Saturday, November 12, 2011

मेरी पुस्तक 'गौरव बुक सेंटर, दरियागंज' पर उपलब्ध है...यदि आपमें से कोई इसे खरीदना चाहे तो कृपया गौरव बुक सेंटर से संपर्क करें...आप प्रतिमा प्रकाशन से भी यह पुस्तक मंगवा सकते हैं जिनका मोबाईल नंबर है - 09350887815...आशा है आपको 'कभी सोचा है' पसंद आएगी:).....

Monday, November 7, 2011

तुम हो ना....

पेड़ों की इन टहनियों ने
पूछा मुझसे, यूँ झुककर
मेरे साथ-साथ फिरती सी
तुम हो क्या?

हाँ, हूँ ना!

आसमाँ पे इन बदलियों ने
पूछा मुझसे, यूँ रुककर
मेरे साथ-साथ उड़ती सी
तुम हो क्या?

हाँ, हूँ ना!

जब भी चली हवा
मौसम बदला
पत्ते हिले कहीं
सबने ही
चलते हुए मुझे
रोक कर कहा
ऐ राही
सुनो ज़रा
अकेले चले कहाँ
हाथों में हाथ नहीं, कोई तेरे साथ नहीं
मैंने तब दिल में कहा,
हाँ मेरे साथ नहीं
पर दिल के किसी कोने में
तुम हो ना?

हाँ, हूँ ना!


अपनी दुनिया की राहों में
मनचली हवा की बाँहों में
जब भी मैं ख़ुद को पाता हूँ
तेरी यादों में खो जाता हूँ।
आँखों की इस भाषा में
होठों की इस बोली में
तेरी ही बातें पाता हूँ
तेरे ही किस्से कहता हूँ
तुम बोलो, इस दिल में बैठी,
चुप-चुप सी ये, तुम हो क्या?

हाँ हूँ ना!


हरी-भरी सी वो आँखें
खुली-खुली सी वो पलकें
मैं क्या करूँ उनका, के अब
वो मेरी आँखों से झलकें
ये तारों की झिलमिल रातें
ये बारिश की रिमझिम बातें
मेरे पास-पास जब आती हैं
हौले से छूकर मुझको
तेरी याद दिला सी जाती हैं
तब धड़कन कहती है मेरी
इनकी हरएक शरारत में
तुम हो ना?

हाँ, हूँ ना!

Tuesday, September 27, 2011

रुत

रुत को शादी करने का बड़ा शौक था। दसवीं पास कर लिया था और अब शादी का सपना सवार हो गया था। रुत उन लड़कियों में से थी जिसे गुड़िया खेलना और घर-घर खेलना सबसे अधिक भाता था। घर-घर खेलने में मानो वो अपनी खुद की दुनिया बसती देखती थी। बाकी के दोनों भाई-बहन पढ़े-लिखे, अच्छी-खासी उम्र के होने के बाद शादी करके खुश। लेकिन रुत को पढ़ाई-लिखाई बेकार की चीज़ें लगतीं। बरतन की सफाई में जो सुख है, घिस-घिसकर उसे आईना बनाने में जो मज़ा है वह भला भौतिकी की मशीनों में कहाँ?
सुबह उठते ही वह झाड़ू-पोंछा, बरतन, घर सजाने, खाना बनाने और इन सबके बीच अपनी शादी के सपने देखने में मशगूल हो जाती। उसे कुछ नहीं चाहिए – एक प्यारा सा पति, एक अपना सा घर – जिसे वह अपने हिसाब से सजाती-सँवारती रहे। यहाँ तो वह अपनी पसन्द का कुछ कर ही नहीं सकती – सबके अपने-अपने कमरे हैं – सबका अपना-अपना हिसाब। खुद का भी एक अकेला कमरा होता तो कोई बात होती, वह भी माँ और दादी के साथ बाँटना पड़ता है। और अपने घर के ख़्वाब में खो जाती रुत।
बड़े भाई ने बहुत समझाया। पढ़ाई पूरी कर ले रुत, शादी तो होनी ही है। लेकिन ना। पढ़ाई में रुत का बिल्कुल मन नहीं लगता। क्यों करे वह पढ़ाई जब उसे शादी ही करनी है! तो रुत दसवीं पास ही रह गई और उसकी माँ ने उसके लिए कोई लायक लड़का ढूँढना शुरु कर दिया। और इस बात पर बड़े भइया ख़फ़ा हो गए। माँ-रुत एक तरफ और भइया एक तरफ। दीदी की तो पहले ही शादी हो चुकी थी। लेकिन रुत उस शादी से खुश नहीं थी – ऐसी क्या शादी जिसमें दोनों जन दिन भर नौकरी ही करते रहो। ख़ैर, तो भइया ख़फ़ा होकर चले गए अपने शहर हैदराबाद और माँ फिर से अपने कर्तव्य की जल्दी से जल्दी पूर्ति में लग गई।
रिश्ता आया। बुआ के यहाँ से। लड़का अकेला था। अकेला मतलब न माता-पिता, न भाई-बहन। हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा था जब भूकम्प में घर के सभी सदस्य मारे गए थे।
बुआ ने बताया कि लड़का अच्छा है। हालांकि उस हादसे के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और अभी किसी स्टील की कम्पनी में नौकरी करता है। माँ सुनते ही तैयार। बुआ पर उन्हें पूरा भरोसा था। हो भी क्यों न, बहू भी तो वही ढूँढ कर लाईं थीं।
और जब रुत को ये बात पता चली तो उसकी खुशी की सीमाएँ न रहीं, कल्पनाएँ शुरु हो गईं!
शादी, घर और बच्चे – यही उसकी दुनिया थी। जैसे-जैसे शादी की तारीख़ नज़दीक आती गई, रुत की पलकें सपनों से भारी होती गईं। तैयारियाँ अपने परवान पर थीं, इसी बीच बड़े भइया को एक गुमनाम पत्र आया। पत्र लिखने वाले ने अपनी पहचान छुपाते हुए लिखा था कि लड़का कुछ बुरी आदतों का शिकार है। कैसी बुरी आदतें? यह नहीं बताया गया था। भइया गाँव आए। बुआ को बुलावा भेजा। बुआ ने समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, कुछ लोग हैं जो लड़के से जलते हैं और इतनी अच्छी लड़की से उसका रिश्ता होते देख घटिया हरकतों पर उतर आए हैं। माँ ने भी हाँ में हाँ मिलाया। पर भइया का दिल नहीं मान रहा था। उन्होंने माँ को कहा कि अभी भी वक़्त है, एक बार जाकर लड़के से मिल लो। पर माँ ठहरी बुआ पर अंधविश्वास रखने वाली। बुआ आख़िर हमें खराब लड़का थोड़े ही दिलवाएँगी? क्या बहू को शादी से पहले हमने देखा था, नहीं न? फिर इस बार ऐसा क्यों करें? और अब शादी की इतनी तैयारियाँ हो गई हैं, अब क्या होगा मिलजुलकर?
बुआ भी नाराज़ हो गईं – मुझपर भरोसा नहीं है। भइया ने रुत को समझाया – रुत ज़िंदगी खराब हो जाएगी तेरी। इतनी छोटी सी तो है तू, क्या जल्दी पड़ी है शादी करने की? एक बार सही से खोज-खबर तो करवा ले। पर रुत की आँखों में आँसू आ गए। भइया तो शुरु से ही नहीं चाहते कि मैं शादी करूँ। खुद तो मेरे लिए लड़का ढूँढा नहीं, एक बुआ लेकर आई हैं तो उसमें भी खराबियाँ दिख रही हैं। थक-हारकर भइया वापस हैदराबाद चले गए। शादी हुई। धूमधाम से। सभी बहुत खुश। लड़का खूब सुन्दर है, हाँ थोड़ा दुबला है, पर कितना गोरा है देखो तो! फिर नौकरीशुदा, कलकत्ते में रखेगा रुत को! राज करेगी रुत! और रुत तो अपने दूल्हे को देख इतनी खुश कि विदाई के समय का रोना भी भूल गई। माँ हँस पड़ी – “अरे, शकुन के नाम पर तो सबके सामने रो दे रुत”
आज तीन साल बीत चुके हैं। उस रोज़ शकुन के नाम पर भी न रो पाने वाली रुत आज भी खुद को घर के किसी न किसी काम में व्यस्त रखकर किसी के सामने रोने नहीं देती। लेकिन घर वो नहीं जहाँ वह शादी कर गई थी, घर वो जहाँ से उसकी शादी हुई थी। शादी के तीन-चार महीने तक तो सबकुछ बहुत अच्छा रहा। बिल्कुल रुत की कल्पना जैसा, जैसा वह चाहती थी। उसकी गुड़ियों के घर जैसा ही उसका अपना एक छोटा-सा, सुन्दर-सा घर हुआ जिसको वह दिन-रात सजाती रहती। एक प्यारा-सा पति मिला जिसके लिए ख़ुद को सजाती रहती। पति के दोस्त, रिश्तेदार हुए जो यदा-कदा मिलने पर भी पति के नाम पर उसे छेड़ने का कोई मौका नहीं गँवाते और वह अपने गुलाबी गालों को आँचल से ढकती फिरती कि कोई उन्हें शर्म से लाल होते न देख ले।
कितनी अच्छी थी वह दुनिया। पति का नाम था रोशन जो अक्सर अपना सारा समय उसी के साथ बिताता। लेकिन कभी गायब होता तो दो-तीन दिनों के लिए गायब हो जाता। रुत अपने घर से बहुत कम बाहर निकलती थी। कुछेक रिश्तेदार उसके आसपास रहते थे पर अपने घर के कामों से ही फुरसत नहीं मिलती थी, क्या किसी और के यहाँ जाए। रुत पूरी तरह रमी थी अपनी गृहस्थी में, किसी की कोई चिंता नहीं, कोई परवाह नहीं। लेकिन जब रोशन के गायब होने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी और वो हफ्तों-हफ्तों के लिए गायब होने लगा तो रुत को चिंता हुई।
‘नौकरी ही ऐसी है’ – रोशन ने कहा था। लेकिन रुत का दिल घबराता। कहीं किसी और लड़की के साथ..........और रुत का दिल डूबने लगता। एक दिन बुआ आईं घर पर। बातचीत के दौरान रुत ने हिचकते-हिचकते उन्हें रोशन के हर दूसरे-तीसरे दिन गायब होने की बात बताई और उसकी ज़िन्दगी में किसी दूसरी लड़की के होने की अपनी आशंका भी सामने रखी। बुआ ने गंभीर होकर सुना और रुत को दिमाग से किसी और लड़की का वहम निकाल देने को कहते हुए आश्वासन दिया कि वे इसका पता ज़रूर लगाएँगी।
लेकिन न तो रोशन का गायब होना रुका और न ही बुआ का फिर कोई सन्देश आया। आजकल रोशन चिड़चिड़ा भी होने लगा। रात में भी कब आता पता नहीं चलता। अपने-आप में कुछ बड़बड़ाता रहता। रुत पूछती तो उसपर चिल्ला उठता। रुत सहम उठती।
उसकी दुनिया तो ये न थी। उसकी तो वही दुनिया थी जो उसने कभी अपनी गुड़ियों को दी थी, जो उसने कभी घर-घर में खेला था। वहाँ प्यार था, खुशी थी, अपनापन था, सुरक्षा थी। पर यहाँ तो ये सब कुछ धीरे-धीरे कर खत्म हो रहा था। और वह इसमें कुछ नहीं कर पा रही थी।
अभी तक उसने ये बातें अपने घर वालों से संकोचवश छिपा रखी थी। उसे डर था कि भइया पता चलने पर डाँटेंगे और कोई उपाय ढूँढने की बजाय कहेंगे ‘मैंने तो पहले ही मना किया था। अब सम्हालो खुद ही’। क्या करूँ क्या न करूँ इसी उधेड़बुन में एक शाम वह बाहर की सीढ़ियों पर बैठी थी कि उसने किसी को अपने घर की ओर आते देखा। वह कौन था, रुत नहीं जानती लेकिन जिसे वह अपने कन्धों का सहारा दिए ला रहा था वह रोशन था। रोशन ऐसी हालत में? वह लगभग घिसट रहा था। आँखें करीब-करीब बन्द थीं और बदन में मानो जान ही नहीं थी।
रुत घबरा गई। फटाफट दरवाज़ा खोला और रोशन को उस व्यक्ति की मदद से बिस्तर पर लिटाया। वह व्यक्ति उसके मुहल्ले में रहता था और ‘क्या हुआ’ पूछने पर उसका जो जवाब आया, उसे सुनकर रुत के पाँवों तले की ज़मीन खिसक गई।
‘लड़का बुरी आदतों का शिकार है’ – उसे शादी से पहले मिली उस गुमनाम चिट्ठी की याद आ गई।
मेरा रोशन चरस पीता है – उस रात वह बहुत रोई। सुबह उठी तो रोशन गायब था। बहुत हिम्मत करके वह उस बड़े नाले के पास गई जहाँ से कल शाम रोशन को मुहल्ले का वह आदमी उठाकर लाया था। बड़ा सा नाला, बड़े-बड़े पेड़ों से घिरा, काले पानी, आसपास लगे कई छोटे-छोटे पौधों और गन्दगी में मुँह मारते सुअरों से भरा, सुनसान। उसने एक-दो बार रोशन को आवाज़ दी पर कोई जवाब न सुनकर वापस आ गई। उस रात जब रोशन आया तो उससे उसकी पहली लड़ाई हुई जो फिर हर दिन की लड़ाई बन गई। हालांकि उसके बाद से रोशन हफ्तों गायब नहीं रहता बल्कि हर दूसरे-तीसरे दिन उसे कोई न कोई सहारा देकर नाले से घर तक पहुँचा रहा होता। रूनी अन्दर ही अन्दर टूटती रहती। उसके सपने के घरौंदे पर चरस के पौधे उग आए थे। आखिर उसने माँ को बताया। माँ घर आई। रोशन से बात की, लेकिन बातचीत में रोशन बहुत कम शब्द बोलता। हाँ, पर जब तक माँ रही रोशन ठीकठाक रहा। यह ज़रूर चाहता रहा कि माँ जल्दी चली जाए। और माँ जल्दी चली भी गई। यह उम्मीद कर कि अब रोशन सुधर गया लगता है। लेकिन ऐसा नहीं था।
रुत ने माँ को दुबारा बुलाना चाहा तो वह हिंसक हो उठा। चूल्हे की लकड़ी के निशान रुत के बदन पर करीब दस-पन्द्रह दिनों तक रहे। रुत रोती रही – हफ्तों। और जब आँसुओं का सैलाब थमा तो सामने उसने बड़े भइया को खड़ा पाया।
बड़े भइया को बहुत बाद में इस बात की खबर मिली और खबर मिलते ही वो रुत के यहाँ आ पहुँचे। तब आदतन रोशन घर पर नहीं था। रुत से बात कर उन्होंने उसके मोहल्ले वालों से बातचीत की। पता चला कि रोशन को चरस-गाँजे की आदत पहले से थी। इसी चक्कर में उसकी पढ़ाई छूट गई और नौकरी तो उसने कभी की ही नहीं। पुरखों की कमाई थी ही उड़ाने को। कुछ लोगों ने बताया, ‘पहले तो कहीं और जाता था, फिर अभी कुछ दिनों पहले से यहीं नाले के पास उसने अपना खुद का इंतज़ाम कर लिया। इस वज़ह से पहले वाली पार्टी से उसकी लड़ाई भी होती रहती थी। अब वहीं पड़ा रहता है दिन भर। हमें दिखता है तो हम उठा लाते हैं यहाँ।’
रुत को पता था बड़े भइया नाराज़ हैं। घरवालों से, बुआ से, रुत से, और ख़ुद से भी।
रोशन से मिलने का इंतज़ार किए बिना उन्होंने रुत को सामान बाँधने को कहा फिर बड़े नाले के पास जाकर देखा – रोशन सचमुच वहीं पड़ा था – भइया को देखकर उसने हिलने की कोशिश की पर हिल न सका। दो घंटे बाद की ट्रेन से रुत मायके आ गई।


