Saturday, April 30, 2011

बाया

उस काली रात में बाया नदी ने चुपके-चुपके कई उजले आँसू बहाए थे जिसकी ज़िंदा रौशनी की चकाचौंध आज भी मुझे अपनी आँखें बंद करने को मजबूर कर देती है।
ये कहानी जहाँ से शुरु होती है उस वक़्त वहाँ बहुत खुशहाली थी। घर में काफी चहल-पहल थी। महिलाओं का गाना-बजाना चल रहा था, पुरुष भी थोड़ी दूर पर बैठे इसका मज़ा ले रहे थे, बच्चे उछलकूद मचा रहे थे। सभी खुश थे। बच्चे की छट्ठी थी। महिलाओं के गानों, पुरुषों के ठहाकों और बच्चों के शोर का जादू अगल-बगल झुंड में खड़े बाँस के पेड़ों पर भी छा रहा था और वे भी झूम-झूमकर मानो इस उत्सव का आनंद ले रहे थे। ये मकसूदन का घर था। बाँस के झुरमुटों के बीच उगी एक झोपड़ी जिसका रोम-रोम आज पुलकित था।

काफी मन्नतों के बाद मकसूदन की पत्नी की गोद भरी थी। पत्नी का नाम क्या था खुद उसे छोड़कर किसी को भी नहीं पता था, शायद वो भी अब तक अपनी उस पहचान को भूल चुकी थी। पूरे गाँव के लिए वो ‘मकसूदन की कनिया’ थी।

लेकिन ये कहानी मकसूदन की कनिया की नहीं है, न ही उस अभागे मकसूदन की। ये कहानी है उन आँसुओं को रोती बाया की जो आज भी किसी काली रात की आहट से घबराती है और गरदन तक अपना सर नदी में घुसाए निश्चिंत बाँस के झुरमुटों में अपने पूरे वज़ूद समेत छिप जाना चाहती है, मानो वो रात अपना काला आँचल उसके सामने फैलाकर उससे पूछ बैठेगी – क्यों उस रात तू सूख न गई बाया?

वो रात मकसूदन खेत पर था। अंधेरिया रात थी और उसकी कनिया एक हाथ में खाना-लालटेन पकड़े, दूसरे से डेढ़ महीने के बच्चे को गोद में सम्हाले जल्दी-जल्दी पगडंडियों से होकर खेत पर जा रही थी। दूर-दूर तक कोई न था। बस लहलहाते खेत और लहलहाती बाया – दोनों के बीच कनिया के नंगे पैरों का फटाफट निशान लेती सफेद धूल से सनी, चौड़ी, लहराती पगडंडी।
मचान पर बैठे मकसूदन ने अपनी कनिया को आते देखा तो नीचे उतरकर खेत के बाहर आ गया।
“अरे, इसे क्यों ले आई?”
“किसे?”
“मुनिया को”
“तो क्या वहाँ छोड़ आती?”
“चाची को दे आती। कुछ ही देर की तो बात थी। इसे एक हाथ में उठाए-उठाए तुझे कितनी परेशानी हुई होगी”
“अपना कलेजा उठाने में कभी किसी को परेसानी होती है, मुनिया के बापू? ई न होती तो अबतक हम खतम हो गए होते”
सचमुच। मकसूदन जानता है अगर देबी ने अबकी आसीरबाद न दिया होता तो जान तो खतम ही थी कनिया की। छ: साल इंतजार! कौन जनाना कर सकी है आजतक? इंतजार तो उसने भी किया था, नहीं तो बिरादरी वाले तो तीन साल बाद से ही उसके पीछे पड़ गए थे। नई बहू ले आ मकसूदन, इस लुगाई से तुझे कुछ नहीं मिलने वाला। रामकिरपाल चाचा ने तो एक जगह बात भी बढ़ा दी थी। कितना रोई थी उस दिन उसकी कनिया। चार साल के बच्चे की तरह। रात भर सीने से चिपटाकर रखा था मकसूदन ने उसे। ना। इसकी जगह कोई नहीं ले सकती – उसके गाल पर आँसुओं के साथ फिसलते चले आए काजल को पोंछते हुए उसने कहा था मन में – यही उसकी कनिया हो सकती थी, यही उसकी कनिया है।
लेकिन उस दिन चार साल के बच्चे की तरह रोने वाली उसकी कनिया धीरे-धीरे गाँव वालों के, बिरादरी के ताने सुन-सुनकर बुढ़ाने लगी थी, खतम होने लगी थी। ताने सुनकर आँसू नहीं गालियाँ निकलने लगी थीं, चेहरे के भोलेपन में खिंचाव आ गया था, उदास या मुस्कुराने वाले होंठ बड़बड़ाते रहते थे, चिढ़े-चिढ़े, खिंचे-खिंचे से – लेकिन मकसूदन के लिए फिर भी वही उसकी कनिया थी। उसी दिन वाली, जिसे बैलगाड़ी पर ब्याह कर घर लाया था। आज भी।

