मैं शब्दों के मोहजाल नहीं बिछा सकता,
क्योंकि मैं कवि नहीं हूँ
मैं एक आम आदमी हूँ।
पंक्तियों पे पंक्तियाँ नहीं बिठा सकता
क्योंकि मैं इन्हें बनाना नहीं चाहता
बस ये बनती चली जाती हैं।
इनके बनने में मेरा सिर्फ एक योगदान है
कि मुझे हिन्दी लिखनी आती है।
आम आदमी होने का अनुभव
स्वयं में एक कविता है।
लेकिन कविता ख़ूबसूरती की नहीं,
बदसूरती की भी नहीं
वह कविता सिर्फ रेंग सकने की आपाधापी है
वह कविता ज़िन्दगी से जूझती नहीं
बल्कि ज़िन्दा रहने की कशमकश है।
यह वह कविता है जो ज़िन्दा तो है
पर कब मर जाए कोई ठिकाना नहीं।
और मरने वाला चाहे और कुछ भी हो
पर ख़ूबसूरत नहीं होता।
और इसीलिए
मैं अपनी कविता में शब्दों के मोहजाल नहीं बिछा पाता,
पंक्तियों पे पंक्तियाँ नहीं बिठा पाता।
Wednesday, September 16, 2009
Monday, September 7, 2009
मन के भीतर कोलाहल में...
मन के भीतर कोलाहल में
जब तेरा चेहरा आए
मैं चुपके से दिल में सोचूँ
तनहाई ना खिंच जाए।
तेरी आँखें ख़ुशकिस्मत सी
जब चाहें तब घिर आएँ
मेरा दिल आवारा पंछी
छोड़ गया तो ना आए।
एक बार जो उठा वहाँ से
ना जाने अब कहाँ फिरे
भूल गया दिल उधर के रस्ते
तू क्यों फिर इस तरफ मिले।
मैं ना जानूँ उस मंज़िल को
जिसको राहें भूल गईं
फिर क्यों उठता है तू अक्सर
ढूंढे उसको कहाँ गई।
वो न रहा, ना होगा फिर अब
जिसको माँगे इन हाथों में
कह दे इन दोनों आँखों को
पलकें वो अब नहीं रहीं।
तेरे सहारे सभी किनारे
हाथ पसारे उसे पुकारे
पर तू ना जाने पागल रे
वो ना आए भूले-हारे।
छूटे सब जो उसके अपने
रूठे कब वो जाने सारे
मैं भी ना खोजूँ अब उसको
वो मुझको भी भूल चला रे।
ना आएगा तेरा था जो
ना आएगा इस रस्ते को
भूल गया वो भूल जा तू भी
इस जंगल को, उस कस्बे को।
तू भी जा अब मुड़ जा वापस
जा तू भी ना आना वापस
तू भी अब जा यहाँ, इधर से
जैसे वो चल दिया इधर से।
मन के भीतर कोलाहल में
भीड़-भाड़ रहने दे थोड़ी
अपने उसको पाने वापस
मत आना इस, उस, जिस पल में।
Wednesday, August 19, 2009
Tuesday, August 18, 2009
A poem written by my brother when he was 11 or 12
Yesterday in my Garden, I saw a lizard
It was walking on a tree stem and resembled a wizard
I caught it by the tail, and brought it home
And put in a box, surrounded by foam
That night, I did my homework
The next day before school
I looked at the homework
A box, in which, lay a lizard, dead
And quietly wrote "Biology class Project"
It was walking on a tree stem and resembled a wizard
I caught it by the tail, and brought it home
And put in a box, surrounded by foam
That night, I did my homework
The next day before school
I looked at the homework
A box, in which, lay a lizard, dead
And quietly wrote "Biology class Project"
Wednesday, July 22, 2009
एक सवाल मेरे अन्दर काफी दिनों से घूम रहा है। मैंने अक्सर देखा है लोगों को - बस से नीचे उतरते हैं, पॉकेट से पुराना टिकट निकालते हैं और नीचे फेंक देते हैं। खड़े-खड़े या टहलते हुए चिप्स खाते हैं और खाली हो जाने पर पैकेट वहीं फेंक देते हैं। रास्ते में भुट्टा खरीदते हैं, बड़े मज़े से खाते हैं और फिर वही - खत्म हुआ तो useless हिस्सा वहीं रास्ते में। और तो और कई बार हम गाड़ी सड़क के किनारे लगाकर अन्दर पड़ी हार्ड ड्रिंक, कोल्ड ड्रिंक या फ्लेवर्ड मिल्क की खाली बोतलें सड़क किनारे रख देते हैं - बड़े सम्हालकर, कहीं फूट ना जाएँ। इसी तरह से जाने कितने मिस्टी दही के डिब्बे, लस्सी के पैकेट, पेन के प्लास्टिक कवर आदि हमारी सड़क की शोभा बढ़ाते रहते हैं.....मानो हमारी सड़कें यूनिवर्सल डस्टबिन हों।
मैं सिर्फ एक बात जानना चाहती हूँ - क्या सड़क किनारे, बस स्टॉप या जगह-जगह खड़े डस्टबिन इतने पुराने हो चुके हैं कि हम उनका इस्तेमाल करना भूल गए हैं? या यह कोई इतनी नई-सी तकनीक है जिसका इस्तेमाल करना ही हमें नहीं आ पा रहा? ...या फिर, क्या डस्टबिन का इस्तेमाल करना ही हमारे लिए out of fashion हो चुका है?