आज भी रुत मायके में ही है। एक साल भी न चल सकी अपनी गृहस्थी को याद कर सपनों से भारी होने वाली पलकें अब आँसुओं से भारी हो चलती हैं। रुत उन्हें रोकने की कोशिश करती है पर अकेले में वे मानते नहीं – रोशन की तरह। बड़े भइया ने बहुत कोशिश की रुत को किसी इंस्टीट्यूट में दाखिला दिलाने की, पर रुत को अभी भी पढ़ाई पसन्द नहीं। वह अपनी माँ के घर को सजाने में व्यस्त है। पता नहीं व्यस्त है या ख़ुद को व्यस्त रखे हुए है। बहुत कम बोलती है। बोलती तभी है जब बड़े भइया दूसरी शादी की बात करते हैं। रोशन कभी दुबारा मुड़कर आया नहीं और इस वज़ह से उससे तलाक संभव नहीं हो पाया। रुत बोलती है कि जब तक एक से तलाक मिला नहीं तब तक दूसरे से शादी कैसे करूँ। बड़े भइया जानते हैं कि रुत अब न किसी से तलाक चाहती है और न किसी से शादी। वो उसकी आँखों में झाँकते हैं जिसमें उसने कभी अपने लिए गुड़िया जैसी शादी के सपने सजाए थे और चुपचाप उठ जाते हैं।

Monday, September 26, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 25 और 26)

Scene 25


तुरही बजती है। किले का मुख्य दरवाज़ा खुलता है। महाराज का रथ बाहर निकलता है, उनके रथ के बगल में चिंटू और काका का एक रथ निकलता है।
राजा (बाहर खड़े पहरेदारों से): “तुम दोनों इनके रथ के अगल-बगल इनकी रक्षा करने हेतु चलो” ये दोनों वही पहरेदार हैं जिनसे शुरु में चिंटू और काका की मुलाकत हुई थी। महाराज के कहने के अनुसार पहला पहरेदार चिंटू और दूसरा पहरेदार काका की साइड में जाकर खड़ा हो जाता है। चिंटू पहले पहरेदार को देखकर मुस्कुराता है।
चिंटू (पहले पहरेदार से): “क्यों भाईसाहब, भाले को अच्छी तरह से पकड़ा है न?”
पहरेदार चिंटू को देखता है और चौंक जाता है। पहरेदार: “तुम????”
चिंटू: “पहचान लिया?” – कहकर सामने देखने लग जाता है।


Scene 26
बढ़ई का घर छावनी बन गया है। बहुत सारे सैनिक खड़े हैं। झोंपड़ी के सामने ज़मीन पर राजा खड़े हैं। चिंटू और काका महाराज के दाएँ-बाएँ खड़े पहरेदारों के कन्धों पर बैठे हैं। राजा के सामने बढ़ई झुककर खड़ा थर-थर काँप रहा है।
बढ़ई (राजा के चरणों में गिरकर): “नहीं नहीं महाराज, मैं अभी-अभी तुरंत जाकर खूँटे को चीरता हूँ, आप सभी के सामने हे चीर देता हूँ......चलिए”
बढ़ई औजारों वाला झोला उठाता है। राजा, चिंटू और काका रथ पर सवार होते हैं। बढ़ई राजा के रथ के आगे-आगे चल रहा है। पीछे पूरी सेना चल रही है”
वो जगह आती है जहाँ खूँटा है। थोड़ी दूर पर रथ रुक जाता है। राजा, चिंटू और काका बढ़ई के साथ रथ से उतरकर खूँटे तक पैदल आते हैं। बढ़ई खूँटे के पास बैठता है। झोले में से आरी निकालता है। बढ़ई अभी भी काँप रहा है। खूँटा आँखें खोले सब देख रहा है और डर भी रहा है। मगर बोलता कुछ भी नहीं।
बढ़ई आरी को जैसे ही खूँटे पर रखता है वैसे ही खूँटा बोल उठता है – “हमको चीरो-उरो नहीं कोई, हम दाल निकालते हैं अब हीं”
बढ़ई: “चो~~~~~~प...आज तेरी वज़ह से महाराज के सामने मेरी पेशी हुई है, आज तो मैं तुझे छोड़ूंगा नहीं....चीरकर रख दूँगा” – कहकर आरी चलाता है।
खूँटा (गिड़गिड़ाता है): “नहीं-नहीं महाराज, मुझे बचा लीजिए...बचा लीजिए महाराज”
राजा: “रहने दो इसे” बढ़ई आरी हटा लेता है और पीछे खिसककर खड़ा हो जाता है।
राजा (खूँटे से): “दाल निकालो”
खूँटा: “जी” खूँटा आँखें बन्द करता है। अजीब-अजीब सी आवाज़ें निकालता है। कुछ देर के बाद ही उसमें से अचानक एक दाल का दाना निकलता है और छिटककर दूर जा गिरता है। चिंटू जल्दी से जाकर उसे उठा लेता है और बढ़ई के कन्धे पर जाकर बैठ जाता है। पूरी सेना में, महाराज सहित, खुशी की लहर दौड़ जाती है। सभी एक बार ‘महाराज की जय’ के नारे लगाते हैं। फिर चिंटू जोर से बोलता है।
चिंटू (जोर से): “हिप-हिप” सभी एक साथ: “हुर्रे~~~~~~”
तीन बार बोलते हैं। फिर राजा आगे बढ़कर चिंटू के पास आते हैं, उसकी पीठ थपथपाते हैं। फिर अपने सिपाहियों से कहते हैं।
राजा (सिपाहियों से): “चिंटू और और~~~~” – उन्हें काका का नाम नहीं पता इसलिए वे काका की ओर जिज्ञासु आँखों से देखते हैं। काका समझ जाता है और झुककर अपना नाम बताता है।
काका: “काका”
राजा: “हाँ, चिंटू और काका को परदेस ले जाने के लिए रथ का प्रबन्ध किया जाए और रथ को उपहारों से भर दिया जाए” चिंटू खुश हो जाता है पर काका बोल उठता है।
काका: “नहीं महाराज, रथ और उपहार हमें नहीं चाहिए”
चिंटू चौंक जाता है। राजा समेत उनकी पूरी सेना भी हैरान हो जाती है।
राजा (हैरानी से): “मगर क्यों?”
चिंटू (काका से): “हाँ क्यों? महाराज इतने शौक से दे रहे हैं तो हमें उनके उपहारों का सम्मान करना चाहिए। हम महाराज के सामने ऐसी हेकड़ी कैसे दिखा सकते हैं कि इतने प्यार से दिए गए उनके रथ व उपहारों को ठुकरा दें!” काका (राजा को देखकर, हाथ जोड़कर): “नहीं महाराज, इसमें हेठी दिखाने या ठुकराने जैसी कोई बात नहीं, हम तो आपके आभारी हैं कि आपने हमपर इतनी दया दिखाई”
राजा: “फिर क्या परेशानी है काका?”
काका: “दरअसल महाराज, मैं अपनी बहन के यहाँ किसी भी तरह के ताम-झाम के साथ नहीं जाना चाहता। मैं किसी की भी नज़रों में अपने और अपनी बहन के लिए ईर्ष्या का भाव पनपते नहीं देखना चाहता।”
राजा (थोड़ा मायूस होकर): “ठीक है काका, जैसा तुम चाहो”
चिंटू (काका से): “पापा, आर यू श्योर?”
काका ‘हाँ’ की मुद्रा में सर हिलाता है।
चिंटू: “पर डैडी, एक दो अशर्फी उठाने में क्या हर्ज़ है?”
काका: “नहीं चिंटू”
चिंटू (कन्धे उचकाते हुए): “ओ.के. ऐज़ यू विश”
काका: “तो महाराज, हमें विदा दें”
चिंटू: “जी महाराज, और महारानी को मेरा नमस्कार और धन्यवाद दोनों दे दीजिएगा! कहिएगा साँप से डरने की अब कोई ज़रूरत नहीं”
राजा: “ठीक है”
चिंटू और काका उड़ जाते हैं। सभी यहाँ से हाथ हिलाकर उन्हें ‘टाटा’ कहते हैं। बाय कहते हुए राजा कहता है।
राजा (हाथ हिलाते हुए): “कितना प्यारा तोता था! रानी को भी धन्यवाद कह गया (फिर अचानक उनका चिंटू के कहे हुए शब्दों पर ध्यान जाता है) पर ये साँप से डरने को क्यों मना कर गया?”
तब तक काका और चिंटू थोड़ी दूर चले जा चुके हैं। राजा यहीं से जोर से पूछ कर कहता है।
राजा (जोर से): “अरे चिंटू रुको! तुम्हारा धन्यवाद तो मैं दे दूँगा पर ये साँप बीच में कहाँ से आ गया”
चिंटू कुछ नहीं कहता सिर्फ कनखियों से पीछे मुडकर राजा को देखता है, फिर काका को देखता है और फिर स्क्रीन (कैमरे में) की ओर देखकर धीरे से मुस्कुरा देता है। बैकग्राउंड से चिंटू की आवाज़ आती है – “क्या लेकर परदेस जाएँ” – दोनों परदेस को उड़ जाते हैं।



समाप्त

Saturday, September 24, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 23 और 24)

Scene 23


रनिवास का दृश्य। पलंग पर रानी डरी-सहमी एक कोने में खड़ी है। उसकी सभी सेविकाएँ किसी न किसी चीज़ (ड्रेसिंग टेबल, सोफा वगैरह) पर जा चढ़ी हैं। रानी के पास वही साँप, जिसे चिंटू ढूँढ रहा था, फन फैलाए खड़ा है और बीच-बीच में फुफकार रहा है।
रानी (डरते-डरते): “म-मुझसे क्या चाहते हो तुम? क्यों मेरे सामने इस तरह से फन फैलाए फुफकार रहे हो? मुझे डर लग रहा है, अरे उतरो पलंग से...क्या हार्ट अटैक करवाओगे मेरा?”
साँप: “ना रानी हार्ट अटैक नहीं, तुम्हें सिर्फ याद दिलाना चाहता हूँ”
रानी: “क्या?”
साँप: “याद है रानी एक तोता तुम्हारे पास एक फरियाद लेकर आया था”
रानी: “हाँ-हाँ, याद है। वो नामुराद....”
साँप (बीच में बात काटते हुए): “उस नामुराद की बात तुमने उस वक्त नहीं मानी थी”
रानी: “अरे, वो मुझे राजा को छोड़ने को कह रहा था, नामुराद!”
साँप (कुटिल मुस्कान मुस्कते हुए): “अगर मैं तुमसे कहूँ कि मैं भी तुम्हें वही करने कह रहा हूँ तो?”
रानी डर से उसे देखती है। साँप उसे देखकर थोड़ा और मुस्कुराता है।

Scene 24
मेज पर एक कागज रखा जाता है। मेज राजा के सामने रखी है। राजा राजदरबार में बैठे हैं। मंत्रीगण भी साथ में हैं। राजा (कागज़ देखकर): “ये क्या है?”
राजा के सामने एक सिपाही खड़ा है। उसी ने मेज पर वह कागज़ रखा है।
सिपाही: “जी, डाइवोर्स पेपर्स”
राजा: “क्या?” – सिपाही को देखकर – “मगर हमने तुमसे विवाह कब किया?”
सिपाही: “जी, मैंने नहीं, ये तो महारानी ने भिजवाया है आपके पास”
राजा (रिलैक्स्ड होते हुए): “ओहो, अच्छा अच्छा (फिर अचानक चौंकते हुए) क्या कहा? रानी ने भिजवाया?”
सिपाही: “जी”
राजा (जैसे उसे विश्वास नहीं हो रहा हो): “क्या सचमुच??”
सिपाही: “जी महाराज”
राजा की आँखों में आँसू आ जाते हैं। वो प्रधानमंत्री की ओर कागज़ दिखाकर उनसे कहते हैं।
राजा (प्रधानमंत्री की ओर कागज़ दिखाकर): “मंत्रा जी देख रहे हैं आप....आप देख रहे हैं न! ये डिवोर्स पेपर रानी ने हमें भेजा है...रानी ने खुद हमें भेजा है”
मंत्री (दुखी होते हुए): “जी महाराज, देख रहा हूँ इस मनहूस कागज़ को”
राजा (आश्चर्य से): “मनहूस कागज़!!”
मंत्री (दुखी होकर): “जी”
राजा: “लॉटरी टिकट कहिए इसे मंत्री जी! दस करोड़ का लॉटरी टिकट!”
मंत्री (आश्चर्य से): “जी!!!!”
तबतक काका और चिंटू दरबार में आते हैं।
राजा (तलाक के कागज़ों को अपनी आँखों से लगाते हुए): “आप नहीं जानते मंत्री जी, इन पेपर्स को देखने के लिए मेरी आँखें तरस गई थीं। (भावुक होकर) मैं-मैं तो इस दिन की कल्पना भी नहीं कर सकता था! सच है, सच है दुनिया में देर है अन्धेर नहीं! (फिर सम्हलकर) बताओ, बताओ मुझे कहाँ हस्ताक्षर करना है। लाओ, कोई कलम लाओ.....सिपाही कलम लेकर आओ”
चिंटू (काका से): “यहाँ तो उल्टा ही मामला हो गया”
काका: “कुछ करो तुरंत” चिंटू जल्दी से महाराज के पास जाता है।
चिंटू: “ठहरिए महाराज!”
राजा (चौंककर): “कौन? कौन है?”
चिंटू: “सरकार, मुझ नाचीज़ को चिंटू कहते हैं। आप इस पेपर पर हस्ताक्षर न करें, महाराज”
राजा: “मगर क्यों?”
चिंटू राजा से पेपर लेने की कोशिश करता है मगर राजा कागज़ को जोर से अपने सीने से लगा लेता है। चिंटू ज़रा जोर लगाकर राजा से कागज़ छीन लेता है।
चिंटू: “महाराज, आप रानी को क्यों छोड़ना चाहते हैं? वो इतनी अच्छी हैं, माशाअल्लाह इतनी खूबसूरत हैं! इतनी सह्रदया, इतनी दयालु हैं!”
राजा: “दूर के ढोल सुहावने चिंटू, पास रहे वो ही जाने” – कहकर अपने दोनों हाथों से चेहरा ढककर राजा फूट-फूटकर रोने लगता है।
चिंटू: “नहीं-नहीं महाराज! रोइए मत। आप जैसे शूरवीर, महावीर, कर्मवीर, धर्मवीर, युद्धवीर (अटक जाता है) युद्धवीर (कुछ और शब्दों को याद करता है) हाँ, शुद्धवीर (याद कर-करके बोलता है) कालवीर, भक्तिवीर, शक्तिवीर और भी जाने कौन-कौन से वीर को ये रोना-धोना शोभा नहीं देता”
राजा आँखें फाड़-फाड़कर चिंटू को देखता है। फिर अपने आँसू पोंछता है।
राजा: “हाँ, तुम सही कह रहे हो”
चिंटू: “और फिर महाराज, आपको अपनी रानी को डिवोर्स देने पर अपनी आधी सम्पत्ति देनी पड़ जाएगी”
राजा (सोचते हुए): “हूँ~~~”
चिंटू: “सोचिए महाराज ज़रा सोचिए, आप अपनी आधी जायदाद को यूँ ही कैसे जाने दे सकते हैं! आप ऐसा नहीं कर सकते महाराज!”
राजा: “हाँ, मैं ऐसा नहीं कर सकता”
चिंटू: “आप नहीं कर सकते”
राजा: “मै नहीं कर सकता”
ये पंक्तियाँ इन दोनों द्वारा तीन बार ऐसे ही दुहराई जाती हैं फिर राजा को अचानक जैसे होश आता है।
राजा (चिंटू से): “मगर मैं क्या नहीं कर सकता? दुनिया में ऐसी कौन सी चीज है जो मैं नहीं कर सकता!”
चिंटू: “आप डिवोर्स नहीं दे सकते”
राजा: “मगर क्यों?”
चिंटू (अपने सर पर हाथ मारते हुए): “ओफ्फ महाराज! क्योंकि आपको अपना आधा राज्य रानी को देना पड़ जाएगा और अपने पुरखों की मेहनत से बनाए गए इस राज्य को आप यूँ हीं रानी को नहीं सौंप सकते”
राजा: “हाँ, तुम सही कह रहे हो”
चिंटू: “मगर रानी तो नहीं मानेंगी ऐसे”
राजा: “तो?”
चिंटू: “तो ये राजन् कि आप ये पता लगवाएँ कि रानी के इस डिवोर्स पेपर भेजने के पीछे कारण क्या है?”
राजा (सहमति में): “हाँ-हाँ (सिपाही को बुलाता है) सिपाही”
सिपाही: “जी महाराज”
राजा: “महारानी की मांग क्या है?”
सिपाही: “जी वो चाहती हैं कि आप बढ़ई को जाकर डाँटें, जिससे वह बढ़ई खूँटे को चीर कर उसमें से दाल निकाले जिसे लेकर ये दोनों तोते परदेस जा सकें”
राजा (गुस्से से चिंटू को देखकर): “ओहो तो ये तुम दोनों की करतूत है!”
चिंटू: “नही महाराज! हम तो रानी के पास गए भी नहीं। उन्हें ज़रूर उनकी सखी चंद्रलता ने ये बातें बताई होंगी। जब मेरे पिताजी दाल के दाने के लिए परेशान हो रहे थे तब वे उस पेड़ के नीचे हीं थीं। उन्होंने ज़रूर हम दोनों की बातें सुनी होंगी और रानी को जाकर बताया होगा। महारानी से हमारा दुख देखा नहीं गया होगा और उन्होंने हमारे दुख को दूर करने का ये तरीका अपना लिया होगा”
राजा ‘हूँ’ कहकर सोचने की मुद्रा बनाता है।
चिंटू (दुखी होने की ऐक्टिंग करते हुए)कहता है: “महाराज हमने आपको इतनी अच्छी सलाह दी और आप हमारे ही ऊपर शक कर रहे हैं”
राजा: “नहीं-नहीं ऐसा नहीं है (सिपाहियों से) रानी की मांग पूरी होगी और इन दोनों भले पक्षियों का दुख दूर किया जाएगा। तत्काल सेना तैयार की जाए। रथ मंगवाएँ जाएँ”
सिपाही (सर झुकाकर): “जी” – कहकर जाने लगता है।
राजा: “और सुनो” सिपाही रुक जाता है और महाराज की ओर आज्ञा लेने के लिए उनकी ओर मुड़कर खड़ा हो जाता है। राजा: “इन दोनों तोतों के लिए भी रथ तैयार करवाएँ जाएँ, इसने हमें आज यह अहसास करवाया कि हमारी रानी कितनी दयालु हैं और इनकी वज़ह से आज मैं अपने आधे राज्य को खोने से भी बच गया। रथ तैयार करवाएँ जाएँ”
सिपाही: “जी महाराज” - कहकर चला जाता है।
चिंटू काका को मुस्कुराकर देखता है। काका थोड़ा घबराए हुए चेहरे से उसे देखता है। चिंटू उसे इशारे से चिंता न करने की सलाह देता है।