उसे पता ही न चला कब उसके हाथों ने कनिया के चेहरे पर बिखरे बालों को पीछे समेट दिया। डेढ़ महीने में फिर से नई होने लगी है उसकी कनिया – हो भी क्यों न, नई-नई माँ जो बनी है!
तरकारी से रोटी छुआती कनिया हल्के से मुस्कुरा दी।
“बुढ़ा गए लेकिन प्यार जताना नहीं छोड़ा?”
“बुढ़ाएँ मेरे दुश्मन!”
“पर बाल तो तुम्हारे सफेद हुए हैं, बुढ़ाएँ फिर दुस्मन कैसे, मुनिया के बापू?”
“बाल तो तेरे भी पक हैं मुनिया की माँ”
“तो दोनों ही बुढ़ा गए मुनिया के बापू” – और दोनों ही खिलखिलाकर हँस पड़े।
उन दोनों की वह उन्मुक्त हँसी दम साधे उनकी बातें सुनती बाया के पूरे बदन में गुदगुदाती चली गई थी। और चोरी पकड़े जाने के डर से उसने अपने-आपको तो बड़ी मुश्किल से ज़ब्त कर लिया था पर किनारे पर पड़ी कुछ लापरवाह लहरें फिर भी मचल ही पड़ी थीं। बाया की इस हालत पर काली रात को हँसी आ गई थी और आकाश में दो-चार तारे चमक गए थे।
रात लम्बी थी और मकसूदन की कनिया को घर जाना था। मुनिया को मकसूदन के हाथों में पकड़ा वह थोड़ी दूर जाकर मुँह-हाथ धोने लगी।
अचानक खेत में कुछ हलचल हुई। बाईं ओर से दो-तीन जानवर घुसे थे। मुनिया को वहीं पगडंडी पर लालटेन के बगल में रख मकसूदन एक हाथ में लाठी, एक हाथ में कपड़ा लहराता हो-हो कर खेतों में जा घुसा।
उसी वक़्त जाने कहाँ से नशे में धुत्त लोगों से भरी, धूल उड़ाती एक जीप पगडंडी को रौंदती हुई गुज़र गई। लालटेन गिर पड़ा, सफेद धूल एक भयानक तेज़ी से लाल हो गई और बाया ने दिल दहला देने वाली एक डरावनी, ह्रदय-विदारक चीख सुनी।
कनिया के हाथ का लोटा तेज़ी से लुढ़कता-लुढ़कता बाया में आ गिरा और कनिया उस लाल धूल में ‘मुनिया-मुनिया’ कर जा गिरी।
बाया आज भी वो दृश्य याद कर चंचल हो उठती है। जीप से उतरकर वो चार लोग उस तड़पती माँ के पास आए थे। मुनिया के रौंदे हुए शरीर को अपने-आप में घुसाए मुनिया की माँ बदहवास सी उसके निकलते खून पर मिट्टी डाल रही थी। मिट्टी डालने से खून का निकलना बंद हो जाएगा।
अभागा मकसूदन भी तभी पहुँचा था – दौड़ता-हाँफता – लेकिन यहाँ आकर लुट जाएगा, जानता न था।
जीप के चारों सवार बच्ची को माँ से अलग करने की कोशिश कर रहे थे। मकसूदन खड़ा रहा – कनिया को देखता – मुनिया को देखता – सुन्न।
लेकिन जीप के सवार सुन्न नहीं थे। नशे में धुत थे पर जानते थे कि क्या करना है। बच्ची को माँ से छुड़ाया गया और तेज़ी से लुढ़कते लोटे की तरह बाया में लुढ़का दिया गया। और फिर उस अर्द्ध-विक्षिप्त माँ को उसके अभागे मकसूदन के सामने औरत होने की नंगी सज़ा दी गई। दो जोड़ी हाथों ने मकसूदन को पकड़ा और दो जोड़ी हाथों से मकसूदन की कनिया मसली गई – एक-एक कर।
बाया हरहराई, छ्टपटाई, लहरों को इधर-उधर पटका, तिलमिलाई और आख़िर में रो पड़ी – उजले आँसू वाली रुलाई।
उस रात उस काली रात में जाने कितने धब्बे पड़ गए जिसे उसने आज तक नहीं धोया।
फिर कई दिनों तक सुना मैंने – ‘मकसूदन की कनिया पगला गई है’, ‘कनिया ने अपना ही बच्चा नदी में फेंक दिया’ ‘अरे, एक रात खेतों वाली चुड़ैल आ गई उसपर और उससे उसका बच्चा नदी में फिंकवा दिया, तभी से पागल हो गई है बेचारी मुनिया की माँ, नहीं-नहीं, मकसूदन की कनिया’
