Wednesday, July 22, 2009

एक सवाल मेरे अन्दर काफी दिनों से घूम रहा है। मैंने अक्सर देखा है लोगों को - बस से नीचे उतरते हैं, पॉकेट से पुराना टिकट निकालते हैं और नीचे फेंक देते हैं। खड़े-खड़े या टहलते हुए चिप्स खाते हैं और खाली हो जाने पर पैकेट वहीं फेंक देते हैं। रास्ते में भुट्टा खरीदते हैं, बड़े मज़े से खाते हैं और फिर वही - खत्म हुआ तो useless हिस्सा वहीं रास्ते में। और तो और कई बार हम गाड़ी सड़क के किनारे लगाकर अन्दर पड़ी हार्ड ड्रिंक, कोल्ड ड्रिंक या फ्लेवर्ड मिल्क की खाली बोतलें सड़क किनारे रख देते हैं - बड़े सम्हालकर, कहीं फूट ना जाएँ। इसी तरह से जाने कितने मिस्टी दही के डिब्बे, लस्सी के पैकेट, पेन के प्लास्टिक कवर आदि हमारी सड़क की शोभा बढ़ाते रहते हैं.....मानो हमारी सड़कें यूनिवर्सल डस्टबिन हों।

मैं सिर्फ एक बात जानना चाहती हूँ - क्या सड़क किनारे, बस स्टॉप या जगह-जगह खड़े डस्टबिन इतने पुराने हो चुके हैं कि हम उनका इस्तेमाल करना भूल गए हैं? या यह कोई इतनी नई-सी तकनीक है जिसका इस्तेमाल करना ही हमें नहीं आ पा रहा? ...या फिर, क्या डस्टबिन का इस्तेमाल करना ही हमारे लिए out of fashion हो चुका है?

Friday, July 10, 2009

बारिश


मैं देखती हूँ
आकाश में घने, काले बादलों को
उमड़ते, घुमड़ते हुए।
अपने-आप से
इस समूचे, बड़े-से आकाश को ढकते हुए।
कुछ देर बाद ये बादल
धुआँधार पानी बरसाएँगे।
और वह पानी
हमारे खपरैल छत के बीच-बीच से होकर
हमारे घर में कई जगह टपकेगा।
घर के मिट्टी के धरातल को भीगने से बचाने के लिए
माँ
यथासंभव
हर टपकने वाली जगह पर
कोई-न-कोई बरतन रख देगी।
फिर पानी के साथ-साथ
तेज़, ठंढी हवा भी बहेगी
और हम सभी भाई-बहन
दादी के शरीर पर लिपटे शॉल में सिकुड़कर जा घुसेंगे।
तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े
अपनी-अपनी जगह से निकलकर
इधर-उधर घूमने लगेंगे,
झींगुर बोलने लगेंगे
हरे-हरे पेड़ धुलकर
चमकने लगेंगे।
फिर कुछ घंटों बाद
यह बरसात रुक जाएगी
और हर छोटे-बड़े गड्ढों, नालियों, तालाबों में
पानी भरकर
हवा के साथ कहीं और भाग जाएगी
और हमारे लिए छोड़ जाएगी
भरपूर कीचड़ से भरे रास्ते
जिसपर सम्हल-सम्हलकर चलते हुए
बाबा खेत तक जाएँगे
और उसमें रोपे गए
धान के छोटे-छोटे पौधों को देखकर
मुस्कुराएँगे।


अचानक तभी
मेरे ऊपर पानी की एक बूंद गिरती है
और मैं अचकचाकर उधर देखती हूँ
जिधर दूर से
माँ हाथ के इशारों से
मुझे बुला रही है
और बाबा ऊपर आसमान की ओर देखकर कह रहे हैं
'बरसो~बरसो'

पानी बरसने लगता है
और मैं
भाग पड़ती हूँ घर की ओर,
इससे पहले
कि मुझे भीगती देख
माँ वहाँ खड़ी-खड़ी नाराज़ हो जाए।

Thursday, July 2, 2009

तुम डरती हो

तुम डरती हो
देर तक मेरे दूर कहीं बाहर रहने से।
डरती हो
मेरे धूप में निकलने से,
मेरे कम खाने से,
मेरे अधिक पढ़ने से,
मेरे कमज़ोर पड़ने से,
बीमार पड़ने से,
मगर
मुझे जन्म देने वाली
मेरी माँ
तुम्हें बता दूँ
कि ज़िन्दा कोई नहीं रहता
यहाँ देर तक, दूर तक
सभी मरते हैं
एक दिन
मैं भी मरूँगी।
तुम्हारे
इस डर से
बहुत आगे
मैं
धूल बनकर
इसी धूप में कहीं पड़ी रहूँगी।
आज जो
तुम्हारे डरने का कारण हूँ
तुम्हारी चिंता का हिस्सा हूँ
परेशान होने की आदत हूँ
कल,
बस एक अतीत, एक किस्सा बनकर रह जाऊँगी,
लाख पकड़ने पर भी
तुम्हारे हाथ नहीं आऊँगी
तुम्हारे पास नहीं आऊँगी।
और उस दिन
तुम
बेहद ज़िद्दी, बेवकूफ, मतलबी,
अपने मामले में
हद दर्ज़े तक स्वार्थी अपनी इस बेटी
और
अपने जीवन के
इस एक पागल-से हिस्से के लिए
परेशान मत होना,
रोना मत,
इसके लिए डरना मत।