क्रमश:

Saturday, September 17, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 21 और 22)

Scene 21


पूरे नगर में आग फैलती हुई आगे बढ़ रही है। मकानों, प्राणियों और पेड़ों को छोड़कर पूरी ज़मीन पर आग फैलती जा रही है। सभी लोग डरकर इधर-उधर भाग रहे हैं। हाहाकार मचा हुआ है। धुएँ और आग के सिवा कुछ भी ठीक से नहीं दिख रहा। आग चारों ओर यही कहते हुए तेज़ी से आगे बढ़ रही है – “कहाँ है लाठी? पहलवान की लाठी कहाँ है? आज हम उसे जलाकर राख कर देंगे, कहाँ है??”
चिंटू और काका भी साथ-साथ ऊपर उड़ रहे हैं। अचानक चिंटू की नज़र लाठी पर पड़ती है। लाठी भी बाकी के भागते हुए लोगों के साथ भागा जा रहा है। चिंटू लाठी की ओर उंगली दिखाता है और आग से कहता है।
चिंटू: “वो रहा”
आग उधर देखता है जिधर चिंटू ने बताया था और लाठी को देख लेता है। आग अपनी एक लपट को आगे बढ़ाकर लाठी को घेर लेता है।
लाठी (गिड़गिड़ाते हुए और गरमी से बचने के लिए उसी घेरे में इधर-उधर भागते हुए, इस बीच उसकी मूँछ नीचे की ओर लटक जाती है): “नहीं-नहीं मुझे मत जलाओ। मैं जीते-जी नहीं जलना चाहता, अभी मेरी उम्र ही क्या हुई है! इसे हटाओ, हटाओ वरना मैं जल जाऊँगा, मेरी सूरत खराब हो जाएगी, मेरी मूँछे जल जाएँगी। अरे, अभी तो मैंने दुनिया देखनी शुरु ही की है! क्यों अभी से मेरी चिता तैयार कर रहे हो?”
चिंटू (लाठी से): “दुनिया देखनी शुरु की है तो इस दुनिया में साँप को भी कहीं न कहीं देखा ही होगा?”
लाठी (चिंटू की ओर देखता है): “अरे तुम? तुम्हें तो मैंने कहीं देखा है”
चिंटू: “हाँ, मैं जानता हूँ। पहले ये बताओ साँप को देखा है?”
लाठी: “हाँ-हाँ देखा है”
चिंटू: “तो तुम्हें साँप को ज़रा परलोक दिखाना है”
लाठी: “अरे, किसी ने पहले भी ये बात मुझसे कही है”
चिंटू: “वो छोड़ो, पहले ये बताओ तैयार हो?”
लाठी: “मगर क्यों, उसे मैं परलोक क्यों दिखाऊँ?”
चिंटू: “चिता देखी है?”
लाठी: “हाँ”
चिंटू: “उसमें खुद को देखना है?”
लाठी: “न-न-नहीं”
चिंटू: “तो साँप को परलोक दिखाना होगा”
लाठी: “ठ-ठ-ठीक है पर पहले इसे (आग को छूता है) आ~~~~~ई~~~~~ (चिल्लाता है) इसे हटाओ”
आग धीरे-धीरे हटती है। लाठी जल्दी से उसके घेरे से बाहर निकलता है। अपनी मूछें छूता है जो नीचे की ओर हो गई हैं उसे वापस ऊपर उठाता है और आग को धीरे-धीरे वापस जाते देखता रहता है।



Scene 22


लाठी (गुस्से से): “कहाँ है साँप? आज मैं उसकी ताकत मापने आया हूँ, कहाँ है बुलाओ उसे”
मदारी की झोंपड़ी। सामने कई साँप लेटे पड़े हुए हैं, कई डिबियाँ खुली हुई हैं। लाठी की ललकार सुन वे सभी जल्दी-जल्दी आनन-फानन में खुली डिबियों में घुस जाते हैं और ऊपर से ढक्कन लगाकर उसमें से झाँकते हैं।
लाठी, चिंटू और काका वहाँ आते हैं। चिंटू और काका झोंपड़ी की खुली खिड़की पर बैठते हैं। चिंटू काका से कहता है।
चिंटू (काका से): “आज तो लाठी और साँप की बढ़िया सी लड़ाई देखने को मिलेगी बापू”
काका (डाँटते हुए): “चुप कर”
लाठी - “कहाँ है, कहाँ है साँप” कहता हुआ इधर-उधर उस साँप को ढूँढ रहा है। फिर वह एक डिबिया के पास आता है, उसके नज़दीक झुकता है। उसमें बैठी साँपिन, जिसने एक बड़ी सी लाल बिन्दी लगा रखी है, ‘उई माँ’ कहकर उद डिबिया में बैठे बाकी के साँपों के बीच दुबक जाती है। लाठी जब ये देखता है कि साँप उससे डर रहे हैं तो उसकी हिम्मत बढ़ती है और वह उस डिबिया में मुँह घुसा लेता है।
लाठी (डिबिया में मुँह घुसाकर दहाड़ता है): “कहाँ है साँप?”
किसी और डिबिया से एक साँप की हकलाती हुई, धीमी आवाज़ आती है: “अ-आप नन्दू साँप को ढ-ढूँढ रहे हैं क-क्या?”
लाठी (उसी डिबिया में मुँह घुसाए-घुसाए): “नन्दू हो या चन्दू, हमें इससे कोई मतलब नहीं। हमें बस साँप चाहिए, वो साँप हमें दे दो, दे दो हमें वो साँप”
वही साँप (जल्दी से): “जी सर वो तो रानी को डसने गया है”
चिंटू (आश्चर्य से): “क्या??”
वही साँप: “जी, उसे ये ख़बर हो गई थी कि आप पहलवान जी के इन लाठी महाराज के साथ आ रहे हैं तो...”
चिंटू (खुश होते हुए): “वाह! यहाँ तो ऐसे ही काम हो गया!”

क्रमश:

Thursday, September 15, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 19 और 20)

Scene 19


हाथियों का बड़ा विशाल झुंड निकलता है जिसमें नेता हाथी सबसे आगे चल रहा है, उसके मुरेठे (पगड़ी) पर काका और चिंटू बैठे हैं। चलते-चलते वे समुन्दर के तट पर पहुँचते हैं और समुन्दर में घुसकर खूब धमा-चौकड़ी मचाते हैं। फिर सभी मिलकर समुन्दर का पानी पीना शुरु कर देते हैं। सागर का पानी बड़ी जल्दी-जल्दी घटने लगता है। तभी समुन्दर से बड़ी-बड़ी लहरें उठने शुरु हो जाती हैं और उसमें से आवाज़ आती है।
समुन्दर: “अरे-अरे तुम सब ये क्या कर रहे हो? इस तरह तो मैं सूख जाऊँगा”
चिंटू (जोर से): “वही तो हम कर रहे हैं”
समुन्दर: “मगर क्यों? मैंने ऐसी क्या गलती कर दी?”
चिंटू: “आपने हमारी बात नहीं मानी थी”
समुन्दर: “कौन सी बात?”
चिंटू: “आग को बुझाने की बात”
समुन्दर: “आग? कौन सी आग? कैसी आग? मुझे कुछ याद नहीं आ रहा”
चिंटू: “अभी याद आ जाएगा जब आपमें एक तालाब भर पानी रह जाएगा”
समुन्दर: “अरे रुको-रुको.....अरे रोको कोई इन्हें”
चिंटू: “यहाँ आपकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं सिन्धु महाराज! आपके पास बचने का केवल एक ही तरीका है और आप बखूबी जानते हैं कि वो क्या है”
समुन्दर: “अच्छा-अच्छा, ठीक है। मैं तैयार हूँ-तैयार हूँ...अब तो रोको”
चिंटू: “ठीक है”
चिंटू एक सीटी बजाता है। सभी हाथी एकसाथ चिंटू को देखते हैं।
चिंटू: “मौज-मस्ती खत्म। आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद। अब आप सभी अपने गंतव्य स्थल पर जा सकते हैं” सभी हाथी समुन्दर से निकलकर चले जाते हैं।
समुन्दर: “मैं आग को बुझाने से पहले एकबार यहीं से उनसे बात करना चाहता हूँ”
चिंटू: “ठीक है”
समुन्दर (जोर से, काफी गंभीर-गूँजती हुई आवाज़ में): “अग्नि देव नमस्कार, मैं सिंधु बोल रहा हूँ”
बैकग्राउंड से आग की आवाज़: “नमस्कार सिन्धु महाराज!”
समुन्दर: “मैं आ रहा हूँ आपके पास”
आग: “हमारे पास? मगर कारण?”
समुन्दर: “आपकी इच्छा पूर्ति करने.....आपको बुझाने”
आग: “हमारी इच्छा पूर्ति? हमें बुझाने!!”
समुन्दर: “जी”
आग: “मगर हमारी ऐसी इच्छा कब हुई?”
समुन्दर: “क्यों? आपने संदेसा नहीं भेजा?”
चिंटू आग का जवाब देने से पहले ही बोल पड़ता है।
चिंटू (जोर से): “तो अग्नि देवता, इसका मतलब आप बुझना नहीं चाहते”
आग: “नहीं, हम भला क्यों....?”
चिंटू (बीच में ही): “तो आपको उस तोते की बात मंज़ूर है?”
आग: “कौन से तोते की बात?”
चिंटू: “वो मैं आपको आकर बताता हूँ। पहले वादा कीजिए कि आपके पास जो तोता आ रहा है आप उसकी इच्छा पूरी करेंगे”
आग: “कौन सी इच्छा? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, ये कौन बोल रहा है?”
चिंटू: “वो मैं अभी आकर आपको समझा देता हूँ, आप पहले वादा तो कीजिए कि आप उस तुच्छ छोटे से तोते की इच्छा पूरी करेंगे”
आग (सोचते हुए, थोड़े से कंफ्यूज़्ड): “अ....ठीक है, हम प्रतिज्ञा करते हैं”
चिंटू: “धन्यवाद, मैं आ रहा हूँ (समुन्दर की ओर देखकर) आप अब आराम करें” चिंटू उड़ चलता है। पीछे-पीछे काका भी उड़ चलता है।


Scene 20
आग जल रही है। सामने चिंटू और काका खड़े हैं।
आग (चिंटू को देखकर): “ओहो, तो तुम हो!”


चिंटू: “जी”
आग: “क्या लाठी सचमुच यहाँ नहीं आ सकती? क्या हमें ही उसतक चलकर जाना पड़ेगा? हम जो यहाँ से वहाँ तक फैले हैं....हम जिसकी....” आग अपनी गौरव-गाथा का फिर से बखान करना शुरु करता ही है कि चिंटू बीच में ही टोक देता है।
चिंटू (बीच में ही): “जी अग्नि देव, आप ही, आप ही को वहाँ तक चलकर जाना होगा, लेकिन एक बात का ध्यान रहे कि आपकी लपेट में उस लाठी के अलावा और कोई न आए”
आग (थकी-हारी सी आवाज़ में): “मंज़ूर....चलो”

क्रमश:

Tuesday, September 13, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 17 और 18)

Scene 17


रात का अन्धेरा। आकाश में तारे टिमटिमा रहे हैं। सभी हाथी इधर-उधर लेटे खर्राटे ले रहे हैं। बीच-बीच में कोई हाथी करवट बदलता है। जाल पेड़ की एक डाल पर लटका सो रहा है, उसी पर बैठा-बैठा काका भी सो रहा है। चिंटू नीचे एक हाथी के पेट पर सो रहा है। अचानक हाथी करवट लेता है और चिंटू उसके नीचे दब जाता है। चिंटू ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाता है लेकिन किसी पर कोई असर नहीं होता, सभी गहरी नींद में हैं। एक-दो बार वह और चिल्लाता है पर जब फिर भी किसी को सुनाई नहीं पड़ता तब वह अपनी चोंच से उस हाथी को काट खाता है। हाथी हड़बड़ाकर उठ खड़ा होता है। जल्दबाज़ी में हाथी किसी और हाथी की पूँछ पर खड़ा हो जाता है जिससे वह दूसरा हाथी भी हड़बड़ाकर उठ खड़ा होता है लेकिन वह भी जल्दबाज़ी में किसी और की पूँछ पर अपना पाँव रख देता है। ऐसे ही छ: हाथी उठ खड़े होते हैं और आपस में लड़ने लगते हैं। चिंटू धरती में दबा-दबा ज़ोर से उन्हें पुकारता है।
चिंटू (जोर से): “अरे भाई, लड़ो मत” किसी को उसकी आवाज़ नहीं सुनाई देती। वह फिर चिल्लाता है: “अरे, पहले मुझे यहाँ से निकालो! सुनो तो मेरी आवाज़!”
सभी हाथी चौंककर इधर-उधर देखने लगते हैं कि ये आवाज़ कहाँ से आई। एक हथिनी की नज़र ज़मीन में धँसे चिंटू पर पड़ती है और वह डर के मारे ‘उई माँ’ कहती है और उछलकर किसी और हाथी की गोद में चढ़ जाती है। वह हाथी लड़खड़ाता है फिर सम्हल जाता है। सभी हाथी चिंटू को देखते हैं। तभी वह हाथी, जिसपर चिंटू सोया था, चिंटू को पहचान लेता है और कहता है।
हाथी: “अरे ये तो...”
चिंटू (बीच में ही): “हाँ, मैं हूँ। अब इस तरह आँखें फाड़-फाड़ कर मत देखो मुझे एम्बैरेसमेंट हो रही है। अपनी सूंड लाओ इधर।”
वह हाथी अपनी सूंड चिंटू के पास ले जाता है। चिंटू बड़ी मुश्किल से अपने पंखों को खींचतान कर बाहर निकालता है, सूंड पकड़ता है और फिर पूरी तरह से धँसे हुए अपने शरीर को किसी तरह बाहर निकालता है। वह पूरी तरह से पिचक गया है। बाहर निकलकर वह उसी हाथी को झिड़कता है जिसपर वह सोया था।
चिंटू (झिड़कते हुए): “बड़े अजीब तरीके से सोते हो तुमलोग यार!!”
वह हाथी (मासूमियत से): “मैंने क्या किया?”
चिंटू: “क्या किया? देखा नहीं? मुझे आधा पाताल में पहुँचाकर पूछते हो क्या किया? वो तो मैं था जिसने अपने-आपको खींचकर बाहर निकाल लिया वरना पता है अन्दर के लोग मेरी टांग पकड़कर अपनी ओर खींच रहे थे!”
वह हाथी: “सॉरी...मैंने जानबूझकर नहीं किया”
चिंटू: “ठीक है-ठीक है लेकिन अभी सम्हलकर सोना, ओ.के.?”
वह हाथी सहमति में सर हिलाता है और कहता है: “ओ.के.” सभी हाथी धीरे-धीरे सोने चले जाते हैं। चिंटू गहरी साँस लेकर अपने पिचके शरीर को फुलाता है।
चिंटू (उसी हाथी पर फिर चढ़ते हुए): “कैसे-कैसे लापरवाह लोग होते हैं! या अल्लाह, रहम कर” आँखें बन्द करता है, फिर जैसे अचानक कुछ याद आता है, आँखें खोलता है और जल्दी से बोलता है।
चिंटू: “मेरे ऊपर, ये नहीं कि किसी और के ऊपर कर दिया रहम, हाँ!” सो जाता है।