और मकसूदन? आया था अगले दिन मालिक के पास। जुहार लेकर। बड़े मालिक से कहा भी लेकिन बड़े मालिक ने ठीक ही कहा – ‘अब तो जो होना था वो हो गया मकसूदन, देवी का आसिरवाद थी मुनिया, देवी ने बुला लिया वापस। अब कचहरी-मुकदमा करके क्या फायदा? जहाँ तक मुनिया की माँ का सवाल है..........
‘अब कौन सी मुनिया की माँ साहेब’ – भीगी पलकों ने आँसुओं को पतझड़ के पत्तों की तरह टपका दिया।
‘हमदर्दी है तुमसे मकसूदन। पर तुम बताओ कचहरी जाने से कनिया ठीक हो जाएगी? नहीं न। कनिया इलाज कराने से ठीक होगी। हमारा प्रायश्चित यही होगा मकसूदन। गलती हमारी है, प्रायश्चित तो करने दो। कुछ दिन हॉस्पीटल में रहेगी, बिल्कुल ठीक हो जाएगी तुम्हारी कनिया।’
लेकिन कनिया फिर कभी ठीक नहीं हुई और न ही मकसूदन ने उसे हॉस्पीटल भेजा। मेरी कनिया मेरे पास रहकर ठीक हो जाएगी। बच्ची तो छीन ही ली भगवान ने उससे, अब मैं भी उससे दूर हो जाऊँ? इतना बड़ा अतियाचार उसे अकेले सहने दूँ! ना-ना, मैं हमेशा उसके पास रहूँगा।
लेकिन कनिया अब किसी के पास न जाती थी। दूर-दूर रहती। कहीं किसी खेत में कुछ ढूँढती रहती, कहीं पगडंडियों पर बैठे दोनों हाथों से पगडंडी की देह छीलती रहती, कभी मचान पर खड़े होकर जोर-जोर से ‘मुनिया के बापू’ को पुकारती, घर नहीं जाती और रात भर बाया के किनारे बैठकर टकटकी लगाए उसे देखती रहती, कभी-कभी बाया के भीतर हाथ ले जाकर तैरते शैवालों के बीच कुछ टटोलती, कुछ पकड़ने की कोशिश करती और हाथ के खाली रह जाने पर झुंझलाती, चिल्लाती और फिर गुस्से में उठकर चली जाती।
बाया सहमी सी, असहाय उसे पैर पटकते जाते हुए देखती रह जाती।
और उसके पीछे-पीछे होता उसका पति, उसकी मुनिया का बापू – जो उसे समझा-बुझाकर घर चलने को कहता – पहले प्यार से पुचकारता, समझाता, फिर झिड़कता और फिर गोद में उठाकर चल देता।
बाया को समझ नहीं आता कि वह उन दोनों पर आँसू बहाए या ख़ुद पर, जो उस रात ख़ून से लथपथ एक बच्ची को लीलकर भी लाल नहीं हुई और जो आज भी ख़ून के आँसू रोते उस आदमी को देखकर लाल नहीं हो पा रही।
हर दिन और रात का यही सिलसिला था। फिर एक रात मुनिया का हाथ पकड़ने की आस में मुनिया की माँ भी उस काली रात में समा गई – अंधेरिया रात की आख़िरी रात – ‘छपाक’ के कुछ ही देर बाद जल्दी से एक और ‘छपाक’ का स्वर। अंधेरी बाया में मकसूदन ने अपनी कनिया को बहुत ढूँढा, घंटों उस कालेपन में बाया के शरीर में घुमड़ता रहा, बिछलता रहा, आवाज़ लगाता रहा पर उसके हाथ पानी के छल्लों के अलावा कुछ नहीं आया। मुनिया की अंगुली पकड़ने की आस में मुनिया की माँ के हाथ से अपनी मुनिया के बापू की गोद छूट गई।
पर बाया से कुछ न छूट पाया – न वो पगडंडी, न बाँस के झुरमुट, न खेत, न मचान और न मकसूदन।
जब शाम होती और गोधूली बेला में यादों की राख धूल के साथ उड़ने लगती तो बाया उसके पदचापों को सुनती – सर झुकाए, बाँस के सहारे बैठा वह भी बाया में कुछ ढूँढता रहता और अपनी तेज़ चलती लहरों के बीच चुपचाप, मूक खड़ी बाया भी उसमें कुछ ढूँढती रहती।

