Monday, September 7, 2009
मन के भीतर कोलाहल में...
मन के भीतर कोलाहल में
जब तेरा चेहरा आए
मैं चुपके से दिल में सोचूँ
तनहाई ना खिंच जाए।
तेरी आँखें ख़ुशकिस्मत सी
जब चाहें तब घिर आएँ
मेरा दिल आवारा पंछी
छोड़ गया तो ना आए।
एक बार जो उठा वहाँ से
ना जाने अब कहाँ फिरे
भूल गया दिल उधर के रस्ते
तू क्यों फिर इस तरफ मिले।
मैं ना जानूँ उस मंज़िल को
जिसको राहें भूल गईं
फिर क्यों उठता है तू अक्सर
ढूंढे उसको कहाँ गई।
वो न रहा, ना होगा फिर अब
जिसको माँगे इन हाथों में
कह दे इन दोनों आँखों को
पलकें वो अब नहीं रहीं।
तेरे सहारे सभी किनारे
हाथ पसारे उसे पुकारे
पर तू ना जाने पागल रे
वो ना आए भूले-हारे।
छूटे सब जो उसके अपने
रूठे कब वो जाने सारे
मैं भी ना खोजूँ अब उसको
वो मुझको भी भूल चला रे।
ना आएगा तेरा था जो
ना आएगा इस रस्ते को
भूल गया वो भूल जा तू भी
इस जंगल को, उस कस्बे को।
तू भी जा अब मुड़ जा वापस
जा तू भी ना आना वापस
तू भी अब जा यहाँ, इधर से
जैसे वो चल दिया इधर से।
मन के भीतर कोलाहल में
भीड़-भाड़ रहने दे थोड़ी
अपने उसको पाने वापस
मत आना इस, उस, जिस पल में।
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मन के भीतर कोलाहल में
ReplyDeleteजब तेरा चेहरा आए
मैं चुपके से दिल में सोचूँ
तनहाई ना खिंच जाए।
तेरी आँखें ख़ुशकिस्मत सी
जब चाहें तब घिर आएँ
मेरा दिल आवारा पंछी
छोड़ गया तो ना आए।......
pragyaa di
bada hee sundar geet kaha hai aapne..
achha laga padhna
बहुत बहुत शुक्रिया शशि..आपको रचना पसन्द आई हमें अच्छा लगा यह सुनकर..धन्यवाद
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