनसे”
पहरेदार 2: “क्या काम है?”
चिंटू: “तुम महाराज हो?”
पहरेदार 2: “नहीं”
चिंटू: “फिर तुम्हें कैसे बताएँ क्या काम है?”
पहरेदार 1: “महाराज अभी मिल नहीं सकते”
चिंटू: “क्यों?”
पहरेदार 1: “वो अभी जिम में है”
चिंटू: “कोई बात नहीं, जाकर कहो उनसे हम उनसे मिलना चाहते हैं”
पहरेदार 2: “कहा न इसने कि महाराज नहीं मिल सकते”
काका: “भईया बहुत ज़रूरी काम है, एक बार कहकर तो देखो”
पहरेदार 2 (कुछ सोचकर): “अच्छा ठीक है”
पहरेदार 2 अन्दर जाता है।
चिंटू (पहरेदार 1 से): “भईया, ये भाला चलाना तो तुम जानते हो न?”
पहरेदार 1: “हाँ बिल्कुल, क्यों?”
चिंटू: “मुझे चलाना सिखाओगे?”
पहरेदार 1: “तुम? ह: ह: ह: ह: ह:...कभी खुद को शीशे में देखा है? चले हैं भाला सम्हालने, हुँह!”
चिंटू: “ए-ए, मुझे जानते नहीं हो तुम। एक दिन यही भाला हाथ में पकड़े मेरे पीछे-पीछे चलोगे, समझे?”
पहरेदार 1 कुछ कहता तब तक पहरेदार 2 किले से बाहर आता है।
पहरेदार 2: “जाओ महाराज बुला रहे हैं। अन्दर घुसते ही साइनबोर्ड पढ़ लेना। जिधर इशारा करके जिम लिखा हो उधर चले जाना”
चिंटू (लापरवाही से): “ठीक है-ठीक है”
काका (दोनों पहरेदारों से): “अच्छा भाई धन्यवाद”
दोनों महल में घुसते हैं। चारों ओर बड़े-बड़े परदे, बड़े-बड़े शीशे, तरह-तरह के झाड़-फानूस और सजावट की अन्य चीज़ें सजी हुई हैं।
चिंटू हर शीशे में अपने-आपको अलग-अलग angle से देखता हुआ आगे बढ़ रहा है और गीत गुनगुना रहा है – “तारीफ करूँ क्या उसकी जिसने हमें बनाया”......... “ये आँखें उफ जुम्मा ये अदाएँ उफ जुम्मा”
तभी सामने साइनबोर्ड आ जाता है जिसपर लिखा है – “जिम – दाहिनी ओर जाएँ, स्विमिंग पूल – बाईं ओर जाएँ”। चिंटू इस साइनबोर्ड को देख नहीं पाता और शीशे में खुद को देखता हुआ, गुनगुनाता हुआ मुड़ता है और इससे टकराकर नीचे गिर जाता है। पीछे से काका आता है।
काका (साइनबोर्ड देखकर): “ये रहा बोर्ड”
चिंटू (नीचे अपना सर सहलाते हुए): “हाँ, जानता हूँ”
फिर ऊपर आता है। दोनों साइनबोर्ड पढ़ते हैं और दाहिनी ओर उड़ान भरते हैं। राजमहल की बड़ी-बड़ी गलियों को आश्चर्य से देखते हुए दोनों जिम पहुँचते हैं।
चिंटू(जिम को दूर से ही देखकर): “वो रहा जिम”
एक कमरे के बाहर ‘शाही जिम’ लिखा है। दोनों अन्दर पहुँचते हैं। जिम में अत्याधुनिक मशीनें भरी हुई हैं। महाराज पारम्परिक वेशभूषा (धोती कुरता, मुकुट आदि) में ट्रेडमिल पर बैठे साइकिलिंग कर रहे हैं। पसीने से लथपथ हैं।
चिंटू और काका दोनों एकसाथ महाराज को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं – “प्रणाम महाराज”