दूर से मकसूदन को कोई पुकारता – कभी चाची, कभी चाचा, कभी गाँव का कोई आदमी - और मकसूदन चुपचाप उठ जाता – उसी बाया के किनारे से होकर, उसी पगडंडी से चलकर, उन्हीं खेतों के बीच से – पर न तो किसी को समझाता-पुचकारता, न किसी को झिड़कता, न किसी को गोद में उठाए।
वो बाया की ओर पीठ किए चलता जाता और बाया अपराध भावना से भरकर, तेज़ी से, अपनी गोद खाली करने के लिए दौड़ने लगती।

Thursday, April 21, 2011

सुहानी सी खुशियाँ

बारिश में भीगे
हल्के-हल्के हिलते पत्तों सी,
हवा में खुद को सुखाती
भूरी गौरैया के पंखों सी,
बड़ी-बड़ी खिड़कियों के
लम्बे-लम्बे परदों सी,
दादी की खुली
सफेद, रेशमी ज़ुल्फ़ों सी,
बूढ़े से काका की
खिलखिलाती, पोपली हँसी सी
दाँतों के बग़ैर
होठों में कहीं फँसी सी,
चश्मा हटाती
माई के हाथों सी
पतली सी अंगुलियों
और झुर्रीदार आँखों सी,
नानी के बनाए
गरम-नरम स्वेटर सी,
कमरे में लोगों से
घिरे हुए हीटर सी,
आटा-मिल के
नौ बजे के सायरन सी,
सरदी की हवा में
शॉल के अन्दर सिहरन सी,
राख़ के भीतर चूल्हे में
जलते अंगारों सी,
मेले में सजे हुए
हलचल बाज़ारों सी,
गरमी की छुट्टियों में
बन्द पड़े स्कूलों सी,
आधे खिले-आधे बन्द
पॉप्पी के फूलों सी,
ये दिल की दुनिया
होठों के सरगम,
जीवन के नदी-ताल
सपनों की धड़कन,
कित-कित के खेल सी
सुहानी सी खुशियाँ,
ईश्वर की इनायत या
कोई अपनी ही दुआ।