मैं सिर्फ एक बात जानना चाहती हूँ - क्या सड़क किनारे, बस स्टॉप या जगह-जगह खड़े डस्टबिन इतने पुराने हो चुके हैं कि हम उनका इस्तेमाल करना भूल गए हैं? या यह कोई इतनी नई-सी तकनीक है जिसका इस्तेमाल करना ही हमें नहीं आ पा रहा? ...या फिर, क्या डस्टबिन का इस्तेमाल करना ही हमारे लिए out of fashion हो चुका है?
Friday, July 10, 2009
बारिश
मैं देखती हूँ
आकाश में घने, काले बादलों को
उमड़ते, घुमड़ते हुए।
अपने-आप से
इस समूचे, बड़े-से आकाश को ढकते हुए।
कुछ देर बाद ये बादल
धुआँधार पानी बरसाएँगे।
और वह पानी
हमारे खपरैल छत के बीच-बीच से होकर
हमारे घर में कई जगह टपकेगा।
घर के मिट्टी के धरातल को भीगने से बचाने के लिए
माँ
यथासंभव
हर टपकने वाली जगह पर
कोई-न-कोई बरतन रख देगी।
फिर पानी के साथ-साथ
तेज़, ठंढी हवा भी बहेगी
और हम सभी भाई-बहन
दादी के शरीर पर लिपटे शॉल में सिकुड़कर जा घुसेंगे।
तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े
अपनी-अपनी जगह से निकलकर
इधर-उधर घूमने लगेंगे,
झींगुर बोलने लगेंगे
हरे-हरे पेड़ धुलकर
चमकने लगेंगे।
फिर कुछ घंटों बाद
यह बरसात रुक जाएगी
और हर छोटे-बड़े गड्ढों, नालियों, तालाबों में
पानी भरकर
हवा के साथ कहीं और भाग जाएगी
और हमारे लिए छोड़ जाएगी
भरपूर कीचड़ से भरे रास्ते
जिसपर सम्हल-सम्हलकर चलते हुए
बाबा खेत तक जाएँगे
और उसमें रोपे गए
धान के छोटे-छोटे पौधों को देखकर
मुस्कुराएँगे।
अचानक तभी
मेरे ऊपर पानी की एक बूंद गिरती है
और मैं अचकचाकर उधर देखती हूँ
जिधर दूर से
माँ हाथ के इशारों से
मुझे बुला रही है
और बाबा ऊपर आसमान की ओर देखकर कह रहे हैं
'बरसो~बरसो'
पानी बरसने लगता है
और मैं
भाग पड़ती हूँ घर की ओर,
इससे पहले
कि मुझे भीगती देख
माँ वहाँ खड़ी-खड़ी नाराज़ हो जाए।
Thursday, July 2, 2009
तुम डरती हो
तुम डरती हो
देर तक मेरे दूर कहीं बाहर रहने से।
डरती हो
मेरे धूप में निकलने से,
मेरे कम खाने से,
मेरे अधिक पढ़ने से,
मेरे कमज़ोर पड़ने से,
बीमार पड़ने से,
मगर
मुझे जन्म देने वाली
मेरी माँ
तुम्हें बता दूँ
कि ज़िन्दा कोई नहीं रहता
यहाँ देर तक, दूर तक
सभी मरते हैं
एक दिन
मैं भी मरूँगी।
तुम्हारे
इस डर से
बहुत आगे
मैं
धूल बनकर
इसी धूप में कहीं पड़ी रहूँगी।
आज जो
तुम्हारे डरने का कारण हूँ
तुम्हारी चिंता का हिस्सा हूँ
परेशान होने की आदत हूँ
कल,
बस एक अतीत, एक किस्सा बनकर रह जाऊँगी,
लाख पकड़ने पर भी
तुम्हारे हाथ नहीं आऊँगी
तुम्हारे पास नहीं आऊँगी।
और उस दिन
तुम
बेहद ज़िद्दी, बेवकूफ, मतलबी,
अपने मामले में
हद दर्ज़े तक स्वार्थी अपनी इस बेटी
और
अपने जीवन के
इस एक पागल-से हिस्से के लिए
परेशान मत होना,
रोना मत,
इसके लिए डरना मत।
देर तक मेरे दूर कहीं बाहर रहने से।
डरती हो
मेरे धूप में निकलने से,
मेरे कम खाने से,
मेरे अधिक पढ़ने से,
मेरे कमज़ोर पड़ने से,
बीमार पड़ने से,
मगर
मुझे जन्म देने वाली
मेरी माँ
तुम्हें बता दूँ
कि ज़िन्दा कोई नहीं रहता
यहाँ देर तक, दूर तक
सभी मरते हैं
एक दिन
मैं भी मरूँगी।
तुम्हारे
इस डर से
बहुत आगे
मैं
धूल बनकर
इसी धूप में कहीं पड़ी रहूँगी।
आज जो
तुम्हारे डरने का कारण हूँ
तुम्हारी चिंता का हिस्सा हूँ
परेशान होने की आदत हूँ
कल,
बस एक अतीत, एक किस्सा बनकर रह जाऊँगी,