Scene 18
बिल्कुल सुबह का समय। चिंटू की नींद खुलती है। अंगड़ाई लेता है। फिर हर किसी के पास जा-जाकर ‘चलो भाई, उठो भाई। समुन्दर पीने चलना है” कहकर उन्हें उठाता है। इधर काका और जाल की नींद भी टूटती है। तीनों मिलकर बाकी बचे सोते हुए हाथियों को उठाते हैं। नेता हाथी दूर से ही चिंटू से कहता है।
नेता हाथी (चिंटू से): “मगर पहले नहा-वहाँ लें तब चलेंगे”


चिंटू: “अरे दादा, अब नहाना-वहाना वहीं समुन्दर में”
जाल: “अच्छा, अब अपुन का कोई काम नहीं। अपुन जा रेला है”
चिंटू: “हाँ भाई तू जा, जा” जाल चला जाता है।

क्रमश:

Monday, September 5, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 15 और 16)

Scene 15


काका, चिंटू और चूहा तीनों वहीं आते हैं जहाँ जाल रस्सी पर टँगा है। तीनों उसी जाल के पास आते हैं जिससे पहले मिल चुके थे। जाल उन्हें देखता है। जैसे ही उसकी नज़र चूहे पर पड़ती है वैसे ही वह उछल पड़ता है।
जाल (चूहे को देखकर चिंटू से कहता है): “अबे तू ये क्या उठा लाया? इस दँतनिकले को मुझसे दूर ही रखियो (चूहे को) चल भाग यहाँ से...भाग!”
चूहा: “चला जाऊँगा – चला जाऊँगा भइया, दरअसल मेरी दाँतों में ज़रा खुजली हो रही है”
जाल (पैनिक होकर): “तेरे दाँतों में खुजली हो रही है तो मैं क्या करूँ? मैं कोई खुजली की दवा हूँ क्या?”
चूहा: “हें-हें कुछ ऐसा ही समझ लो” – कहकर चूहा करीब आता है।
जाल ‘ए-ए’ कहकर चूहे से दूर हटता है।
चिंटू (जाल से): “अभी भी वक्त है जाल भाई, इसकी खुजली की दवा बनना है या गजराज को फँसाना है, सोच लो” जाल: “चल कहाँ चलना है, सोच लिया”
चूहा (खुश होकर, चिंटू से): “तो अब मैं जाऊँ?”
चिंटू: “हाँ भाई, तुम जाओ। फिर कभी ज़रूरत होगी तो आऊँगा.........या ऐसे भी मिलने आता रहूँगा”
चूहा: “हाँ-हाँ, बिल्कुल-बिल्कुल, जब मरजी हो आना लेकिन ज़रा अकेले हें-हें-हें”
चिंटू: “आपकी कृपा बनी रही तो तो अकेले ही आऊँगा”
काका (चिंटू से, मुस्कुराते हुए): “तो चलें गजराज के पास?”
चिंटू: “हाँ-हाँ नेक काम में भला देर किस बात की! क्यों जाल भइया?”
जाल कुछ नहीं कहता, बस बेमन से ‘चल’ कहता है।


Scene 15
हाथियों का समुदाय अभी भी वहीं नदी किनारे पड़ा है। रात होने वाली है इसलिए कुछ हाथी मोमबत्ती और लालटेन जला रहे हैं। कुछ हथिनियाँ स्टोव पर खाना बना रही हैं। कुछ बच्चे सो रहे हैं, कुछ चुपचाप बैठे हैं। अन्धेरा नहीं है पर रौशनी भी बहुत कम है। सबसे किनारे नेता हाथी बैठा है। सामने चिंटू, काका और जाल हैं।
नेता हाथी (गिड़गिड़ाते हुए): “देखो भाई, मैं आज़ादी पसन्द आत्मा हूँ। मुझे यूँ जाल में जकड़ दोगे तो मैं तो जीते-जी मर जाऊँगा। भगवान के लिए ऐसा मत करो”
चिंटू: “आज़ादी इतनी पसन्द है तो इसे बचाने के लिए थोड़ी मेहनत तो करनी पड़ेगी दादा”
नेता हाथी: “क्या करना है?”
चिंटू: “समुन्दर सुखाना है”
नेता हाथी (चौंककर): “क्या कहा? समुन्दर!! तुम्हें पता भी है कि समुन्दर कितना बड़ा होता है? मैं अकेला भला उसे कैसे सुखा सकता हूँ?”
काका: “तुम अकेले कहाँ हो भाई, पूरी फ़ौज़ है तुम्हारे साथ” – कहकर हाथियों के समूह की ओर हाथ दिखाता है।
नेता हाथी उन हाथियों की ओर देखता है। थोड़ी दूर चुप रहता है फिर चिंटू को देखकर कहता है।
नेता हाथी: “मुझे सबसे एकबार पूछना होगा”
चिंटू: “ठीक है, आप मीटिंग कर लें। तब तक हम भी थोड़ा सुस्ता लें” – कहकर चिंटू जम्हाई लेता है।
जाल: “लेकिन अपुन इतनी देर तक नहीं ठहरने वाला, या तो कहो तो अपना काम शुरु करूँ या फिर यहाँ से खिसकूँ” – कहकर खड़ा हो जाता है।
चिंटू (जाल को देखते हुए काका से कहता है): “पापा, उस चूहे के दाँत काफी बड़े थे न!” काका मुस्कुरा देता है।
जाल (वापस बैठते हुए): “अच्छा-अच्छा, ठीक है (नेता हाथी से) लेकिन मीटिंग ज़रा छोटी रखना”
नेता हाथी उन सभी हाथियों के बीच जाता है। यहाँ से काका, चिंटू और जाल बैठे उसे देख रहे हैं। नेता हाथी अपनी सूंड उठाकर ‘फुर्रर्रर्रर्रर्रर्रर्र’ की आवाज़ निकालता है। सभी हाथी एकबार उसकी ओर देखते हैं। नेता हाथी वहाँ एक टीले पर बैठ जाता है। सभी हाथी जल्दी-जल्दी उसके इर्द-गिर्द बैठ जाते हैं। उनमें सूंड उठा-उठाकर काफी देर तक बहस चलती है। इस बीच चिंटू सो जाता है।
कुछ देर बाद नेता हाथी वापस आता है। काका चिंटू को उठाता है।
नेता हाथी: “चलो ठीक है, हम सभी तैयार हैं। पर अभी नहीं। अभी तुमलोग भी थक गए होगे, आराम से खाओ-पीओ और गहरी नींद सोओ। कल सुबह-सुबह हम सभी चलेंगे”
जाल: “खाना-पीना अच्छा कराना और अल्लसुबह ही चले देना और रात भर में कोई गड़बड़-घोटाला नहीं करने का”
नेता हाथी: “ठीक है, चलो। खाना तैयार है।”
चिंटू: “हा: हा: इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के दाम!”
सभी एक चट्टान पर बैठते हैं। उन तीनों के सामने बड़े से केले के पत्ते में पूरी, सब्ज़ी, हलवा, पकौड़े परोसा जाता है। तीनों खाने पर टूट पड़ते हैं।
चिंटू: “पापा, क्या हमें अंत में आइसक्रीम मिलेगी या फिर इस बगीचे के आम मिलेंगे?”
काका: “जो मिल रहा है चुपचाप खा लो, ज़्यादा फरमाइश कर दी तो आम क्या आम की गुठलियों के दाम भी नहीं मिलेंगे। ऊपर से ये हमारी ही गुठलियाँ निकाल लेंगे”


क्रमश:

Wednesday, August 24, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 14)

Scene 14


चिंटू, काका और बिल्ली तीनों वापस उसी गोदाम में खड़े हैं जहाँ वे चूहे से मिले थे।
चिंटू (चूहे को पुकारता है): “हाँ जी भइया, चूहे भाई!”
चूहा हाथ मलते और खींसे निपोरते हुए बोरियों के पीछे से बाहर आता है। लेकिन बाहर आकर बिल्ली को देखते ही उसके होश उड़ जाते हैं। वह वहीं जड़ हो जाता है। बिल्ली उसकी ओर एक कदम आगे बढ़ती है। चूहे को होश आता है। तुरंत चिंटू से पूछता है।
चूहा (चिंटू से): “अरे भइया, जाल कहाँ है?”
चिंटू: “जाल भी ले आएँगे, पहले ज़रा दाँतों को तो तेज़ करवा लो”
चूहा (हकलाते हुए): “दाँत? हाँ-हाँ, वो-वो दाँत तो मैंने खुद ही तेज़ करवा लिया। चलो, जाल के पास चलो....चलो” – कहकर चूहा बाहर की ओर भागना चाहता है लेकिन बिल्ली रास्ता रोक लेती है।
बिल्ली: “अरे मियाँ! कहाँ भागे चले जा रहे हो? ज़रा हमसे भी तो मिलते जाओ!”
चूहा: “अह: ह: मौसी अभी मैं ज़रा जल्दी में हूँ। लौट के आता हूँ तो बात होगी, ठीक है?” – कहकर चूहा आगे बढ़ता है लेकिन बिल्ली अपना एक पंजा उसकी पूँछ पर रख देती है।
बिल्ली: “इतनी जल्दी भी क्या है? इतने दिनों बाद मिले हो...जाने कैसे दे सकती हूँ!”
चूहा (हाथ जोड़कर चिंटू से): “अरे भइया, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?”
चिंटू: “तो तैयार हो जाल काटने को?”
चूहा: “अरे जनम भर!”
चिंटू: “तो ठीक है...मौसी छोड़ दो इसे”
बिल्ली (चौंकते हुए): “क्या? क्या कह रहे हो? हाथ आए शिकार को छोड़ दूँ, वो भी चूहे को?”
चिंटू: “लेकिन अब तो ये जाल काटने को राज़ी हो गया है न!”
बिल्ली: “कौन सा जाल? कहाँ का जाल? मैं कोई जाल-वाल नहीं जानती। क्या मैं इतनी दूर इसे छोड़ देने को आई थी? नहीं, अब ये मेरे हाथों नहीं बच सकता। वरना मैं वापस अपनी सोसाइटी में जाकर क्या मुँह दिखाऊँगी?”
चिंटू (काका को धीरे से): “अरे बापी.....ये तो गड़बड़ हो गई!!”
काका: “हाँ सो तो हो गई, पर अब क्या करें?”
चिंटू: “तुम चूहे को पकड़कर उड़ सकते हो?”
काका सोचता है – “अ~~~~~”
चिंटू: “पापा, अभी सोचने का टाइम नहीं है। बना हुआ काम बिगड़ रहा है”
काका: “हाँ, उड़ सकता हूँ”
चिंटू: “फिर ठीक है, मैं बिल्ली रानी का ध्यान बँटाता हूँ। आप उसे लेकर उड़ जाइएगा”
चिंटू बिल्ली के सामने आता है।
चिंटू: “अरे मौसी, ओ मौसी”
बिल्ली चिंटू की ओर देखती है।
चिंटू: “तुम मेरी मौसी हो न?”
बिल्ली: “हाँ हूँ, सभी की हूँ”
चिंटू: “सबकी छोड़ो। मेरी हो या नहीं ये बताओ”
चूहा (चिंटू से): “अरे तुम्हें अपनी मौसी की पड़ी है, यहाँ मेरी जान जाने वाली है!”
बिल्ली चूहे पर ध्यान नहीं देती और चिंटू से कहती है।
बिल्ली (चिंटू से): “हाँ, तुम्हारी भी हूँ”
चिंटू: “तो तुम्हारी शक्ल मेरी माँ की शक्ल से क्यों नहीं मिलती है? नहीं मिलती न?”
बिल्ली: “नहीं, नहीं मिलती”
चिंटू: “क्यों?”
बिल्ली: “पता नहीं, ये तो मैंने सोचा ही नहीं”
चिंटू: “सोचो मौसी सोचो....मेरी माँ की और तुम्हारी शक्ल क्यों नहीं मिलती”
बिल्ली सोच में पड़ जाती है और उसके पंजे की पकड़ थोड़ी सी ढीली पड़ जाती है। चिंटू काका को इशारा करता है। काका धीरे से चूहे को अपने पंजों से पकड़ता है। चूहा चौंक जाता है। काका उसे इशारे से चुप रहने को कहता है।
बिल्ली अभी भी सोच रही है, उसका ध्यान काका और चूहे पर नहीं जाता। काका चूहे को लेकर धीरे से उड़ने की कोशिश करता है लेकिन चूहे की पूँछ अभी भी बिल्ली के पंजे के नीचे है इसलिए उड़ नहीं पाता।
चूहा धीरे से बिल्ली के पंजे के नीचे से अपनी पूँछ खींचता है। बिल्ली सोच में डूबी हुई है इसलिए उसका इन हरकतों पर ध्यान नहीं जाता। काका चूहे को लेकर बिल्ली के पीछे से उड़ जाता है। चिंटू भी धीरे से वहाँ से खिसक जाता है।
बिल्ली को पता नहीं चल पाता और वह अंत तक सोचती रहती है।


Thursday, August 18, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 12 और 13)

Scene 12


एक किराने की दुकान की गोदाम। कई बोरियाँ रखी हुईं हैं। उसमें एक भद्दा सा गन्दा चूहा छेद कर रहा है। तभी बगल में एक चुहिया आती है जिसने कानों में बालियाँ और पाँवों में पायल पहन रखी है। इन दोनों के कपड़े फटे-पुराने, पैबन्द लगे हैं।
चुहिया (चूहे से): “सुनो”
चूहा नहीं सुनता, काम में लगा रहता है।
चुहिया (ज़ोर से): “अरे सुनते हो? कोई हमसे मिलने आया है”
चूहा (काम छोड़कर): “हमसे?”
चुहिया (बेरुखी से): “हाँ”
चूहा: “कहाँ”
चुहिया हाथ से पीछे की ओर इशारा करती है। चूहा उधर देखता है। काका और चिंटू एक छोटी सी बोरी पर बैठे हैं।
चूहा(उन्हें देखकर, दोनों हाथ मलते हुए): “हीं-हीं-हीं-हीं-हीं.........हमसे मिलने आए हैं?......जी कहिए?”
चिंटू (आदेशात्मक लहज़े में): “चूहा-चूहा तुम जाल काटो, जाल न गजराज फँसावे, गजराज न समुन्दर सोखे, समुन्दर न आग बुझाए, आग न लाठी जलाए, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
चूहा (वैसे ही हाथ मलते हुए): “हें-हें-हें...वो तो ठीक है हम जाल को काट देंगे पर....”
काका: “पर क्या?”
चूहा: “आप तो देख ही रहे होंगे, जब आप आए थे तब मैं इस बोरे को काट रहा था। लेकिन देखिए उतनी देर तक काटने का फल.....कुल एक मिलीमीटर भी नहीं काट पाया”
चिंटू: “पर ये तो काफी कटा हुआ है”
चूहा (घबराकर): “अ..हाँ लेकिन...दरअसल...वो..इतना तो पहले से ही कटा हुआ था। मैं तो इसे थोड़ा भी नहीं काट पाया”
चिंटू: “अच्छा-अच्छा, तो तुम ये कह रहे हो कि तुम जाल नहीं काट पाओगे”
चूहा: “अब~~ इन दाँतों के साथ तो नहीं काट पाउँगा। क्या है कि बहुत दिनों से दाँतों को पैना नहीं करवाया, धार खत्म हो चली है इनकी। अगर आपकी कुछ मेहरबानी हो सकती तो मैं इन्हें तेज़ करवा लेता। क्या है कि जब बोरे काटने में इतनी परेशानी है तो जाल काटने में तो.....हें-हें...आप समझ ही सकते हैं.....कुछ मिल जाता तो..हें-हें-हें”
चिंटू: “तो तुम्हें धार पैनी करवानी है”
चूहा: “हें-हें-हें-हें”
चिंटू: “ठीक है! हम अभी इंतज़ाम करते हैं। तुम यहीं ठहरना, बिल्कुल यहीं। हम अभी आ रहे हैं”
काका को चलने का इशारा करता है और उड़ता है। चूहा हें-हें करता हुआ हाथ मलता उन्हें उड़ते जाते देखता है।