Monday, April 11, 2011

रिटायरमेंट डे

सरोजिनी नगर सी-ब्लॉक के गेट के सामने की सड़क को एक महिला तेज़ी से पार करती है। सामने दूसरी तरफ एक सफेद रंग की चार्टर्ड गाड़ी खड़ी है। महिला तेज़ी से उस बस के पहले पायदान पर चढ़ती है। खिड़की के पास बैठा आदमी कहता है – “अरे मैडम आज भी देर कर दी आपने आने में! लेकिन आज मैंने पूरे पाँच मिनट तक आपकी वेट की है। आज तो ख़ास दिन है!” – अंतिम वाक्य को मुँह में अदा से गोल -गोल घुमाते हुए कहा।
पायदान पर खड़ी मैडम की साँस धीमे होकर एकाएक फक-फक कर चलने लगी। एक अजीब बिखरी हुई अफरा-तफरी की आदत हो गई थी, जो ज़िन्दगी में समा गई थी और कब छूटते हुए मिनटों के पीछे भागना ही दिन की शुरुआत और रात का रुटीन बन गया था, सच में मैडम को पता ही नहीं चल था। बस के हेल्पर के साथ बैठे आदमी ने तपाक से कहा – “आज क्या बात है, भई!” “आज मैडम का आखिरी दिन है” मैडम अपने हाथों से पर्स को भींचकर बस में बैठे हर शख़्स की ओर मुस्कुराते हुए सबसे पीछे की सीट पर कोने में खिड़की के पास छिपकर बैठ गईं। उनके आगे की सीट पर तीन औरतें बैठी थीं। एक थीं मिसेज सक्सेना, दूसरी मिसेज सिब्बल, तीसरी मिसेज घोष। मिसेज घोष मुड़कर, मुस्कुराते हुए कहने लगीं – “आज आप रिटायर हो रही हैं। कितने साल हो गए आपको?” “तैंतीस साल” “वाह! आज तो आप आराम से जा सकती थीं, आज जल्दी क्यों जा रही हैं?” “यूँ हीं” “अच्छा है.......” “कितने बच्चे हैं आपके?” “जी...मैं शादीशुदा नहीं हूँ, मतलब मैंने शादी नहीं की है” “अरे, आप तो सरकारी क्वार्टर में रहती हैं न! फिर आप कहाँ रहेंगी? परिवार में बाकी लोग.....” “जी, कोई नहीं” – जब बहुत कुछ विस्तार से कहने का मन नहीं करे तो बस कुछ शब्द चुनकर सामने वाले के मुँह पर पोथ देने की मैडम की पुरानी आदत थी।
मैडम बाहर की तरफ देखने लगती हैं। उन्हें पता नहीं था कि मिसेज घोष अभी भी उन्हें ही देख रही होती हैं। आँखों के किनारे कभी इतने ऊँचे हो जाते हैं कि जने कितने नमकीन समन्दर समा जाते हैं उसमें। आज पानी फिर तैर गया। शायद पानी को आदत हो गई है बांध तोड़कर बाहर न आने की।
आज मैडम बाहर देख रही हैं बड़े गौर से सभी चीज़ों को। ट्रैफिक, गाड़ियाँ, पेड़, सड़क, दुकानें। आज लग रहा था उन्हें कि यह सब मेरे आसपास घूम रहा है, तेज़ी से, नज़रें टिक नहीं पा रही हैं, देखने को एक नया पल मिला था। कभी पल ही चीज़ों को नए सिरे से देखने के लिए मजबूर करते हैं। आज उन्होंने मिसेज घोष, सक्सेना व सिब्बल को भी घूर कर देखा, इसलिए नहीं कि अपने खालीपन को दिखाने के लिए चेहरे पर तनाव और ईर्ष्या लिए घूमें लेकिन इसलिए कि शायद यूँ हीं। बस ऑफिस के बाहर रुकी। मैडम उतरकर ऑफिस बिल्डिंग की तरफ जाने लगीं। मन में चाह उठी ‘काश! यह बिल्डिंग ग्रे नहीं लाल होती! यहाँ पार्किंग नहीं छोटी-छोटी घास....’ इन्हीं चाहतों की तरंगों को गेट कीपर ने तोड़ा – “गुडमार्निंग मैडम! आज के दिन की बधाई” – साथ में खड़े साथी ने टोका – “बुद्धू बधाई नहीं देते हैं आखिरी दिन की”- आज गेट पर दुबारा दबा-कुचला, मुरझाया हुआ आखिरी दिन लपककर, मैडम पर चिपककर उनकी गर्दन पर जा बैठा। उस दिन को गले से छुड़ाते हुए मैडम बोलीं – “अरे, कोई बात नहीं। और, कैसे हैं?” “ठीक हैं!”
“जी, आशीर्वाद है आपका” “अरे नहीं नहीं”
मैडम ने चौथी मंजिल के लिए लिफ्ट का बटन दबाया। लिफ्ट चलने ही वाली थी कि मिस्टर चक्रवर्ती सामने से भागते हुए आए और साथ में मिस्टर पांडे थे। लिफ्ट चली और बात फिर चली।
“मैडम आज तो आखिरी दिन है। आगे का क्या सोचा, कहाँ रहना है” “कहाँ रहना मतलब, मिस्टर चक्रवर्ती?” – पांडे जी ने चौंककर कहा। “मैडम ने शादी नहीं बनाया और कोई नहीं है इनका, ऐसा सुनने में आया है मैडम” “जी.........अभी तो सरकारी क्वार्टर में ही रहना होगा” लिफ्ट रुकी। मैडम थोड़ा आगे निकलीं तो केश के शर्मा जी आखिरी दिन के कुछ पेपर साइन करने के लिए मैडम को थमा गए। मैडम के कानों में दुबारा आवाज़ पड़ी –
“यार एक बात बता। लोग बिना शादी किए रह कैसे जाते हैं, जीते कैसे हैं! इतने पैसों का क्या करेंगे.........” “अरे, मैडम तो कुँवारी ही रिटायर हो गईं” “ये लोग पैसे वैसे का क्या करेंगे, न बाल न बच्चा, न परिवार, कैसा लगता होगा” किसने क्या कहा – यह मायने नहीं रखता, रखता तो केवल यह कि कहा गया। मैडम के साइन करते हुए हाथ लड़खड़ाने लगे। लगा, ये काली स्याही फैलकर, सांप बन पूरे कागज़ पर रेंग रही है। मैडम ने पेपर छ्टक दिया। आसपास देखकर दुबारा नीचे पड़े पेपर को उठाया और साइन कर दिया। मैडम सेक्शन में पहुँचीं और अपने टेबल पर बैठ गईं। बैठकर अहसास हुआ कि यह भी आखिरी बार। ड्रॉअर खोला – सामने तीन रिनॉल्ड्स, दो रबर, टैग का एक गुच्छा, दो व्हाइटनर, आलपीन की दो डिब्बियाँ रखीं थीं। मैडम ने स्टेपलर उठाया। वह सोच रहीं थीं कितनी ही बार इसमें पिन फँसा था। ड्रॉअर में रखे फोल्डर को निकालकर देखा और पुराने रद्दी पेपरों को फाड़ने लगीं। एक मोटी तहों वाले बंडल को फाड़ते-फाड़ते वे उस पेपर पर पहुँचीं जहाँ से शुरुआत हुई थी। मैडम की ज्वॉइनिंग रिपोर्ट। सतीश ने टाइप की थी यह। अपने घर के टाइपराइटर पर। फिर उस दिन से ठीक पाँच दिन बाद वो हुआ जो अभी भी मैडम में ज़िंदा है। उनकी सादगी में एक हताशा है, उनके बेरंग कपड़ों में काली स्याह भावों का धुआँ है, मशीन की ज़िन्दगी में कसमसाहट है, ऊब है।