महाराज दोनों की ओर देखते हैं और साइकिलिंग करते-करते ही हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं – “प्रणाम-प्रणाम, कहिए कैसे आना हुआ?”
काका: “महाराज.....”
लेकिन चिंटू बीच में ही हाथ से इशारा करके काका को रोक देता है।
चिंटू: “महाराज, हम आपके भव्य राज्य के दो अदने से जीवित प्राणी अपने जीवन और प्राण दोनों ही की भिक्षा लेने आपके पास आए हैं”
महाराज (साइकिलिंग करते-करते): “ऐसा क्या हो गया कि आपके जीवन-प्राण संकट में आ गए?”
चिंटू (ट्रेडमिल की हैंडल पर बैठकर): “राजा-राजा आप बढ़ई को डाँटें, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
महाराज (रुककर): “ये क्या है?”
चिंटू: “कविता है जो.....”
महाराज (बीच में): “अच्छी है। एक महीने बाद राष्ट्रीय स्तर का कविता सम्मेलन है। आ जाना दोनों” – कहकर फिर से साइकिलिंग शुरु कर देते हैं।
महाराज को फिर से साइकिलिंग में व्यस्त देखकर चिंटू और काका एक-दूसरे को देखते हैं। फिर चिंटू थोड़ी हिम्म्त करके बोलता है -
चिंटू: “महाराज आपने इस कविता का अर्थ नहीं समझा”
महाराज (चिंटू को देखकर, प्रश्न के भाव से, साइकिलिंग करते हुए ही): “इसका कोई भाव भी था?”
चिंटू: “जी”
महाराज: “बताओ”
चिंटू: “जी अर्थ ये था कि हमारा दाल का एक दाना एक खूँटे में गिर गया है, न तो खूँटा ही उसे निकाल रहा है और न ही बढ़ई हमारी मदद करने को तैयार है”
महाराज (उसी व्यस्त भाव से): “अच्छा, तो अपनी कविता में तुमने ये कहने की कोशिश की है कि एक दाल के दाने के लिए मैं उस बढ़ई के पास जाऊँ”
चिंटू: “नहीं महाराज, वो बढ़ई आपके पास आए”
महाराज: “तो तुम चाहते हो कि मैं उसे बुलाऊँ”
चिंटू: “जी महाराज”
महाराज: “तुम्हारी चाह पूरी नहीं होगी........जा सकते हो”
चिंटू: “परंतु महाराज...”
महाराज (बीच में ही): “किंतु-परंतु कुछ नहीं (जोर से) सिपाहियों”
महाराज इतने ज़ोर से सिपाहियों को बुलाते हैं कि चिंटू हैंडल पर से गिरते-गिरते बचता है।
काका: “नहीं-नहीं महाराज, हम चले जाते हैं”
दोनों उड़कर बाहर आ जाते हैं। बाहर आकर दोनों किले की दीवार पर बैठ जाते हैं।
काका: “देख लिया? कुछ नहीं होने वाला यहाँ, अब चलो परदेस”
चिंटू: “आप जाइए परदेस। मैं चला रानी के पास”
काका: “रानी के पास? मगर क्यों?”
चिंटू: “आप बस देखते जाइए डैडी, मैं क्या चक्कर चलाता हूँ” चिंटू यह कहकर उड़ जाता है।
काका: “अरे लेकिन सुन तो”
लेकिन चिंटू नहीं सुनता और उड़ जाता है। काका वहीं बैठा रह जाता है।