लाख पकड़ने पर भी
तुम्हारे हाथ नहीं आऊँगी
तुम्हारे पास नहीं आऊँगी।
और उस दिन
तुम
बेहद ज़िद्दी, बेवकूफ, मतलबी,
अपने मामले में
हद दर्ज़े तक स्वार्थी अपनी इस बेटी
और
अपने जीवन के
इस एक पागल-से हिस्से के लिए
परेशान मत होना,
रोना मत,
इसके लिए डरना मत।
Friday, June 26, 2009
चलते-चलते
चलते-चलते रुका दरख़्त बन गया है आदमी,
हँसते-हँसते बड़ा कमबख़्त बन गया है आदमी।
इसे मत रोको, मत टोको, मुसाफ़िर है,
सूनी पगडंडियों पर चलता बड़ा सख्त बन गया है आदमी।
कई ज़माने गुज़रे, कई अफ़साने गुज़रे, इसे कोई फ़िक्र नहीं,
अपने आकारों में सिमटा कोई वक़्त बन गया है आदमी।
हँसते-हँसते बड़ा कमबख़्त बन गया है आदमी।
इसे मत रोको, मत टोको, मुसाफ़िर है,
सूनी पगडंडियों पर चलता बड़ा सख्त बन गया है आदमी।
कई ज़माने गुज़रे, कई अफ़साने गुज़रे, इसे कोई फ़िक्र नहीं,
अपने आकारों में सिमटा कोई वक़्त बन गया है आदमी।
Tuesday, June 23, 2009
हमें याद करना
अफसानों के गिरेबाँ में झाँकना
तो हमें याद करना
दीवानों के कारवाँ में झाँकना
तो हमें याद करना
जब मिल ना पाए
ग़म में कोई हँसने वाला
जीने की तमन्ना में
बसने वाला
तो नज़र उठा के
आसमाँ में झाँकना
औ' याद करना।
परदों से खिड़कियों को
जो न ढक पाया
आँखों से आँसुओं में
ना बरस पाया
हो सके तो
उसके गुनाहों को
कभी माफ़ करना।
तो हमें याद करना
दीवानों के कारवाँ में झाँकना
तो हमें याद करना
जब मिल ना पाए
ग़म में कोई हँसने वाला
जीने की तमन्ना में
बसने वाला
तो नज़र उठा के
आसमाँ में झाँकना
औ' याद करना।
परदों से खिड़कियों को
जो न ढक पाया
आँखों से आँसुओं में
ना बरस पाया
हो सके तो
उसके गुनाहों को
कभी माफ़ करना।
Monday, June 22, 2009
धूप की परछाई में
सुनहरी आँखें लिए
मन की छोटी अंगुली थामे
धूल के धुएँ में घिरी
मिचमिचाती साँसें लिए
कभी सोचती हूँ
मुफ़्त की ये ज़िन्दगी
कितनी महंगी पड़ती है हमें
कभी-कभी।
गुलाबी पंखों से उड़ती
नीली- हरी रोशनी में
काले, गहरे अक्षरों की किताब पढ़ती
कभी-कभी कितना अन्धा कर देती है हमें
कि आसपास का अन्धेरा
हमें दिखता भी नहीं ।
सफेद मिट्टी के नारंगी रंग में भीगे हम
पहचान ही नहीं पाते
कि, सूखी हवा की सुगन्ध में
हम धीरे-धीरे सूखते जा रहे हैं ,
कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी देती है हमें
गीली बाल्टी से टप-टप टपकती ये ज़िन्दगी
कि,
नारंगी रंग की ये खुश्बू
हमेशा फैलती रहेगी,
मटमैले रंग का ये जीवन
हमेशा खुशनुमा रहेगा।
सुनहरी आँखें लिए
मन की छोटी अंगुली थामे
धूल के धुएँ में घिरी
मिचमिचाती साँसें लिए
कभी सोचती हूँ
मुफ़्त की ये ज़िन्दगी
कितनी महंगी पड़ती है हमें
कभी-कभी।
गुलाबी पंखों से उड़ती
नीली- हरी रोशनी में
काले, गहरे अक्षरों की किताब पढ़ती
कभी-कभी कितना अन्धा कर देती है हमें
कि आसपास का अन्धेरा
हमें दिखता भी नहीं ।
सफेद मिट्टी के नारंगी रंग में भीगे हम
पहचान ही नहीं पाते
कि, सूखी हवा की सुगन्ध में
हम धीरे-धीरे सूखते जा रहे हैं ,
कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी देती है हमें
गीली बाल्टी से टप-टप टपकती ये ज़िन्दगी
कि,
नारंगी रंग की ये खुश्बू
हमेशा फैलती रहेगी,
मटमैले रंग का ये जीवन
हमेशा खुशनुमा रहेगा।
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