Scene 13
“Whew! क्या कहा तुमने ज़रा दुबारा कहना!” – कहकर एक मोटी सी बिल्ली एक घर के छज्जे पर से कूदकर नीचे आती है। नीचे खूब सारे गमले रखे हैं। वहीं काका और चिंटू खड़े हैं।
चिंटू: “जी...जो कहा वही कहा”
बिल्ली: “नहीं-नहीं, ज़रा दुबारा कहो। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा। ज़रा उसी लय में, उसी ताल में, वही सुर, वही शब्द! आहा-हा क्या शब्द थे, वही शब्द ज़रा फिर से दुहराना!!”
चिंटू: “बिल्ली-बिल्ली तुम चूहा खाओ, चूहा न जाल काटे, जाल न गजराज फँसावे, गजराज न समुन्दर सोखे, समुन्दर न आग बुझाए, आग न लाठी जलाए, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
बिल्ली: “हाय दइया! ये मैं क्या सुन रही हूँ! कान ऐसी बात सुनने को तरस गए थे! चूहा – यह शब्द ही कितना रसदार है.........चूहे!” – कहकर मानो ‘चूहे’ शब्द में खो जाती है। फिर तुरंत सम्हलकर पूछती है।
बिल्ली: “हाँ तो बोलो, कब चलना है?”
तबतक घर के भीतर से ऐनक लगाए एक बूढ़ी बिल्ली आती है।
बूढ़ी बिल्ली (घर से बाहर निकलते हुए): “कहाँ चलना है? कोई पार्टी-वार्टी है क्या, हाँ भाई?”
अपना ऐनक ठीक करती है। सामने काका और चिंटू को देखकर चौंककर जाती है।
बूढ़ी बिल्ली: “अरे, तुम दोनों कौन हो भाई? (चिंटू को पकड़कर) ओहो! तुम तो बहुत हट्टे-कट्टे दिखते हो, चटपटे लगते हो!”
चिंटू को अपने चेहरे के पास लाती है। चिंटू घबरा जाता है।
चिंटू (घबराकर): “अरेरेरेरे.........मैं तो चूहे की दावत लेकर आया था, चूहे की, चूहा-चूहा!”
बूढ़ी बिल्ली: “क्या? कहाँ?” – कहकर चिंटू को छोड़ देती है।
चिंटू ‘धम्” से नीचे गिरता है। उठता है। पहले तो भागकर काका के पास जाता है। फिर अपने शरीर से धूल झाड़ता है। चिंटू (बूढ़ी बिल्ली से): “हाँ, वो....” लेकिन मोटी बिल्ली बीच में ही टोक देती है और चिंटू को बात पूरी नहीं करने देती।
मोटी बिल्ली (बीच में टोकते हुए): “मौसी तुम भीतर जाओ, ये मेरी और इसकी डील है”
बूढ़ी बिल्ली (मोटी बिल्ली को अनसुना करते हुए): “कितने चूहे हैं बेटा? आहा-हा, मेरी तो अभी से लार टपकने लगी है। बेटा, एक मिनट रुकना ज़रा, हाँ? मैं ज़रा डाई-वाई करके आती हूँ। बस एक मिनट लगेगा। जाना मत...आहा-हा चूहों की पार्टी!!” – कहकर भीतर जाती है।
मोटी बिल्ली (चिंटू को धकियाते हुए): “चलो”
तीनों चल देते हैं।


Friday, August 12, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 10 और 11)

Scene 10



दोपहर का वक़्त। नदी बह रही है। नदी के बगल में आम का बगीचा है। वहाँ खूब सारे हाथी जमा हैं। कोई चहल-कदमी कर रहा है, कोई नदी से पानी पी रहा है, कोई सो रहा है, कोई आपस में खेल रहा है। काका और चिंटू वहाँ आते हैं। एक हाथी चुपचाप बैठा है। दोनों उस हाथी की सूंड पर बैठते हैं।
चिंटू (उसी हाथी से): “हलो, कैसे हो?”
कोई जवाब नहीं आता। वह हाथी बस उन दोनों को देखता है और फिर आँखें बन्द कर लेता है।
चिंटू (दुबारा उसी से): “तुम्हारा नेता कौन है?”
वह हाथी इस बार भी कुछ नहीं कहता बस अपनी सूंड को सीधाकर नेता हाथी के सामने लाता है। दोनों वहाँ नीचे उतर जाते हैं। नेता हाथी मुरेठा पहने एक विशाल पेड़ के नीचे बैठा आँखें आधी बन्द किए सुस्ता रहा है। दोनों झुककर उसका अभिवादन करते हैं। उत्तर में नेता हाथी कुछ कहता नहीं सिर्फ भौंहे उठाकर प्रश्नवाचक मुद्रा बनाता है (मानो एक्स्प्रेशन से पूछ रहा हो कि क्या हुआ, बोलो), फिर आँखें बन्द कर लेता है।
चिंटू: “गजराज तुम समुन्दर सोखो, समुन्दर न आग बुझाए, आग न लाठी जलाए, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
नेता हाथी कुछ देर तक कुछ भी नहीं कहता फिर ‘ना’ की मुद्रा में सिर हिला देता है।
चिंटू: “जी?”
नेता हाथी (सुस्ती में): “कहीं और जाओ जी। समुन्दर सोखने में बहुत मेहनत है”
चिंटू उदास होकर अपना सर झुका लेता है। फिर कुछ देर में उसका एक्स्प्रेशन बदलता है और उसके चेहरे पर गुस्से का भाव आता है।
उसी गुस्से में वह बुदबुदाता है – “जाल”


Scene 11

मछुआरों की बस्ती। लकड़ी पर रस्सी डालकर उसपर बड़े-बड़े जाल धूप् में सुखाए जा रहे हैं। चिंटू और काका वहीं एक जाल के पास आते हैं। उसे जैसे ही वे छूते हैं वह जाल भड़क उठता है।
जाल (भड़ककर): “अबे, क्या है बे?”
चिंटू (सहमकर): “जी..अ..अ..आपमें सबसे बड़ा कौन है?”
जाल: “मैं हूँ, क्यों?”
चिंटू (सहमते हुए): “जाल-जाल तुम गजराज फँसाओ, गजराज न समुन्दर सोखे, समुन्दर न आग बुझाए, आग न लाठी जलाए, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
जाल (झिड़ककर): “अबे च~~ल, तेरे एक दाल के दाने के लिए मैं...चल हट...भाग!”
चिंटू (चिढ़कर उसकी नकल करता हुआ): “अबे, चल तू...भाग तू...हट तू”
जाल: “चलता है या लपेटूँ तुझे हीं” – कहकर उन दोनों को लपेटने के लिए उनपर झुकता है, दोनों भागते हैं।


क्रमश:

Thursday, August 11, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 8 और 9)


Scene 8

विशाल समुद्र सामने हिलोंड़े ले रहा है। काका और चिंटू समुद्र के सामने एक चट्टान पर बैठे हैं।
काका (चिंटू से): “क्या हुआ? अब यहाँ आकर चुप क्यों बैठा है, बोल समुन्दर को”
चिंटू (सोचने की मुद्रा बनाकर): “अपुन कुछ सोच रेला है बॉस”
काका: “क्या?”
चिंटू: “यही~~~~ कि...”
काका: “कि?”
चिंटू: “कि” – कहते हुए चिंटू काका को बड़े ही अर्थपूर्ण तरीके से ग़ौर से देखता है। काका भौहें ऊपर उठाता है और ‘नहीं’ की मुद्रा में सर हिलाता है और ‘नहीं’ बोलना चाहता है मगर उसके ‘न’ कहते ही चिंटू अपने पंख से उसका मुँह बन्द कर देता है।

Scene 9

काका समुद्र के आगे हाथ जोड़े खड़ा है। पीछे कुछ दूरी पर उसी चट्टान पर चिंटू खड़ा है। चिंटू इतनी दूरी पर है कि वह काका की आवाज़ को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं सुन सकता।
काका (अटकते हुए): “समुन्दर-समुन्दर तुम आग बुझाओ, आग न...आग न...न रानी डसे”
उसे अच्छे से याद नहीं आता कि चिंटू क्या कविता कहता था इसलिए वह आँखें बन्द कर एक स्वर में लगातार जो भी और जैसे भी याद आता जाता है, कह देता है।
काका: “रानी....रानी...न दाल निकाले, दाल न साँप मारे, साँप न लाठी जलाए, लाठी न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न राजा चीरे, राजा में खूँटा है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
समुन्दर कुछ नहीं कहता। काका कुछ देर उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करता है लेकिन जब का समुन्दर फिर भी कुछ नहीं कहता तो काका पीछे चट्टान पर खड़े चिंटू को देखता है। चिंटू आगे आता है।
चिंटू (काका के पास आकर): “क्या हुआ?”
काका: “पता नहीं”
चिंटू: “आपने इनसे कहा तो न?”
काका: “हाँ मैंने सब कह दिया, लेकिन इन्होंने कुछ कहा ही नहीं”
चिंटू और काका दोनों समुन्दर को देखते हैं।
समुन्दर की एक लहर ऊपर उठती है और उसमें आँखें और मुँह बनता है। समुन्दर बोलता है: “दरअसल आपने जो कहा मैं उसे सही-सही समझ नहीं पाया। रानी न दाल निकाले, दाल न साँप मारे...कुछ खास समझ नहीं आया”
चिंटू (काका से): “पापा?”
काका: “हाँ”
चिंटू: “आपने सब कुछ ठीक से तो कहा था न?”
काका: “हाँ, जहाँ तक मुझे लगता है”
चिंटू: “हाँ, वो तो समझ में आ रहा है। चलिए, कोई बात नहीं” – फिर समुन्दर को कहता है – “वो बात दरअसल ये है कि हमारे अग्नि देव सुसाइड करना चाहते हैं। वो ये चाहते हैं कि आप उन्हें बुझा दें”
समुन्दर (चौंककर): “सुसाइड?”
चिंटू: “जी”
समुन्दर: “पर ये तो बहुत ही ग़लत बात है”
चिंटू: “हाँ, लेकिन क्या किया जा सकता है...जब मरने वाला ख़ुद ही मरना चाहता हो”
समुन्दर: “नहीं, मैं उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं दे सकता......और इसमें सहायता तो बिल्कुल भी नहीं”
चिंटू (नाटकीय/बनावटी रूप से रुआँसा बनकर): “दरअसल सर, वो अपनी ज़िंदगी से बिल्कुल निराश हो गए हैं, ज़िंदगी में साथ देने वाला कोई नहीं, जल-जलकर वे अंदर से राख हो चले हैं...कहते हैं मैं भीगना चाहता हूँ....सर उन्हें भीगने दो सर...भीगने दो...भीगने दो”
समुन्दर: “उनसे जाकर कहना कि जीवन अमूल्य है, जीवन अपने-आप में एक आशा है, सोचने का ढंग है, सोचो तो पूरी दुनिया तुम्हारे साथ है और सोचो तो अपना हृदय भी अपने साथ नहीं। उनसे कहना वे जलने से न भागें। जलना उनकी नियति है और भीगना मेरी नियति...जब मैं उन्हें पुन: जला नहीं सकता तो उन्हें भिगाना भी मेरे हाथ में नहीं”
चिंटू अपना सर पकड़कर बैठ जाता है। कुछ देर बाद वैसे ही बैठे-बैठे कहता है: “अब कुछ नहीं हो सकता”
काका (चिंटू से): “बेटा, मैं एक सुझाव दूँ?”
चिंटू उसकी ओर देखता है।
काका: “गजराज के पास चलते हैं” चिंटू उसे देखता रहता है फिर मुस्कुराता है।

क्रमश:

Monday, August 1, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 7)

Scene 7

चारों ओर आग की भयंकर लपटें उठ रही हैं। लाल और पीले रंग के अलावा और कुछ नहीं दिख रहा। आग की लपकती ज्वालाएँ मानो सामने पड़ने वाले किसी को भी लील जाएँ। लपटों में दो बड़ी-बड़ी आँखें हैं जो आग की हैं। बैकग्राउंड से ये पंक्तियाँ चल रही हैं चिंटू की आवाज़ में: ”आग-आग तुम लाठी जलाओ, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
भयंकर अट्टहास: “ही-ही-हा-हा-हा-हा-हा-हा..........”
आग (वही आवाज़): “तो तुम चाहते हो कि हम, हम जिसे दुनिया अग्नि देव के नाम से जानती है, हम - जिसकी हाथ जोड़कर दुनिया पूजा किया करती है, हम – जो एकबार किसी को घूरकर देख लें तो वो खड़ा-खड़ा राख हो जाए, हम – जिसकी.........”
चिंटू आग के इस स्व-बखान से परेशान हो उठता है और बीच में बोल उठता है – “ओफ्फोह, हाँ अग्नि देव आप ही-आप ही”
आग चिंटू की ओर देखता है और लगातार गर्व भरी गंभीर आँखों से उसे देखता रहता है।
आग: “तो तुम चाहते हो कि हम उस..उस...उस तुच्छ लाठी को जलाने उसके पास जाएँ??”
चिंटू और काका एक-दूसरे को देखते हैं।
आग: “ह: ह:, उस लाठी को कहो हम तक चल कर आए। हम उसे जलाएँगे, अवश्य जलाएँगे”
चिंटू: “पर वह चलकर आप तक नहीं आ सकता”
आग: “कारण?”
चिंटू: “वो-वो दरअसल महाराज...” कहकर चिंटू सोचने लगता है।
आग प्रश्नवाचक दृष्टि से उसकी ओर देखता है।
आग: “देर मत करो बच्चे, जल्दी बताओ। हमारे पास टाइमपास करने के लिए वक़्त नहीं है”
चिंटू (जल्दी से, बिना कुछ सोचे): “उसकी टांग में फ्रैक्चर है”
आग: “तो ठीक है, फ्रैक्चर ठीक होने के बाद आ जाए”
चिंटू कुछ कहना चाहता है पर आग अपने दोनों हाथों से उसे चुप रहने का आदेश दे देता है। चिंटू काका को देखता है। काका: “मैं चला अपनी बहन के पास” – कहकर पीछे मुड़कर उड़ चलता है और जाकर किसी पेड़ की डाल पर बैठ जाता है।
चिंटू: “अरे पापा, सुनो तो...” उड़ता है और पीछे-पीछे जाकर उस डाल पर बैठ जाता है जहाँ काका उड़कर बैठा है।
चिंटू: “अरे आप सुनो तो......हम समुन्दर को बुलाएँगे”
काका: “क्या??????” और बेहोश होकर पेड़ से नीचे गिर जाता है।
चिंटू: “अरे पापा!” नीचे जाता है और अपने पंख से काका को हवा करता है।

क्रमश:

Thursday, July 28, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 5 और 6)

Scene 5



काका और चिंटू दोनों बाज़ार के बीचोबीच बने महाराज की मूर्ति पर बैठे हैं।
काका: “अब क्या होगा चिंटू? हमारी सहायता में तो कोई भी आगे नहीं आ रहा”
चिंटू (गाते हुए): “जाने क्या होगा रामा रे, जाने क्या होगा मौला रे”
दोनों कुछ देर चुप रहते हैं। कुछ देर बाद चिंटू बोलता है।
चिंटू: “छोड़ो बापू....जाने दो उस दाल को (लम्बी साँस छोड़ते हुए कहता है) दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम”
काका (जोश में): “नहीं चिंटू, अब तो मुझे भी उस दाने को लेने की ज़िद हो आई है”
चिंटू भौंचक्का होकर काका के इस रूप को देखता है। फिर अपना सर हिलाता है मानो यकीन न हो रहा हो।
फिर यकायक काका की पीठ थपथपाकर कहता है: “ये हुई न बहादुरों वाली बात!”
उसके पीठ थपथपाने पर काका उसे आँखें दिखाता है। चिंटू तुरंत उसकी पीठ पर से अपना हाथ हटाकर गहरी सोच की मुद्रा बना लेता है। दोनों कुछ देर सोचते हैं। अचानक चिंटू चुटकी बजाता है और कहता है।
चिंटू (चुटकी बजाते हुए): “आइडिया!”
काका उसे देखता है। चिंटू काका को देखकर उसे थोड़ी दूर पर सपेरे की डिबिया में बैठे साँप की ओर देखकर अपने पंखों से इशारा करता है और मुस्कुराता है।