क्रमश:
(चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)

Monday, July 25, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 2)

Scene 2

काका एक दुकान पर रखे फोन से अपनी बहन से बात कर रहा है। बगल में चिंटू खड़ा है।
काका (फोन पर): “हाँ-हाँ बहन हम अभी चल रहे हैं। शाम तक पहुँच जाएँगे। अच्छा रखता हूँ” फोन रख देता है। काका (दुकान में खड़े दुकानदार से): “हाँ भईया, कितने हुए?”
दुकानदार: “दो रुपये”
काका अपने पंख से दो रुपये का सिक्का निकालकर उसे देता है। दोनों उड़ चलते हैं। रास्ते में चिंटू काका से बोलता है –
चिंटू: “बापू, अपुन लोग लगता है बहुत दूर जा रेला है”
काका: “हाँ, तेरी बुआ परदेस में रहती है”
चिंटू: “परदेस बोले तो?”
काका: “परदेस...मतलब दूसरे देस”
चिंटू: “मतलब बहुत दूर”
काका: “हाँ”
चिंटू: “मतलब रास्ते में भूख-प्यास भी लगेगी”
काका (थोड़ा सोचने के बाद): “मुझे तो आदत है पर तुम्हें लग सकती है”
चिंटू: “हाँ तो फिर खरीद दो ना मेरे लिए कुछ”
दोनों एक पेड़ पर उतरते हैं। काका पंख से निकालकर उसे एक रुपया देता है।
काका (पैसे देते हुए): “बस इतने ही पैसे बचे हैं”
चिंटू: “इतने में क्या मिलेगा?”
काका: “चने की दाल”
चिंटू: “बस! मैं यही खाऊँगा!”
काका: “अगर इतने में तुझे कुछ और मिल जाता है तो खरीद ला! और पूरे पैसे मत खर्च कर आना, रास्ते में कुछ पैसे–वैसे पास में होने चाहिए”
चिंटू: “ठीक है, वैसे मैं दाल ही खरीद लूँगा। वैसे भी चने की दाल मुझे पसंद है” कहकर चिंटू राशन की एक दुकान पर जाता है।
चिंटू (दुकानदार से): “भईया, चने की एक दाल चाहिए”
दुकानदार: “ले लो”
चिंटू: “कितने की है?”
दुकानदार: “एक रुपया”
चिंटू: “अरे, ये तो पूरा रुपया ही मांग लिया तुमने! एक दाल की कीमत पूरा एक रुपया!!!”
दुकानदार (चिढ़कर): “लेना हो तो लो वरना जाओ”
चिंटू पंख में से पैसे निकालकर दुकानदार के सामने रख देता है और कहता है – “ये लो रखो” चिंटू एक दाल उठाकर, जाँचता-परखता है, फिर उसे लेकर काका के पास आता है।
चिंटू (काका के पास आकर, डाल पर बैठकर): “चलिए”
काका: “कितने लिए?”
चिंटू: “किसने?”
काका: “दुकान वाले ने”
चिंटू: “क्या लिए?”
काका: “पैसे”
चिंटू: “किसके पैसे?”
काका (परेशान होकर): “अरे, दाल के और किसके!”
चिंटू: “कौन सी दाल के?”
काका (गुस्सा कर): “तुम कौन सी दाल लाने गए थे अभी?”
चिंटू: “कहाँ?”
काका: “दुकान पर”
चिंटू: “कौन सी दुकान पर?”
काका: “अरे बाबा! उस दुकान पर.....”
चिंटू (बीच में ही टोककर): “जहाँ चने की दाल मिलती है?”
काका: “हाँ”
चिंटू: “आपको इतना नहीं पता??”
काका: “क्या नहीं पता?”
चिंटू: “कि मैं कौन सी दाल लाने गया था”
काका: “चने की दाल लाने गए थे”
चिंटू: “फिर?”
काका: “क्या फिर?”
चिंटू: “फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?”
काका कुछ कहने को मुँह खोलता है फिर उसे हँसी आ जाती है। चिंटू भी हँसने लगता है। दोनों हँसते हैं। हँसते-हँसते चिंटू अचानक पूछता है –
चिंटू: “आपने इसकी कीमत तो पूछी ही नहीं!”
काका: “रहने दे”
चिंटू: “अच्छा देख तो लो!”
काका: “क्या?”
चिंटू: “यही कि मैं कितनी सुन्दर दाल लाया हूँ!” – कहकर चिंटू दाल को एक पंख से निकालकर ऊपर आसमान में उछालता है और दूसरे पंख से बड़े ही स्टाइल से पकड़ने की कोशिश करता है लेकिन दाल कुछ ज़्यादा ही दूर होती है और चिंटू की पकड़ में नहीं आती और सीधे जाकर नीचे ज़मीन में गड़े एक खूँटे के अन्दर गिर जाती है।
चिंटू: “अरे नहीं, दाल तो इस खूँटे में गई”
काका (सर पकड़कर): “हाँ...और अब निकलेगी भी नहीं”
चिंटू: “तो?”
काका (सर से हाथ हटाते हुए): “तो क्या? कुछ पैसे बचे हुए हैं या सब खर्च कर आया?”
चिंटू: “पैसे तो नहीं बचे।”
काका चिंटू को देखता है और कहता है: “फिर सोचना क्या है? पैसे हमारे पास हैं नहीं कि कुछ और खरीदा जाए”