मैडम अपने हाथों के पोरों से उस कागज़ के अक्षर पर अक्षर बनाने लगीं। मानों हाथ कह रहे हों ‘अक्षर को कालापन उसका भाव नहीं देता, अक्षर तो हवा में बनने वाले घेरे हैं जो दिखाई नहीं देते लेकिन उनके पीछे हाथ घूमता है तो लगता है अक्षर हवा में तैर रहे हों। मैडम को टोकने फिर कुछ लोग आते हैं जो फिर वही बातें करते हैं – कितने साल, कब आई, कैसे, कहाँ, क्यूँ, अब आगे क्या, जो हुआ क्या वो अच्छा वो बुरा, कैसे वक्त बीता.................................??? रिटयरमेंट पार्टी बैठक कक्ष में हुई। कुछ लोग आए, कुछ घर गए पार्टी जो थी – क्या करना है जाकर.......... मैडम के लिए दो शब्द केवल बनावटी, अच्छे वाले....................देने को एक फॉरमैलिटी के तौर पर बेडशीट कढ़ाई वाली। मैडम आज फिर चुप थीं, केवल मुस्कुरा रही थां। यह तो ज़रूरी था। फॉरमैलिटी आ जाए तो ज़िन्दगी को फॉर्मल तरीके से ढका जा सकता है नहीं तो चेहर और ज़िन्दगी इन्फॉर्मल होकर रह जाती है। यानि खाने के साथ प्रोसे जाने वाला अचार जो गप्पियों और ठहाकाबाज़ों की चुस्की होती है।
पार्टी में दो शब्द के तौर पर सहायक निदेशक महोदय श्री शुक्ला ने कहा - “मैडम कर्मठ कर्मचारी थीं। काम को उन्होंने पूजा................” मैडम की आँखें मिसेज खन्ना पर टिक गईं। उनकी लिपस्टिक से पुते होठों पर कुढ़न लिपग्लॉस का काम कर रही थी। मैडम जानती थीं वह मन में कह रही होंगीं – “हर टाइम तो ऑफिस में सड़ी रहती है यह लेडी! हमारा तो घर है, परिवार है। ये छुट्टी नहीं लेती, इसका है कौन........काम नहीं करेगी तो टाइम पास कैसे होगा” “हम मैडम की आगे की स्वस्थ और खुशहाल ज़िन्दगी की कामना करते हैं........................।”
पार्टी हुई, मैडम को कहा गया आते रहना, सबने कहा अच्छा समय बीता.......एक फॉरमैलिटी और थी....सरकारी गाड़ी घर पर छोड़ने जाती है....मैडम के साथ गाड़ी में कोई नहीं गया........यूँ हीं। फॉरमैलिटी के तौर पर शब्द कहे जा सकते हैं लेकिन शायद ज़िन्दगी को इन फॉरमल शब्दों के सहारे छोड़ा नहीं जा सकता, ज़िन्दगी जी जाती है या ज़िन्दगी को कभी जीना पड़ता है।
आज मैडम के क्वार्टर की खिड़की से चांद झाँक रहा था और मैडम एक पुरानी किताब के पन्नों में रखे गुलाब के सूखे फूल को हाथों से छू रही थीं। उस रात चांद उस खिड़की पर ही ठहर गया। मैंने चांद से पूछ, “ऐसा क्यों”, उसने भी कहा, “यूँ हीं”