Scene 6

डिबिया में मोटा, काला साँप बैठा है।
चिंटू (थोड़ी दूर बैठकर): “साँप साँप तुम रानी डसो, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
साँप: “मुझे देशद्रोही समझा है क्या? चला जा, जा किसी और के पास जा। एक दाल के दाने के लिए मैं....हुँह” साँप आँखें बन्द कर सो जाता है।
चिंटू: “अरे साँप भाई सुनो तो....”
आँखें बन्द किए बीच में ही साँप अपनी बड़ी सी लपलपाती जीभ उसतक तेज़ी से लाकर बड़े ज़ोर से ‘हिस्स’ की आवाज़ निकालता है।
चिंटू डर से चार-पाँच कदम पीछे हट जाता है और धीरे-से कहता है।
चिंटू (धीरे से): “तुझे तो मैं देख लूँगा”
साँप एक बार फिर धीरे-से ‘हिस्स’ की आवाज़ निकालता है।
चिंटू: “जा रहा हूँ भाई जा रहा हूँ”
उड़ने के लिए चिंटू पीछे मुड़ता है तभी उसकी नज़र अखाड़े पर पड़ती है। पहलवान कुश्ती लड़ रहे हैं, दण्ड-बैठक कर रहे हैं। वहीं पर कुर्सी पर बैठा एक पहलवान सभी को कुछ न कुछ सिखा रहा है। उसकी कुर्सी से टिकाकर एक लाठी रखी हुई है। चिंटू चुपचाप उस लाठी के पास जाता है। लाठी की मूँछे हैं। चिंटू लाठी को हसरत भरी निगाहों से देखते हुए उसे हौले से छूता है।
चिंटू (छूते हुए): “लाठी भाई क्या तगड़ी बॉडी पाई है तुमने!”
लाठी गर्व से कहता है: “मेरा मालिक रोज़ मेरी तेल मालिश करता है”
चिंटू: “वो तो देखकर ही लग जाता है। तुमने कई बड़े-बड़े वीरों के छक्के छुड़ाए हैं, सुना है!”
लाठी: “सही सुना है”
चिंटू: “अच्छा?”
लाठी (अपनी मूछों पर ताव देते हुए): “और नहीं तो क्या? बड़े से बड़ा पहलवान मेरे सामने आज तक नहीं टिक सका, कोई नहीं टिक सकता”
चिंटू: “कोई नहीं?”
लाठी: “ना, कोई भी नहीं”
चिंटू: “साँप भी नहीं?”
लाठी (हँसते हुए): “हा:-हा:, साँप भला मेरे सामने क्या चीज़ है?”
चिंटू: “तुम इतने मज़बूत हो लाठी भाई, मेरी एक सहायता करोगे?”
लाठी: “सहायता?”
चिंटू: “लाठी-लाठी तुम साँप मारो, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
लाठी (हकलाते हुए): “स-स-साँप? त-त-तुम चाहते हो कि मैं साँप को मारूँ?”
चिंटू: “हाँ लाठी भाई, अभी तुमने ही तो कहा कि तुम्हारे आगे साँप........”
लाठी (बीच में ही): “हाँ, वो तो ठीक है। लेकिन तुमने देखा नहीं कि अभी-अभी मालिक ने मुझे तेल लगाया है? इस मारपीट के चक्कर में अगर मैं गन्दा हो गया तो?”
चिंटू कुछ कहने के लिए मुँह खोलता ही है कि लाठी फिर बोल उठता है।
लाठी: “तुम जाओ यहाँ से, मैं साँप-वाँप को मारने वाला नहीं”
चिंटू: “पर?”
लाठी: “जाते हो या?” कहकर उछल कर चिंटू के एक कदम नज़दीक आता है।
चिंटू डरकर एक कदम पीछे हो जाता है।


क्रमश:

Wednesday, July 27, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 4)

Scene 4

महारानी मुकुट लगाए, सजी धजी ब्यूटी पार्लर में बैठी हैं। उनके अगल-बगल चार उन्हें सजाने वालियाँ हैं। एक उनकी हाथ की अंगुलियों में नेलपॉलिश लगा रही है, दूसरी पाँव की। तीसरी उनके बालों में कंघी कर रही है। महारानी के चेहरे पर मुल्तानी मिट्टी का लेप लगा है और आँखों पर खीरा रखा है। चिंटू रोशनदान से ब्यूटी पार्लर के अन्दर जाता है और सामने रखे क्रीम के डिब्बे पर बैठते-बैठते पूछता है।
चिंटू: “महारानी साहिबा हैं क्या?”
कंघी करने वाली सेविका: “तेरे सामने हैं”
चिंटू (आश्चर्य से): “तू?”
सेविका: “नहीं, ये” (कहकर महारानी की ओर इशारा करती है)
चिंटू: “ओहो” झुककर सलामी देता है।
चिंटू: “महारानी की जय हो”
महारानी (वैसे ही बैठे-बैठे): “बोलो”
चिंटू: “जी, वो बात ये है कि...........”
महारानी (बीच में ही): “जो कहना है जल्दी कहो, मैं ज़रा बिज़ी हूँ”
चिंटू (एक साँस में कह जाता है): “रानी-रानी तुम राजा छोड़ो, राजा न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
रानी भड़क उठती है। आँखों पर से खीरा निकालकर फेंक देती है, सीधी बैठ जाती है और चिंटू को क्रोधित नज़रों से खोजती है। सभी सेविकाएँ डर जाती हैं।
रानी (इधर-उधर देखते हुए): “क्या कहा? कौन है ये?”
सभी डरी-सहमी सेविकाएँ चिंटू की ओर इशारा करती हैं जो महारानी के क्रीम के डिब्बे पर बैठा है।
महारानी (दाँत पीस कर): “एक दाल के दाने के लिए मैं महाराज का साथ छोड़ दूँ? जनम जनम का साथ छोड़ दूँ? तुम्हारी ज़ुर्रत कैसे हुई ऐसा कहने की? पकड़ो इस तोते को, आज मैं इसका नमकीन हलवा महाराज को खिलाऊँगी”

इतना कहना था कि पार्लर में अफरा-तफरी मच जाती है। चारों सेविकाएँ हर तरह से चिंटू को पकड़ने में लग जाती हैं। चिंटू यहाँ-वहाँ भागता फिर रहा है। कई सामान गिर जाते हैं, पूरा हड़कंप मच जाता है। इस धमाचौकड़ी में उसके ऊपर भी पाउडर, तेल वगैरह गिर जाते हैं। किसी-किसी तरह चिंटू वापस रोशनदान से बाहर की ओर भाग निकलता है। जब वह बाहर आता है तो डाल पर बैठा काका उसे ऐसे रूप में पहचान नहीं पाता और उसे अपनी ओर तेज़ी से आता देख डर कर भागने लगता है।
चिंटू (उसे भागता देख चिल्लाकर कहता है): “अरे, ये मैं हूँ”
लेकिन काका पेड़ के झुरमुट में छिप जाता है। तब चिंटू डाल पर बैठकर गाता है: “अरे मेरे पापा, मुझे पहचानो, कहाँ से आया, मैं हूँ कौन, मै हूँ कौन, मैं हूँ कौन, मैं हूँ, मैं हूँ, मैं हूँ........(थकी और दुखी आवाज़ में) चिंटू” (पुराने डॉन के टाइटल ट्रैक की धुन में) काका चौंकता है। ध्यान से चिंटू को वहीं से देखता है और फिर बाहर आता है। काका (आश्चर्य से): “चिंटू ये तू है!!”
चिंटू: “हाँ, महारानी ने ज़रा प्यार से मेकअप कर दिया था न सो...”
काका खूब ज़ोर-ज़ोर से हँसता है, हँसते-हँसते लोटपोट हो जाता है।
काका (हँसते हुए): “हा-हा-हा, जाकर सूरत देख अपनी, हो-हो-हो”
चिंटू नज़दीक के एक तालाब में खुद को देखता है और वो भी हँसने लगता है।

क्रमश:

Tuesday, July 26, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 3)

Scene 3

महाराज का किला। दरवाज़े पर दो पहरेदार भाला लिए खड़े हैं। काका और चिंटू उड़ते हुए आते हैं और दरवाज़े से अन्दर जाने लगते हैं। दोनों पहरेदार भालों को क्रॉस करके उन्हें रोकते हैं और एक पूछता है -
पहरेदार 1: “ए, कहाँ चले जा रहे हो?”
चिंटू (किले को दिखाकर): “क्या है ये”
पहरेदार 1: “महाराज का किला”
चिंटू: “तो महाराज के किले में जा रहे हैं!”
काका: “दरअसल भाई, महाराज से मिलना है, कुछ काम है उनसे”
पहरेदार 2: “क्या काम है?”
चिंटू: “तुम महाराज हो?”
पहरेदार 2: “नहीं”
चिंटू: “फिर तुम्हें कैसे बताएँ क्या काम है?”
पहरेदार 1: “महाराज अभी मिल नहीं सकते”
चिंटू: “क्यों?”
पहरेदार 1: “वो अभी जिम में है”
चिंटू: “कोई बात नहीं, जाकर कहो उनसे हम उनसे मिलना चाहते हैं”
पहरेदार 2: “कहा न इसने कि महाराज नहीं मिल सकते”
काका: “भईया बहुत ज़रूरी काम है, एक बार कहकर तो देखो”
पहरेदार 2 (कुछ सोचकर): “अच्छा ठीक है”
पहरेदार 2 अन्दर जाता है।
चिंटू (पहरेदार 1 से): “भईया, ये भाला चलाना तो तुम जानते हो न?”
पहरेदार 1: “हाँ बिल्कुल, क्यों?”
चिंटू: “मुझे चलाना सिखाओगे?”
पहरेदार 1: “तुम? ह: ह: ह: ह: ह:...कभी खुद को शीशे में देखा है? चले हैं भाला सम्हालने, हुँह!”
चिंटू: “ए-ए, मुझे जानते नहीं हो तुम। एक दिन यही भाला हाथ में पकड़े मेरे पीछे-पीछे चलोगे, समझे?”
पहरेदार 1 कुछ कहता तब तक पहरेदार 2 किले से बाहर आता है।
पहरेदार 2: “जाओ महाराज बुला रहे हैं। अन्दर घुसते ही साइनबोर्ड पढ़ लेना। जिधर इशारा करके जिम लिखा हो उधर चले जाना”
चिंटू (लापरवाही से): “ठीक है-ठीक है”
काका (दोनों पहरेदारों से): “अच्छा भाई धन्यवाद”
दोनों महल में घुसते हैं। चारों ओर बड़े-बड़े परदे, बड़े-बड़े शीशे, तरह-तरह के झाड़-फानूस और सजावट की अन्य चीज़ें सजी हुई हैं।
चिंटू हर शीशे में अपने-आपको अलग-अलग angle से देखता हुआ आगे बढ़ रहा है और गीत गुनगुना रहा है – “तारीफ करूँ क्या उसकी जिसने हमें बनाया”......... “ये आँखें उफ जुम्मा ये अदाएँ उफ जुम्मा”
तभी सामने साइनबोर्ड आ जाता है जिसपर लिखा है – “जिम – दाहिनी ओर जाएँ, स्विमिंग पूल – बाईं ओर जाएँ”। चिंटू इस साइनबोर्ड को देख नहीं पाता और शीशे में खुद को देखता हुआ, गुनगुनाता हुआ मुड़ता है और इससे टकराकर नीचे गिर जाता है। पीछे से काका आता है।
काका (साइनबोर्ड देखकर): “ये रहा बोर्ड”
चिंटू (नीचे अपना सर सहलाते हुए): “हाँ, जानता हूँ”
फिर ऊपर आता है। दोनों साइनबोर्ड पढ़ते हैं और दाहिनी ओर उड़ान भरते हैं। राजमहल की बड़ी-बड़ी गलियों को आश्चर्य से देखते हुए दोनों जिम पहुँचते हैं।
चिंटू(जिम को दूर से ही देखकर): “वो रहा जिम”
एक कमरे के बाहर ‘शाही जिम’ लिखा है। दोनों अन्दर पहुँचते हैं। जिम में अत्याधुनिक मशीनें भरी हुई हैं। महाराज पारम्परिक वेशभूषा (धोती कुरता, मुकुट आदि) में ट्रेडमिल पर बैठे साइकिलिंग कर रहे हैं। पसीने से लथपथ हैं।
चिंटू और काका दोनों एकसाथ महाराज को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं – “प्रणाम महाराज”
महाराज दोनों की ओर देखते हैं और साइकिलिंग करते-करते ही हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं – “प्रणाम-प्रणाम, कहिए कैसे आना हुआ?”
काका: “महाराज.....”
लेकिन चिंटू बीच में ही हाथ से इशारा करके काका को रोक देता है।
चिंटू: “महाराज, हम आपके भव्य राज्य के दो अदने से जीवित प्राणी अपने जीवन और प्राण दोनों ही की भिक्षा लेने आपके पास आए हैं”
महाराज (साइकिलिंग करते-करते): “ऐसा क्या हो गया कि आपके जीवन-प्राण संकट में आ गए?”
चिंटू (ट्रेडमिल की हैंडल पर बैठकर): “राजा-राजा आप बढ़ई को डाँटें, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
महाराज (रुककर): “ये क्या है?”
चिंटू: “कविता है जो.....”
महाराज (बीच में): “अच्छी है। एक महीने बाद राष्ट्रीय स्तर का कविता सम्मेलन है। आ जाना दोनों” – कहकर फिर से साइकिलिंग शुरु कर देते हैं।
महाराज को फिर से साइकिलिंग में व्यस्त देखकर चिंटू और काका एक-दूसरे को देखते हैं। फिर चिंटू थोड़ी हिम्म्त करके बोलता है -
चिंटू: “महाराज आपने इस कविता का अर्थ नहीं समझा”
महाराज (चिंटू को देखकर, प्रश्न के भाव से, साइकिलिंग करते हुए ही): “इसका कोई भाव भी था?”
चिंटू: “जी”
महाराज: “बताओ”
चिंटू: “जी अर्थ ये था कि हमारा दाल का एक दाना एक खूँटे में गिर गया है, न तो खूँटा ही उसे निकाल रहा है और न ही बढ़ई हमारी मदद करने को तैयार है”
महाराज (उसी व्यस्त भाव से): “अच्छा, तो अपनी कविता में तुमने ये कहने की कोशिश की है कि एक दाल के दाने के लिए मैं उस बढ़ई के पास जाऊँ”
चिंटू: “नहीं महाराज, वो बढ़ई आपके पास आए”
महाराज: “तो तुम चाहते हो कि मैं उसे बुलाऊँ”
चिंटू: “जी महाराज”
महाराज: “तुम्हारी चाह पूरी नहीं होगी........जा सकते हो”
चिंटू: “परंतु महाराज...”
महाराज (बीच में ही): “किंतु-परंतु कुछ नहीं (जोर से) सिपाहियों”
महाराज इतने ज़ोर से सिपाहियों को बुलाते हैं कि चिंटू हैंडल पर से गिरते-गिरते बचता है।
काका: “नहीं-नहीं महाराज, हम चले जाते हैं”
दोनों उड़कर बाहर आ जाते हैं। बाहर आकर दोनों किले की दीवार पर बैठ जाते हैं।
काका: “देख लिया? कुछ नहीं होने वाला यहाँ, अब चलो परदेस”
चिंटू: “आप जाइए परदेस। मैं चला रानी के पास”
काका: “रानी के पास? मगर क्यों?”
चिंटू: “आप बस देखते जाइए डैडी, मैं क्या चक्कर चलाता हूँ” चिंटू यह कहकर उड़ जाता है।
काका: “अरे लेकिन सुन तो”
लेकिन चिंटू नहीं सुनता और उड़ जाता है। काका वहीं बैठा रह जाता है।



क्रमश:
(चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)

Monday, July 25, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 2)

Scene 2

काका एक दुकान पर रखे फोन से अपनी बहन से बात कर रहा है। बगल में चिंटू खड़ा है।
काका (फोन पर): “हाँ-हाँ बहन हम अभी चल रहे हैं। शाम तक पहुँच जाएँगे। अच्छा रखता हूँ” फोन रख देता है। काका (दुकान में खड़े दुकानदार से): “हाँ भईया, कितने हुए?”
दुकानदार: “दो रुपये”
काका अपने पंख से दो रुपये का सिक्का निकालकर उसे देता है। दोनों उड़ चलते हैं। रास्ते में चिंटू काका से बोलता है –
चिंटू: “बापू, अपुन लोग लगता है बहुत दूर जा रेला है”
काका: “हाँ, तेरी बुआ परदेस में रहती है”
चिंटू: “परदेस बोले तो?”
काका: “परदेस...मतलब दूसरे देस”
चिंटू: “मतलब बहुत दूर”
काका: “हाँ”
चिंटू: “मतलब रास्ते में भूख-प्यास भी लगेगी”
काका (थोड़ा सोचने के बाद): “मुझे तो आदत है पर तुम्हें लग सकती है”
चिंटू: “हाँ तो फिर खरीद दो ना मेरे लिए कुछ”
दोनों एक पेड़ पर उतरते हैं। काका पंख से निकालकर उसे एक रुपया देता है।
काका (पैसे देते हुए): “बस इतने ही पैसे बचे हैं”
चिंटू: “इतने में क्या मिलेगा?”
काका: “चने की दाल”
चिंटू: “बस! मैं यही खाऊँगा!”
काका: “अगर इतने में तुझे कुछ और मिल जाता है तो खरीद ला! और पूरे पैसे मत खर्च कर आना, रास्ते में कुछ पैसे–वैसे पास में होने चाहिए”
चिंटू: “ठीक है, वैसे मैं दाल ही खरीद लूँगा। वैसे भी चने की दाल मुझे पसंद है” कहकर चिंटू राशन की एक दुकान पर जाता है।
चिंटू (दुकानदार से): “भईया, चने की एक दाल चाहिए”
दुकानदार: “ले लो”
चिंटू: “कितने की है?”
दुकानदार: “एक रुपया”
चिंटू: “अरे, ये तो पूरा रुपया ही मांग लिया तुमने! एक दाल की कीमत पूरा एक रुपया!!!”
दुकानदार (चिढ़कर): “लेना हो तो लो वरना जाओ”
चिंटू पंख में से पैसे निकालकर दुकानदार के सामने रख देता है और कहता है – “ये लो रखो” चिंटू एक दाल उठाकर, जाँचता-परखता है, फिर उसे लेकर काका के पास आता है।
चिंटू (काका के पास आकर, डाल पर बैठकर): “चलिए”
काका: “कितने लिए?”
चिंटू: “किसने?”
काका: “दुकान वाले ने”
चिंटू: “क्या लिए?”
काका: “पैसे”
चिंटू: “किसके पैसे?”
काका (परेशान होकर): “अरे, दाल के और किसके!”
चिंटू: “कौन सी दाल के?”
काका (गुस्सा कर): “तुम कौन सी दाल लाने गए थे अभी?”
चिंटू: “कहाँ?”
काका: “दुकान पर”
चिंटू: “कौन सी दुकान पर?”
काका: “अरे बाबा! उस दुकान पर.....”
चिंटू (बीच में ही टोककर): “जहाँ चने की दाल मिलती है?”
काका: “हाँ”
चिंटू: “आपको इतना नहीं पता??”
काका: “क्या नहीं पता?”
चिंटू: “कि मैं कौन सी दाल लाने गया था”
काका: “चने की दाल लाने गए थे”
चिंटू: “फिर?”
काका: “क्या फिर?”
चिंटू: “फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?”
काका कुछ कहने को मुँह खोलता है फिर उसे हँसी आ जाती है। चिंटू भी हँसने लगता है। दोनों हँसते हैं। हँसते-हँसते चिंटू अचानक पूछता है –
चिंटू: “आपने इसकी कीमत तो पूछी ही नहीं!”
काका: “रहने दे”
चिंटू: “अच्छा देख तो लो!”
काका: “क्या?”
चिंटू: “यही कि मैं कितनी सुन्दर दाल लाया हूँ!” – कहकर चिंटू दाल को एक पंख से निकालकर ऊपर आसमान में उछालता है और दूसरे पंख से बड़े ही स्टाइल से पकड़ने की कोशिश करता है लेकिन दाल कुछ ज़्यादा ही दूर होती है और चिंटू की पकड़ में नहीं आती और सीधे जाकर नीचे ज़मीन में गड़े एक खूँटे के अन्दर गिर जाती है।
चिंटू: “अरे नहीं, दाल तो इस खूँटे में गई”
काका (सर पकड़कर): “हाँ...और अब निकलेगी भी नहीं”
चिंटू: “तो?”
काका (सर से हाथ हटाते हुए): “तो क्या? कुछ पैसे बचे हुए हैं या सब खर्च कर आया?”
चिंटू: “पैसे तो नहीं बचे।”
काका चिंटू को देखता है और कहता है: “फिर सोचना क्या है? पैसे हमारे पास हैं नहीं कि कुछ और खरीदा जाए”
चिंटू: “तो?”
काका: “तो ये कि अब सीधे बुआ के हाथ का खाने को तैयार रहो”
चिंटू (बिल्कुल फिल्मी अन्दाज़ में): “नहीं~~~~~...ये नहीं हो सकता.........कह दो कि ये झूठ है!”
काका: “अरे नौटंकीबाज़! कभी तो सामान्य रहाकर! अब चुप कर और चल चुपचाप”
चिंटू: “नहीं बापू। एक मिनट रुको...मैं भूखे पेट इतनी दूर नहीं जा सकता”
काका: “तो क्या करोगे?”
चिंटू: “इस खूँटे से कहूँगा कि ये दाल वापस कर दे”
काका: “तुम्हारी बात ये मान जाएगा?”
चिंटू: “उम्मीद पे तो दुनिया कायम है पापा, फिर ये दाल क्या चीज़ है!”
चिंटू खूँटे के पास आता है। हाथ जोड़कर उसकी तीन बार प्रदक्षिणा करता है। फिर सर झुकाकर उससे विनती करता है। चिंटू: “हे खूँटा जी महाराज, मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप हमारी दाल हमें वापस कर दें”
खूँटा कुछ नहीं कहता। आँख मूंदे बैठा रहता है।
चिंटू: “अच्छा, कविता में विनती करता हूँ। शायद आपको मेरी कविता पसंद आ जाए और आप हमारी बात मान जाएँ” चिंटू: “खूँटा-खूँटा तुम दाल निकालो, हमारी एक बात तुम मानो, क्या खाएँगे क्या पीएँगे, क्या लेकर परदेस जाएँगे”
इतना सुनकर खूँटे की भवें चढ़ती हैं और वह चिढ़कर कहता है –
खूँटा: “एक चने की दाल के लिए मैं इतनी मेहनत क्यों करूँ? जो चीज़ मेरे अन्दर गई सो गई। तुम जाओ यहाँ से” – कहकर अपनी आँखें बन्द कर लेता है।
काका आगे बढ़कर चिंटू के पास आता है।
काका: “चलो बेटा, ये दाल हमसे नहीं गलने वाली”
चिंटू (दृढ़तापूर्वक): “नहीं पापा, इस दाल को तो मैं गलाकर ही दम लूँगा.........चाहे कुछ हो जाए”
काका (परेशान होकर): “लेकिन तू क्या करेगा? इसका जवाब तूने सुन लिया न?”
चिंटू: “अगर ये खूँटा मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं बढ़ई के पास जाऊँगा”
खूँटा: “अरे जाओ-जाओ, जैसे बढ़ई तुम्हारी बात सुनकर यहाँ दाल निकालने आ ही जाएगा”
चिंटू उड़ चलता है। पीछे से काका भी उड़ता है। उड़कर चिंटू एक झोंपड़ी के पास पहुँचता है। झोंपड़ी के पास एक पेड़ है जिसकी डाल पर चिंटू और काका बैठ जाते हैं।
चिंटू बढ़ई को पुकारता है – “बढ़ई भाई ओ~~~~ बढ़ई भाई!”
“कौन है?” – कहता हुआ एक बूढ़ा झोंपड़ी से बाहर निकलता है। बूढ़ा घुटनों तक धोती पहने है और कन्धों पर गमछा रखे है।
चिंटू: “मैं हूँ, मैं चिंटू। इधर ऊपर देखो बढ़ई महाराज, पेड़ पर”
बढ़ई पेड़ पर ऊपर की ओर देखता है। बढ़ई: “कहो, क्या है?”
चिंटू: “हम तुमसे एक मदद चाहते हैं”
बढ़ई: “मदद? मुझसे??”
चिंटू नीचे आकर उसके चेहरे के पास आकर कहता है -
चिंटू: “हाँ बाबा तुमसे”
बढ़ई: “कहो, क्या मदद चाहिए?”
चिंटू (कई मुद्राएँ बनाते हुए): “बढ़ई-बढ़ई तुम खूँटा कीरो, खूँटा न दाल निकाले, खूटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ?”
बढ़ई: “क्या? एक दाल के दाने के लिए तुम मुझ बूढ़े को परेशान कर रहे हो? वो खूँटा इतनी दूर है और तुम चाहते हो कि तुम्हारे एक दाल के दाने के लिए मैं वहाँ तक जाऊँ? ना, मैं वहाँ तक नहीं जाने वाला, मुझसे ये नहीं होगा” कहकर बढ़ई अन्दर चला जाता है।
काका: “अब?”
चिंटू (सर खुजलाते हुए): “अब?”
फिर कुछ देर सोचने के बाद अचानक ज़ोर से बढ़ई को सुनाकर कहता है -
चिंटू: “हम महाराज के पास इस बढ़ई की शिकायत करने जाएँगे”
बढ़ई (झोंपड़ी के अन्दर से ही): “जाओ जाओ, शौक से जाओ, वो नहीं कुछ करने वाले”
काका (चिंटू से): “बेटा कुछ नहीं होने वाला। चलो बुआ के घर चलो। दोपहर होने वाली है”
चिंटू: “नहीं, आपको जाना हो तो जाइए। अब ये दाल का दाना मेरे लिए इज़्ज़त का सवाल बन गया है”
काका: “क्या बेटा, तुम एक दाने के लिए..........”
चिंटू (बीच में ही): “नहीं पिताजी, आज चिंटू ये भीष्म प्रतिज्ञा लेता है कि वो या तो इस दाने को वापस पाएगा या फिर कभी आपको अपना मुँह नहीं दिखाएगा”
काका उसे देखता है कुछ कहता नहीं।

क्रमश:

Saturday, July 23, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी

जब हम छोटे थे और अम्मा (दादी अम्मा)के क़रीब थे तब हर शाम या यूँ कहूँ शाम ढल जाने पर जब मम्मी रात का खाना बना रही होतीं, बिसनाथ भइया अपने घर जाने से पहले बाथरूम और किचेन में रात भर के लिए पानी भर रहा होता, सुनीता माई बरतन साफ कर रही होती और बबीता आँगन या गली के दरवाज़े में ताला लगा रही होती, हम अम्मा से कहानियाँ सुनते थे। हर शाम सुनाने को चार-पाँच कहानियाँ ही होतीं पर हम कभी उनसे बोर नहीं हुए। जानते थे, अब ये होगा, पर कान फिर भी सतर्क होकर सुनते थे क्या हो रहा है।

बचपना छूट गया और वो आँगन भी पर कहानियाँ न छूट पाईं। अम्मा की सुनाई उन कहानियों को स्क्रिप्ट में ढालने की कोशिश कर रही हूँ, उम्मीद है इसे पढ़कर आपको भी कोई न कोई अम्मा और उनकी कहानियाँ याद आ जाएँगी।

जिसकी स्क्रिप्ट यहाँ लिख रही हूँ उस कहानी का असली शीर्षक तो पता नहीं पर हम उसे तोते और दाल वाली कहानी कहा करते थे...स्क्रिप्ट को किस्तों-किस्तों में जमा कर रही हूँ क्योंकि मूलधन काफी बड़ा है..
तो 'तोते और दाल की कहानी' की स्क्रिप्ट की पहली किस्त पेश-ए-ख़िदमत है:-


Scene 1

महाराजाओं का वक्त। सुबह करीब 10 बजे का समय। बाज़ार का दृश्य। पुरुष परंपरागत कपड़ों धोती-कुरता, मुरेठा, मूँछ में इधर-उधर घूमते-टहलते हुए, किसी-किसी के साथ बैल या बकरियाँ। महिलाएँ साड़ी में अपने घर के बाहर झाड़ू देती हुईं या आपस में बातें करती हुईं। व्यापारी दुकान में बैठे हुए। कुल मिलाकर एक व्यस्त नगर का दृश्य। नगर के बीचोबीच एक बरगद का पेड़। उसपर कई पक्षियों के घोंसले। कुछ पक्षी आपस में बातचीत करते, कुछ शांत बैठे। उसी पेड़ में एक घोंसला जिसमें एक मैना अपने तीन बच्चों को लोरी सुना रही है –
“चन्दा मामा दूर के, पुए पकावें गुड़ के...”
एक तोता पंख फड़फड़ाते हुए वहाँ आता है और घोंसले के किनारे पर बैठ जाता है। तोते का नाम काका है।
काका (मैना से): “कैसी हो बहन?”
मैना: “धीरे बोलिए, बड़ी मुश्किल से नींद आई है इन्हें! बीमार हैं तो जितना ज़्यादा सोएँ उतना अच्छा है”
काका (धीरे से): “अच्छा-अच्छा, मैं ये पूछने आया था कि तुमने चिंटू को देखा क्या?”
मैना: “नहीं, क्यों क्या हुआ?”
काका: “आज सुबह से ढूंढ रहा हूँ.....पता नहीं कहाँ चला गया!”
मैना: “अरे भईया, आप परेशान क्यों हो रहे हैं? वो तो बहुत स्मार्ट बच्चा है! खेल रहा होगा कहीं इधर-उधर! आ जाएगा”
दूसरी डाल पर बैठे एक कौए ने पूछा: “क्या हुआ काका? परेशान क्यों दिख रहे हो?”
उसकी तेज़ आवाज़ से मैना के बच्चे जाग जाते हैं और चीं चीं करने लगते हैं।
मैना (कौए से): “अरे भईया, देखो तुम्हारी तेज़ आवाज़ से मेरे बच्चे जग गए....ज़रा धीरे नहीं बोल सकते थे?....(बच्चों को) ओले-ओले-ओले मेरे प्यारे बच्चे, सो जाओ”
काका उड़कर उस डाल पर जाता है जिसपर कौआ बैठा है।
काका (उस कौए से): “मैं चिंटू को ढूंढ रहा था, तुमने देखा है क्या उसे?”
तभी पेड़ के झुरमुट से एक छोटा सा तोता निकलकर आता है (जो चिटू है) और झुककर सलाम करने की स्थिति में कहता है –
चिटू: “चिंटू आपकी सेवा में हाज़िर है सरकार...कहिए गुलाम के लिए क्या आज्ञा है?”
काका: “ये लो, आ गया मेरा नौटंकी बेटा”
चिंटू: “नौटंकी नहीं पापा कलाकार बेटा कहिए कलाकार बेटा”
कौआ: “कहाँ थे बेटा? काका तुम्हें कब से ढूंढ रहे हैं”
चिंटू: “क्यों बॉस, क्या हो गया? किसी से कोई लफड़ा-वफड़ा तो नहीं हुआ? हुआ हो तो बताओ अभी ठिकाने लगाता हूँ उसको”
काका उसे प्यार से एक थप्पड़ लगाता है।
काका: “अरे भुलक्कड़...याद नहीं आज बुआ के यहाँ जाना है!”
चिंटू: “बुआ? कौन सी बुआ? ओह! हाँ-हाँ-हाँ....तो चलो न फिर देर किस बात की?”
चिंटू दूर आकाश की ओर देखते हुए पंख फैलाकर कहता है – “हम यहाँ से पंख पसारेंगे, और वहाँ दूर तक जाएँगे, जाकर मिलकर बुआ से फिर, लौट यहीं पर आएँगे”
फिर पेड़ पर बैठे सभी पंछियों को वाहवाही की आशा में देखता है। सभी चुपचाप उसे देख रहे हैं। अचानक पेड़ पर बैठी गिलहरी ‘वाह-वाह’ कहकर ताली बजाती है। उसे देखकर फिर सभी ‘वाह-वाह’ कहते हैं और तालियाँ बजाते हैं।


क्रमश:

Monday, June 27, 2011

जाने कब तक

इस खौलते पानी में
हाथ डुबाए
हमलोग
जाने कब तक
बैठे रहेंगे,
एक-दूसरे को आँखें तरेरते
जाने कब तक
ऐंठे रहेंगे?
कितनी बार
बोलती आवाज़ों का
गला दबाएँगे,
समुदायों को
गिरोहों के किलों में सजाएँगे?
कब तक
यूँ
अपने ही बनाए धरातलों में
सिमटते जाएँगे?

Wednesday, June 8, 2011

जानती नहीं ख़ुदा, तुझे मुझसे क्या शिक़ायत है, क्या नाराज़गी है कि न मुझे जीने देते हो न मरने देते हो....जीने लगो तो ऐसा ग़म मेरे सिर बांधते हो जिसे उतारा नहीं जा सकता...ऐसी यादें, ऐसे चोट, ऐसे सच.....मौत में सिमटने की कोशिश करो तो एक बहुत बड़ी सी खुशी, जैसे सबकुछ दे दिया....और फिर? वही सब कुछ....मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ईश्वर....ये कैसा बोझ है जो हर किसी के लिए भारी है......मेरे लिए और जो भी मेरे आसपास है सबके लिए...क्या करूँ...क्या छोड़ दूँ सबकुछ....क्या यही अच्छा है...क्या सबकुछ मिटाने का यही तरीका है?......छोड़ने भी तो नहीं देते...........क्यों ऐसा सबब ईश्वर...क्या किया है मैंने..मेरी ग़लतियाँ तो बताओ......

Friday, May 20, 2011

बम

सड़क पर पड़ी चीज़ कभी ना उठाइए
राह चलते उसे लाँघ जाइए
चाहे कितना भी बेशकीमती हो पर्स
न होने पाए उससे आपका स्पर्श
उसमें हो सकता ज़ोरदार बम है
आपकी ज़िंदगी क्या पैसे से कम है?

पतले से चिप से भी धमाका हो जाना है
भई, आजकल हाइटेक ज़माना है
हाईटेक ज़माने को सर से लगाइए
सड़क की हर वस्तु से दूर हो जाइए।

चाहे निचला हिस्सा हो सीट का
या हो पार्क में बेंच बना कंक्रीट का
हर सीट पर चेक करके बैठिए
उसमें छिपा सकते हैं बम घुसपैठिए।

बमों की आजकल हर जगह जमात है
हमारी आपकी ज़िंदगी एक अदद बम के हाथ है
ज़रा धीमे से चेक कीजिए अपना हर पार्सल
कहीं हो न जाए जीवन से आपका कोर्ट मार्शल।

सरे आम बिकती है लोगों की लाइफ़
चाहे हो हसबैंड चाहे हो वाइफ़
लाइफ़ है प्रेशियस कहावत सरेआम है
सुन लीजिए आप भी, जान है तो जहान है

लावारिस वस्तु दिखे तो दूर हो जाइए
ज़रूरी नहीं कि फोन कर पुलिस को बुलाइए
क्रिमिनल को पकड़वाकर बन जाएँगे आप हीरो
पैसे भी मिलेंगे आपको पाँच के आगे पाँच ज़ीरो
पर जेल में जब क्रिमिनल की सज़ा होगी फ़ुल
हो न जाए आपके जीवन की बत्ती गुल

तभी तो कहते हैं हम आपसे
दिल को छोड़िए जनाब,
काम लीजिए दिमाग से।

Saturday, April 30, 2011

बाया

उस काली रात में बाया नदी ने चुपके-चुपके कई उजले आँसू बहाए थे जिसकी ज़िंदा रौशनी की चकाचौंध आज भी मुझे अपनी आँखें बंद करने को मजबूर कर देती है।
ये कहानी जहाँ से शुरु होती है उस वक़्त वहाँ बहुत खुशहाली थी। घर में काफी चहल-पहल थी। महिलाओं का गाना-बजाना चल रहा था, पुरुष भी थोड़ी दूर पर बैठे इसका मज़ा ले रहे थे, बच्चे उछलकूद मचा रहे थे। सभी खुश थे। बच्चे की छट्ठी थी। महिलाओं के गानों, पुरुषों के ठहाकों और बच्चों के शोर का जादू अगल-बगल झुंड में खड़े बाँस के पेड़ों पर भी छा रहा था और वे भी झूम-झूमकर मानो इस उत्सव का आनंद ले रहे थे। ये मकसूदन का घर था। बाँस के झुरमुटों के बीच उगी एक झोपड़ी जिसका रोम-रोम आज पुलकित था।

काफी मन्नतों के बाद मकसूदन की पत्नी की गोद भरी थी। पत्नी का नाम क्या था खुद उसे छोड़कर किसी को भी नहीं पता था, शायद वो भी अब तक अपनी उस पहचान को भूल चुकी थी। पूरे गाँव के लिए वो ‘मकसूदन की कनिया’ थी।

लेकिन ये कहानी मकसूदन की कनिया की नहीं है, न ही उस अभागे मकसूदन की। ये कहानी है उन आँसुओं को रोती बाया की जो आज भी किसी काली रात की आहट से घबराती है और गरदन तक अपना सर नदी में घुसाए निश्चिंत बाँस के झुरमुटों में अपने पूरे वज़ूद समेत छिप जाना चाहती है, मानो वो रात अपना काला आँचल उसके सामने फैलाकर उससे पूछ बैठेगी – क्यों उस रात तू सूख न गई बाया?

वो रात मकसूदन खेत पर था। अंधेरिया रात थी और उसकी कनिया एक हाथ में खाना-लालटेन पकड़े, दूसरे से डेढ़ महीने के बच्चे को गोद में सम्हाले जल्दी-जल्दी पगडंडियों से होकर खेत पर जा रही थी। दूर-दूर तक कोई न था। बस लहलहाते खेत और लहलहाती बाया – दोनों के बीच कनिया के नंगे पैरों का फटाफट निशान लेती सफेद धूल से सनी, चौड़ी, लहराती पगडंडी।
मचान पर बैठे मकसूदन ने अपनी कनिया को आते देखा तो नीचे उतरकर खेत के बाहर आ गया।
“अरे, इसे क्यों ले आई?”
“किसे?”
“मुनिया को”
“तो क्या वहाँ छोड़ आती?”
“चाची को दे आती। कुछ ही देर की तो बात थी। इसे एक हाथ में उठाए-उठाए तुझे कितनी परेशानी हुई होगी”
“अपना कलेजा उठाने में कभी किसी को परेसानी होती है, मुनिया के बापू? ई न होती तो अबतक हम खतम हो गए होते”
सचमुच। मकसूदन जानता है अगर देबी ने अबकी आसीरबाद न दिया होता तो जान तो खतम ही थी कनिया की। छ: साल इंतजार! कौन जनाना कर सकी है आजतक? इंतजार तो उसने भी किया था, नहीं तो बिरादरी वाले तो तीन साल बाद से ही उसके पीछे पड़ गए थे। नई बहू ले आ मकसूदन, इस लुगाई से तुझे कुछ नहीं मिलने वाला। रामकिरपाल चाचा ने तो एक जगह बात भी बढ़ा दी थी। कितना रोई थी उस दिन उसकी कनिया। चार साल के बच्चे की तरह। रात भर सीने से चिपटाकर रखा था मकसूदन ने उसे। ना। इसकी जगह कोई नहीं ले सकती – उसके गाल पर आँसुओं के साथ फिसलते चले आए काजल को पोंछते हुए उसने कहा था मन में – यही उसकी कनिया हो सकती थी, यही उसकी कनिया है।
लेकिन उस दिन चार साल के बच्चे की तरह रोने वाली उसकी कनिया धीरे-धीरे गाँव वालों के, बिरादरी के ताने सुन-सुनकर बुढ़ाने लगी थी, खतम होने लगी थी। ताने सुनकर आँसू नहीं गालियाँ निकलने लगी थीं, चेहरे के भोलेपन में खिंचाव आ गया था, उदास या मुस्कुराने वाले होंठ बड़बड़ाते रहते थे, चिढ़े-चिढ़े, खिंचे-खिंचे से – लेकिन मकसूदन के लिए फिर भी वही उसकी कनिया थी। उसी दिन वाली, जिसे बैलगाड़ी पर ब्याह कर घर लाया था। आज भी।

उसे पता ही न चला कब उसके हाथों ने कनिया के चेहरे पर बिखरे बालों को पीछे समेट दिया। डेढ़ महीने में फिर से नई होने लगी है उसकी कनिया – हो भी क्यों न, नई-नई माँ जो बनी है!
तरकारी से रोटी छुआती कनिया हल्के से मुस्कुरा दी।
“बुढ़ा गए लेकिन प्यार जताना नहीं छोड़ा?”
“बुढ़ाएँ मेरे दुश्मन!”
“पर बाल तो तुम्हारे सफेद हुए हैं, बुढ़ाएँ फिर दुस्मन कैसे, मुनिया के बापू?”
“बाल तो तेरे भी पक हैं मुनिया की माँ”
“तो दोनों ही बुढ़ा गए मुनिया के बापू” – और दोनों ही खिलखिलाकर हँस पड़े।
उन दोनों की वह उन्मुक्त हँसी दम साधे उनकी बातें सुनती बाया के पूरे बदन में गुदगुदाती चली गई थी। और चोरी पकड़े जाने के डर से उसने अपने-आपको तो बड़ी मुश्किल से ज़ब्त कर लिया था पर किनारे पर पड़ी कुछ लापरवाह लहरें फिर भी मचल ही पड़ी थीं। बाया की इस हालत पर काली रात को हँसी आ गई थी और आकाश में दो-चार तारे चमक गए थे।
रात लम्बी थी और मकसूदन की कनिया को घर जाना था। मुनिया को मकसूदन के हाथों में पकड़ा वह थोड़ी दूर जाकर मुँह-हाथ धोने लगी।
अचानक खेत में कुछ हलचल हुई। बाईं ओर से दो-तीन जानवर घुसे थे। मुनिया को वहीं पगडंडी पर लालटेन के बगल में रख मकसूदन एक हाथ में लाठी, एक हाथ में कपड़ा लहराता हो-हो कर खेतों में जा घुसा।
उसी वक़्त जाने कहाँ से नशे में धुत्त लोगों से भरी, धूल उड़ाती एक जीप पगडंडी को रौंदती हुई गुज़र गई। लालटेन गिर पड़ा, सफेद धूल एक भयानक तेज़ी से लाल हो गई और बाया ने दिल दहला देने वाली एक डरावनी, ह्रदय-विदारक चीख सुनी।
कनिया के हाथ का लोटा तेज़ी से लुढ़कता-लुढ़कता बाया में आ गिरा और कनिया उस लाल धूल में ‘मुनिया-मुनिया’ कर जा गिरी।
बाया आज भी वो दृश्य याद कर चंचल हो उठती है। जीप से उतरकर वो चार लोग उस तड़पती माँ के पास आए थे। मुनिया के रौंदे हुए शरीर को अपने-आप में घुसाए मुनिया की माँ बदहवास सी उसके निकलते खून पर मिट्टी डाल रही थी। मिट्टी डालने से खून का निकलना बंद हो जाएगा।
अभागा मकसूदन भी तभी पहुँचा था – दौड़ता-हाँफता – लेकिन यहाँ आकर लुट जाएगा, जानता न था।
जीप के चारों सवार बच्ची को माँ से अलग करने की कोशिश कर रहे थे। मकसूदन खड़ा रहा – कनिया को देखता – मुनिया को देखता – सुन्न।
लेकिन जीप के सवार सुन्न नहीं थे। नशे में धुत थे पर जानते थे कि क्या करना है। बच्ची को माँ से छुड़ाया गया और तेज़ी से लुढ़कते लोटे की तरह बाया में लुढ़का दिया गया। और फिर उस अर्द्ध-विक्षिप्त माँ को उसके अभागे मकसूदन के सामने औरत होने की नंगी सज़ा दी गई। दो जोड़ी हाथों ने मकसूदन को पकड़ा और दो जोड़ी हाथों से मकसूदन की कनिया मसली गई – एक-एक कर।
बाया हरहराई, छ्टपटाई, लहरों को इधर-उधर पटका, तिलमिलाई और आख़िर में रो पड़ी – उजले आँसू वाली रुलाई।
उस रात उस काली रात में जाने कितने धब्बे पड़ गए जिसे उसने आज तक नहीं धोया।
फिर कई दिनों तक सुना मैंने – ‘मकसूदन की कनिया पगला गई है’, ‘कनिया ने अपना ही बच्चा नदी में फेंक दिया’ ‘अरे, एक रात खेतों वाली चुड़ैल आ गई उसपर और उससे उसका बच्चा नदी में फिंकवा दिया, तभी से पागल हो गई है बेचारी मुनिया की माँ, नहीं-नहीं, मकसूदन की कनिया’
और मकसूदन? आया था अगले दिन मालिक के पास। जुहार लेकर। बड़े मालिक से कहा भी लेकिन बड़े मालिक ने ठीक ही कहा – ‘अब तो जो होना था वो हो गया मकसूदन, देवी का आसिरवाद थी मुनिया, देवी ने बुला लिया वापस। अब कचहरी-मुकदमा करके क्या फायदा? जहाँ तक मुनिया की माँ का सवाल है..........
‘अब कौन सी मुनिया की माँ साहेब’ – भीगी पलकों ने आँसुओं को पतझड़ के पत्तों की तरह टपका दिया।
‘हमदर्दी है तुमसे मकसूदन। पर तुम बताओ कचहरी जाने से कनिया ठीक हो जाएगी? नहीं न। कनिया इलाज कराने से ठीक होगी। हमारा प्रायश्चित यही होगा मकसूदन। गलती हमारी है, प्रायश्चित तो करने दो। कुछ दिन हॉस्पीटल में रहेगी, बिल्कुल ठीक हो जाएगी तुम्हारी कनिया।’
लेकिन कनिया फिर कभी ठीक नहीं हुई और न ही मकसूदन ने उसे हॉस्पीटल भेजा। मेरी कनिया मेरे पास रहकर ठीक हो जाएगी। बच्ची तो छीन ही ली भगवान ने उससे, अब मैं भी उससे दूर हो जाऊँ? इतना बड़ा अतियाचार उसे अकेले सहने दूँ! ना-ना, मैं हमेशा उसके पास रहूँगा।
लेकिन कनिया अब किसी के पास न जाती थी। दूर-दूर रहती। कहीं किसी खेत में कुछ ढूँढती रहती, कहीं पगडंडियों पर बैठे दोनों हाथों से पगडंडी की देह छीलती रहती, कभी मचान पर खड़े होकर जोर-जोर से ‘मुनिया के बापू’ को पुकारती, घर नहीं जाती और रात भर बाया के किनारे बैठकर टकटकी लगाए उसे देखती रहती, कभी-कभी बाया के भीतर हाथ ले जाकर तैरते शैवालों के बीच कुछ टटोलती, कुछ पकड़ने की कोशिश करती और हाथ के खाली रह जाने पर झुंझलाती, चिल्लाती और फिर गुस्से में उठकर चली जाती।
बाया सहमी सी, असहाय उसे पैर पटकते जाते हुए देखती रह जाती।
और उसके पीछे-पीछे होता उसका पति, उसकी मुनिया का बापू – जो उसे समझा-बुझाकर घर चलने को कहता – पहले प्यार से पुचकारता, समझाता, फिर झिड़कता और फिर गोद में उठाकर चल देता।
बाया को समझ नहीं आता कि वह उन दोनों पर आँसू बहाए या ख़ुद पर, जो उस रात ख़ून से लथपथ एक बच्ची को लीलकर भी लाल नहीं हुई और जो आज भी ख़ून के आँसू रोते उस आदमी को देखकर लाल नहीं हो पा रही।
हर दिन और रात का यही सिलसिला था। फिर एक रात मुनिया का हाथ पकड़ने की आस में मुनिया की माँ भी उस काली रात में समा गई – अंधेरिया रात की आख़िरी रात – ‘छपाक’ के कुछ ही देर बाद जल्दी से एक और ‘छपाक’ का स्वर। अंधेरी बाया में मकसूदन ने अपनी कनिया को बहुत ढूँढा, घंटों उस कालेपन में बाया के शरीर में घुमड़ता रहा, बिछलता रहा, आवाज़ लगाता रहा पर उसके हाथ पानी के छल्लों के अलावा कुछ नहीं आया। मुनिया की अंगुली पकड़ने की आस में मुनिया की माँ के हाथ से अपनी मुनिया के बापू की गोद छूट गई।
पर बाया से कुछ न छूट पाया – न वो पगडंडी, न बाँस के झुरमुट, न खेत, न मचान और न मकसूदन।
जब शाम होती और गोधूली बेला में यादों की राख धूल के साथ उड़ने लगती तो बाया उसके पदचापों को सुनती – सर झुकाए, बाँस के सहारे बैठा वह भी बाया में कुछ ढूँढता रहता और अपनी तेज़ चलती लहरों के बीच चुपचाप, मूक खड़ी बाया भी उसमें कुछ ढूँढती रहती।

दूर से मकसूदन को कोई पुकारता – कभी चाची, कभी चाचा, कभी गाँव का कोई आदमी - और मकसूदन चुपचाप उठ जाता – उसी बाया के किनारे से होकर, उसी पगडंडी से चलकर, उन्हीं खेतों के बीच से – पर न तो किसी को समझाता-पुचकारता, न किसी को झिड़कता, न किसी को गोद में उठाए।
वो बाया की ओर पीठ किए चलता जाता और बाया अपराध भावना से भरकर, तेज़ी से, अपनी गोद खाली करने के लिए दौड़ने लगती।