चिंटू: “तो?”
काका: “तो ये कि अब सीधे बुआ के हाथ का खाने को तैयार रहो”
चिंटू (बिल्कुल फिल्मी अन्दाज़ में): “नहीं~~~~~...ये नहीं हो सकता.........कह दो कि ये झूठ है!”
काका: “अरे नौटंकीबाज़! कभी तो सामान्य रहाकर! अब चुप कर और चल चुपचाप”
चिंटू: “नहीं बापू। एक मिनट रुको...मैं भूखे पेट इतनी दूर नहीं जा सकता”
काका: “तो क्या करोगे?”
चिंटू: “इस खूँटे से कहूँगा कि ये दाल वापस कर दे”
काका: “तुम्हारी बात ये मान जाएगा?”
चिंटू: “उम्मीद पे तो दुनिया कायम है पापा, फिर ये दाल क्या चीज़ है!”
चिंटू खूँटे के पास आता है। हाथ जोड़कर उसकी तीन बार प्रदक्षिणा करता है। फिर सर झुकाकर उससे विनती करता है। चिंटू: “हे खूँटा जी महाराज, मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप हमारी दाल हमें वापस कर दें”
खूँटा कुछ नहीं कहता। आँख मूंदे बैठा रहता है।
चिंटू: “अच्छा, कविता में विनती करता हूँ। शायद आपको मेरी कविता पसंद आ जाए और आप हमारी बात मान जाएँ” चिंटू: “खूँटा-खूँटा तुम दाल निकालो, हमारी एक बात तुम मानो, क्या खाएँगे क्या पीएँगे, क्या लेकर परदेस जाएँगे”
इतना सुनकर खूँटे की भवें चढ़ती हैं और वह चिढ़कर कहता है –
खूँटा: “एक चने की दाल के लिए मैं इतनी मेहनत क्यों करूँ? जो चीज़ मेरे अन्दर गई सो गई। तुम जाओ यहाँ से” – कहकर अपनी आँखें बन्द कर लेता है।
काका आगे बढ़कर चिंटू के पास आता है।
काका: “चलो बेटा, ये दाल हमसे नहीं गलने वाली”
चिंटू (दृढ़तापूर्वक): “नहीं पापा, इस दाल को तो मैं गलाकर ही दम लूँगा.........चाहे कुछ हो जाए”
काका (परेशान होकर): “लेकिन तू क्या करेगा? इसका जवाब तूने सुन लिया न?”
चिंटू: “अगर ये खूँटा मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं बढ़ई के पास जाऊँगा”
खूँटा: “अरे जाओ-जाओ, जैसे बढ़ई तुम्हारी बात सुनकर यहाँ दाल निकालने आ ही जाएगा”
चिंटू उड़ चलता है। पीछे से काका भी उड़ता है। उड़कर चिंटू एक झोंपड़ी के पास पहुँचता है। झोंपड़ी के पास एक पेड़ है जिसकी डाल पर चिंटू और काका बैठ जाते हैं।
चिंटू बढ़ई को पुकारता है – “बढ़ई भाई ओ~~~~ बढ़ई भाई!”
“कौन है?” – कहता हुआ एक बूढ़ा झोंपड़ी से बाहर निकलता है। बूढ़ा घुटनों तक धोती पहने है और कन्धों पर गमछा रखे है।
चिंटू: “मैं हूँ, मैं चिंटू। इधर ऊपर देखो बढ़ई महाराज, पेड़ पर”
बढ़ई पेड़ पर ऊपर की ओर देखता है। बढ़ई: “कहो, क्या है?”
चिंटू: “हम तुमसे एक मदद चाहते हैं”
बढ़ई: “मदद? मुझसे??”
चिंटू नीचे आकर उसके चेहरे के पास आकर कहता है -
चिंटू: “हाँ बाबा तुमसे”
बढ़ई: “कहो, क्या मदद चाहिए?”
चिंटू (कई मुद्राएँ बनाते हुए): “बढ़ई-बढ़ई तुम खूँटा कीरो, खूँटा न दाल निकाले, खूटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ?”
बढ़ई: “क्या? एक दाल के दाने के लिए तुम मुझ बूढ़े को परेशान कर रहे हो? वो खूँटा इतनी दूर है और तुम चाहते हो कि तुम्हारे एक दाल के दाने के लिए मैं वहाँ तक जाऊँ? ना, मैं वहाँ तक नहीं जाने वाला, मुझसे ये नहीं होगा” कहकर बढ़ई अन्दर चला जाता है।
काका: “अब?”
चिंटू (सर खुजलाते हुए): “अब?”
फिर कुछ देर सोचने के बाद अचानक ज़ोर से बढ़ई को सुनाकर कहता है -
चिंटू: “हम महाराज के पास इस बढ़ई की शिकायत करने जाएँगे”
बढ़ई (झोंपड़ी के अन्दर से ही): “जाओ जाओ, शौक से जाओ, वो नहीं कुछ करने वाले”
काका (चिंटू से): “बेटा कुछ नहीं होने वाला। चलो बुआ के घर चलो। दोपहर होने वाली है”
चिंटू: “नहीं, आपको जाना हो तो जाइए। अब ये दाल का दाना मेरे लिए इज़्ज़त का सवाल बन गया है”
काका: “क्या बेटा, तुम एक दाने के लिए..........”
चिंटू (बीच में ही): “नहीं पिताजी, आज चिंटू ये भीष्म प्रतिज्ञा लेता है कि वो या तो इस दाने को वापस पाएगा या फिर कभी आपको अपना मुँह नहीं दिखाएगा”
काका उसे देखता है कुछ कहता नहीं।

क्रमश:

Saturday, July 23, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी

जब हम छोटे थे और अम्मा (दादी अम्मा)के क़रीब थे तब हर शाम या यूँ कहूँ शाम ढल जाने पर जब मम्मी रात का खाना बना रही होतीं, बिसनाथ भइया अपने घर जाने से पहले बाथरूम और किचेन में रात भर के लिए पानी भर रहा होता, सुनीता माई बरतन साफ कर रही होती और बबीता आँगन या गली के दरवाज़े में ताला लगा रही होती, हम अम्मा से कहानियाँ सुनते थे। हर शाम सुनाने को चार-पाँच कहानियाँ ही होतीं पर हम कभी उनसे बोर नहीं हुए। जानते थे, अब ये होगा, पर कान फिर भी सतर्क होकर सुनते थे क्या हो रहा है।

बचपना छूट गया और वो आँगन भी पर कहानियाँ न छूट पाईं। अम्मा की सुनाई उन कहानियों को स्क्रिप्ट में ढालने की कोशिश कर रही हूँ, उम्मीद है इसे पढ़कर आपको भी कोई न कोई अम्मा और उनकी कहानियाँ याद आ जाएँगी।

जिसकी स्क्रिप्ट यहाँ लिख रही हूँ उस कहानी का असली शीर्षक तो पता नहीं पर हम उसे तोते और दाल वाली कहानी कहा करते थे...स्क्रिप्ट को किस्तों-किस्तों में जमा कर रही हूँ क्योंकि मूलधन काफी बड़ा है..
तो 'तोते और दाल की कहानी' की स्क्रिप्ट की पहली किस्त पेश-ए-ख़िदमत है:-


Scene 1

महाराजाओं का वक्त। सुबह करीब 10 बजे का समय। बाज़ार का दृश्य। पुरुष परंपरागत कपड़ों धोती-कुरता, मुरेठा, मूँछ में इधर-उधर घूमते-टहलते हुए, किसी-किसी के साथ बैल या बकरियाँ। महिलाएँ साड़ी में अपने घर के बाहर झाड़ू देती हुईं या आपस में बातें करती हुईं। व्यापारी दुकान में बैठे हुए। कुल मिलाकर एक व्यस्त नगर का दृश्य। नगर के बीचोबीच एक बरगद का पेड़। उसपर कई पक्षियों के घोंसले। कुछ पक्षी आपस में बातचीत करते, कुछ शांत बैठे। उसी पेड़ में एक घोंसला जिसमें एक मैना अपने तीन बच्चों को लोरी सुना रही है –
“चन्दा मामा दूर के, पुए पकावें गुड़ के...”
एक तोता पंख फड़फड़ाते हुए वहाँ आता है और घोंसले के किनारे पर बैठ जाता है। तोते का नाम काका है।
काका (मैना से): “कैसी हो बहन?”
मैना: “धीरे बोलिए, बड़ी मुश्किल से नींद आई है इन्हें! बीमार हैं तो जितना ज़्यादा सोएँ उतना अच्छा है”
काका (धीरे से): “अच्छा-अच्छा, मैं ये पूछने आया था कि तुमने चिंटू को देखा क्या?”
मैना: “नहीं, क्यों क्या हुआ?”
काका: “आज सुबह से ढूंढ रहा हूँ.....पता नहीं कहाँ चला गया!”
मैना: “अरे भईया, आप परेशान क्यों हो रहे हैं? वो तो बहुत स्मार्ट बच्चा है! खेल रहा होगा कहीं इधर-उधर! आ जाएगा”
दूसरी डाल पर बैठे एक कौए ने पूछा: “क्या हुआ काका? परेशान क्यों दिख रहे हो?”
उसकी तेज़ आवाज़ से मैना के बच्चे जाग जाते हैं और चीं चीं करने लगते हैं।
मैना (कौए से): “अरे भईया, देखो तुम्हारी तेज़ आवाज़ से मेरे बच्चे जग गए....ज़रा धीरे नहीं बोल सकते थे?....(बच्चों को) ओले-ओले-ओले मेरे प्यारे बच्चे, सो जाओ”
काका उड़कर उस डाल पर जाता है जिसपर कौआ बैठा है।
काका (उस कौए से): “मैं चिंटू को ढूंढ रहा था, तुमने देखा है क्या उसे?”
तभी पेड़ के झुरमुट से एक छोटा सा तोता निकलकर आता है (जो चिटू है) और झुककर सलाम करने की स्थिति में कहता है –
चिटू: “चिंटू आपकी सेवा में हाज़िर है सरकार...कहिए गुलाम के लिए क्या आज्ञा है?”
काका: “ये लो, आ गया मेरा नौटंकी बेटा”
चिंटू: “नौटंकी नहीं पापा कलाकार बेटा कहिए कलाकार बेटा”
कौआ: “कहाँ थे बेटा? काका तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं”
चिंटू: “क्यों बॉस, क्या हो गया? किसी से कोई लफड़ा-वफड़ा तो नहीं हुआ? हुआ हो तो बताओ अभी ठिकाने लगाता हूँ उसको”
काका उसे प्यार से एक थप्पड़ लगाता है।
काका: “अरे भुलक्कड़...याद नहीं आज बुआ के यहाँ जाना है!”
चिंटू: “बुआ? कौन सी बुआ? ओह! हाँ-हाँ-हाँ....तो चलो न फिर देर किस बात की?”
चिंटू दूर आकाश की ओर देखते हुए पंख फैलाकर कहता है – “हम यहाँ से पंख पसारेंगे, और वहाँ दूर तक जाएँगे, जाकर मिलकर बुआ से फिर, लौट यहीं पर आएँगे”
फिर पेड़ पर बैठे सभी पंछियों को वाहवाही की आशा में देखता है। सभी चुपचाप उसे देख रहे हैं। अचानक पेड़ पर बैठी गिलहरी ‘वाह-वाह’ कहकर ताली बजाती है। उसे देखकर फिर सभी ‘वाह-वाह’ कहते हैं और तालियाँ बजाते हैं।


क्रमश: