Tuesday, November 2, 2010
नीलोफ़र का पागल
उन दिनों मैं ‘श्री राम भारतीय कला केन्द्र’, मंडी हाउस में संगीत सीखने जाया करती थी। एक दिन कॉपरनिकस मार्ग को cross करते समय सामने के पेड़ के नीचे बैठे एक पागल पर मेरी नज़र पड़ी जो नीले रंग के मफ़लर को लपेटे बैठा-बैठा संतरा खा रहा था। वैसे भी मंडी हाउस में कई पागल इधर-उधर घूमते-चलते मिल जाते हैं इसलिए मैंने उसपर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। दो-तीन दिनों तक लगातार मैंने उसे देखा, उसी तरह नीले मफ़लर को गले में लपेटे चुपचाप संतरा खाते हुए। लगभग 15-20 दिनों तक वह मुझे दिखता रहा। एक ही जगह, एक ही स्थिति में। कोई ऐसा दिन नहीं जिस दिन मैंने उसे वहाँ न देखा हो। एक दिन उधर से गुज़रते वक़्त मैं जब उससे थोड़ी दूर ही थी, उसने अचानक सिर उठाकर मुझे देखा और एकटक देखता रहा। आते वक़्त भी यही हाल। अगले दिन भी जब मैं उधर से गुज़री तो वह मुझे ही देख रहा था और मुझे मालूम था कि जब तक मैं SBKK (श्री राम भारतीय कला केन्द्र) की बिल्डिंग के भीतर नहीं आ गई तब तक वह मुझे देखता ही रहा।
लौटते समय भी वही हुआ, वह चुपचाप मुझे देखता रहा। उसके इस तरह के behavior से मैं थोड़ा डर गई। अन्दर से डरते-डरते लेकिन बाहर से निडरता दिखाते हुए मैं उसके बगल से गुज़र गई, थोड़ी दूर जाकर मैंने पीछे मुड़कर उसे देखा, वह अभी भी मुझे ही देख रहा था। मैं घबराकर अपना चेहरा घुमाने ही वाली थी कि वह मुस्कुरा उठा। अब तो मुझे काटो तो खून नहीं। जैसे-तैसे मैंने सड़क पार की और सड़क के बगल में जूस वाले की दुकान से मिक्स्ड फ्रूट का जूस बनाने को कहा। मैंने एक बार फिर हिम्मत करके उसे देखा तो वह अभी तक मुझे ही देख रहा था और मैं इतनी दूर से भी स्पष्ट देख पा रही थी कि वह अब भी मुस्कुरा रहा था। जूस वाले ने मुझे उधर देखते हुए देखा तो पूछा – “क्या हुआ मैडम? उसने कुछ कहा क्या?” “अ–नहीं” – मैं अचकचा गई। “अच्छा” – कहकर वह हँस दिया। “क्यों भइया?” – मैंने पूछा। जूस वाले ने हँसते हुए बताया कि राह में आते-जाते सभी से वह कहा करता है कि ‘सुनो मेरे पास मत आना, मैं पागल हूँ।’ “अच्छा!” – मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। पागल तो कभी ख़ुद को पागल मानने को तैयार ही नहीं होता फिर यह कैसा केस है? मुझे देर हो रही थी इसलिए उस वक़्त तो मैं वहाँ से चल दी मगर मुझे यह मामला थोड़ा interesting लगा और अगले दिन मैं वहाँ थोड़ा पहले ही पहुँची। अपने नीले मफ़लर को लपेटे वह वहीं बैठा था।
इस बार मैंने उसे थोड़ा ध्यान से देखा। सांवला रंग, बड़ी-बड़ी उनींदी आँखें, पतले-पतले होंठ जिनमें उसकी एक मीठी-सी मुस्कान छिपी थी, लम्बा-पतला चेहरा, रूखे-उलझे काले-भूरे गर्दन तक लटकते बाल, इकहरा बदन जिसपर उसने काले और नीले रंग के कपड़ों को पहन रखा था और नंगे पाँव। कुल मिलाकर उसे देखकर ऐसा लगता था कि कभी वह एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी रहा होगा। मैं उसके सामने नहीं गई, थोड़ी दूर से ही उसे देखती रही। उस वक़्त उसके हाथ में संतरा नहीं था, मफ़लर का एक हिस्सा अपने हाथ से मोड़ते हुए वह चुपचाप सामने की ओर कहीं देख रहा था।
कुछ देर बाद मैंने देखा उस जूस वाले ने उसे जाकर एक संतरा दिया, उसका कंधा थपथपाया और वापस अपनी दुकान पर आ गया। उसके दुकान पर आने पर मैंने उससे इस संतरे को देने का कारण पूछा। उसने हँसते हुए बताया कि ‘यह रोज़ सुबह यहाँ आकर बैठ जाता है और फिर शाम तक ऐसे ही यहाँ बैठा रहता है। इसे इस तरह चुपचाप बैठा देखकर मुझे एक दिन दया आ गई और मैंने उसे एक संतरा दे दिया।’ – कुछ देर तक उसी पागल की ओर एकटक देखते रहने के बाद उसने फिर कहा – “उसे लेकर जब वो मुस्कुराया न मैडम जी तो मुझे वह बड़ा प्यारा लगा और तब से बस वही एक हँसता हुआ चेहरा देखने के लिए मैं सुबह-शाम खुद जाकर उसे एक संतरा दे आता हूँ।”
उसकी history के बारे में जूस वाले ने इतना बताया कि वह यहाँ NSD में सैकेंड ईयर का छात्र था। करीब दो साल पहले इसके साथ कुछ हुआ कि यह पागल हो गया। फिर दार्जिलिंग से इसके बड़े भाई साहब इसे ले जाने के लिए आए मगर यह गया ही नहीं, फिर आज तक कोई इसे लेने-वेने नहीं आया। “क्या हुआ था इसके साथ, कुछ पता है?” “नहीं जी इतना तो मुझे पता नहीं” “ये पिछले दो सालों से यहीं है?” “हाँ जी। पहले यहीं पर इधर-उधर घूमता रहता था, अब करीब एक महीने से यहाँ आकर बैठ जाता है” कुछ देर तक पता नहीं क्या सोचकर मैंने उससे पूछा - “भइया, ये ख़तरनाक तो नहीं है न?” “वैसे तो खतरनाक नहीं है लेकिन क्या है कि पागल ही है मैडम, क्या जाने कब पागलपन पूरी तरह से सवार हो जाए” मेरी क्लास का समय हो चुका था। मैंने फिर सड़क पार किया, उसे देखा, उसने भी मेरी ओर देखा और फिर मुस्कुरा दिया। इस बार उसे देखकर मैं भी मुस्कुरा पड़ी। मन किया कि रुकूँ और उससे कुछ बातें करूँ लेकिन फिर मैं क्लास के लिए चली गई। क्लास से बाहर आते समय जून की शाम के 5:30 बजे थे। हवा हल्की-हल्की चल रही थी। धूप पेड़ों की छाँव के अतिरिक्त हर जगह थी और शाम होने के बावज़ूद अपने अस्तित्व के साथ किसी प्रकार का कोई समझौता करने को तैयार नहीं थी। अब तक मैं पूरी तरह निश्चय कर चुकी थी कि आज मैं उससे बातें करूँगी। जूस वाले से उसके बारे में जानने के बाद और उसका मुझे देखकर मुस्कुरा उठने के बाद मेरे मन में उसके प्रति डर काफी हद तक कम हो चुका था।
मैं वहाँ गई और पूरी हिम्मत करके उसके सामने रुकी। उसने कुछ नहीं किया, कुछ नहीं कहा बस मुझे देखकर मुस्कुराता रहा। मैंने धीरे-से अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया और ‘hi’ कहा। कुछ देर तो उसने कुछ नहीं कहा, फिर अपना हाथ मुझसे मिलाते हुए धीरे-से कहा – ‘hi.’ मुझे उसके जवाब देने से बड़ा आश्चर्य हुआ हालांकि इससे मैं थोड़ा आश्वस्त भी हुई। हाथ छुड़ाकर मैंने उससे पूछा – “संतरा खाओगे?” उसने ‘हाँ’ की मुद्रा में सिर हिलाया। मैं गई और जूस वाले के यहाँ से एक संतरा लेती आई। उसे दिया। वह चुपचाप उसे बेतरतीबी से छीलता रहा और पूरा छीलकर उसने एक पीस संतरा निकालकर अपने मुँह में रख लिया। जब वह उसके दो-तीन पीस खा चुका तो मैंने पूछा – “मुझे नहीं दोगे?” कुछ देर चुपचाप रहकर उसने पूरा संतरा मुझे दे दिया। मुझे हँसी आ गई और उसमें से दो पीस निकालकर बाकी मैंने उसे दे दिया। उसे लेकर वह चुपचाप खाने लगा। कुछ देर बाद मैंने उससे पूछा – “मैं भी यहाँ बैठ जाऊँ?” लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। मैं धीरे-से वहीं बैठ गई।
“ये मफ़लर बहुत अच्छा है” – मैंने उसके नीले मफ़लर की ओर इशारा करके कहा। उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। “तुम्हारा है?”
उसने फिर कुछ नहीं कहा।
“मुझे दोगे?” – कहते हुए मैंने जैसे ही उस मफ़लर को छुआ उसने मेरे हाथ पर जोर से एक हाथ मारा। मैं डर गई। मन किया उठकर भाग जाऊँ पर मैंने इससे बात करने की सोच रखी थी, अत: मैं उठी नहीं। लेकिन उसे संतरे के साथ काफी व्यस्त देखकर मुझे लगा कि मैं शायद उससे बात नहीं कर पाऊँगी और उठने को हुई। तब धीरे-से उसने कहा – “नीलोफ़र का है” – और मेरी ओर देखा। मुझे लगा कि अब समय आ गया है और इसकी हिस्ट्री इसी से पता की जा सकती है। मैंने पूछा – “नीलोफ़र का है?” “हाँ” “कौन है ये नीलोफ़र?” “तुम नीलोफ़र को नहीं जानती?” – यह कहते हुए बेहद गुस्से में आकर उसने मेरी बाईं बाँह को जोर से पकड़ लिया। मैं बुरी तरह डर गई और जल्दी से कहा – “हाँ-हाँ, मैं जानती हूँ - जानती हूँ” उसने तुरंत मेरी बाँह छोड़ दी और खुश होकर कहा – “तुम जानती हो नीलोफ़र को?” “हाँ, मैं जानती हूँ” – मैंने हकलाते हुए कहा।
वह अचानक चुप हो गया। काफी देर तक चुप रहा और खत्म हो चुके संतरे के छिलकों को ज़मीन से उठाता और वापस वहीं गिराता रहा।
मैंने ही फिर उसके मफ़लर की ओर इशारा करके पूछा – “कब दिया उसने तुम्हें यह?” “आज ही सवेरे” “आज ही!!!” “हाँ” कहकर उसने उस मफ़लर को मुझे दिखाकर पूछा – “अच्छा है न?” “हाँ-हाँ, बहुत अच्छा है” – मेरे ऐसा कहते ही उसके चेहरे पर फिर वही जादुई मुस्कुराहट उभरी। फिर उसने कुछ नहीं कहा और मफ़लर के किनारे से अपनी अंगुलियों को लपेटता रहा। कुछ देर रुककर मैंने फिर पूछा – “कहाँ है नीलोफ़र?” उसने सामने देखते हुए कहा – “उधर ही गई है। शाम तक आ जाएगी” – फिर कुछ देर बाद उसने ख़ुद ही कहा – “वो कहती है कि मैं पागल हूँ, क्या मैं हूँ, बताओ?” “नहीं-नहीं, तुम तो बिल्कुल ठीक हो” – बस, मेरे इतना कहते ही वह फिर भड़क उठा – “नहीं, झूठ मत बोलो। नीलोफ़र कहती है कि मैं पागल हूँ” मुझे कुछ कहते नहीं बना। कुछ देर चुप्पी छाई रही। फिर उसने बहुत धीरे-से कहा – “सुनो, मेरे पास मत आना, मैं पागल हूँ” – और ‘जाओ – जाओ यहाँ से’ कहकर उसने मुझे हल्का-सा धक्का दे दिया। अब तक मेरा उसके प्रति डर बस नाम मात्र का रह गया था इसलिए मैं वहाँ से उठी नहीं बल्कि सिर्फ उससे कुछ हट कर बैठ गई। लेकिन कुछ देर बाद मेरी समझ में नहीं आया कि मैं क्या करूँ, क्या कहूँ। वैसे भी शाम ने अन्धेरे को थोड़ा-बहुत अपने ऊपर ओढ़ना शुरु कर दिया था। मैं उठने को हुई। उसने मुझे उठते हुए देखा तो कहा – “जा रही हो?” “मुझे देर हो रही है, कल आऊँगी” “कल? लेकिन वो तो आज ही आएगी” “मैं कल मिल लूँगी” “लेकिन उसने तो कहा है कि वो आज ही आएगी”
लेकिन अन्धेरा हो रहा था और मुझे घर जाने की देर हो रही थी। मैंने उससे कहा कि ‘अभी तो मैं घर जा रही हूँ। नीलोफ़र आएगी तो उससे कहना कि मैं उससे मिलने आऊँगी।’
“ठीक है” – कहकर वह मुस्कुरा उठा। पर मैं अगले दिन वहाँ न जा सकी। हुआ यों कि घर आते ही मुझे पता चला कि मेरे एक रिश्तेदार की तबीयत अचानक खराब हो गई है और सवेरे ही हम सब उनसे मिलने हैदराबाद जा रहे हैं। फिर चार-पाँच दिनों के बाद यहाँ वापस आने पर जब मैं मंडी हाउस गई तो वो मुझे वहाँ दिखा नहीं। क्लास से वापस आते हुए सड़क पार करते वक़्त मैंने उसे जूस वाले की दुकान पर देखा, वह मुझे देख रहा था। पास आकर मैंने उसे ‘hi’ कहा लेकिन उसने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप मुझे देखते हुए मुस्कुरा दिया।
अगले कुछ दिनों तक वह मुझे वहाँ दिखाई नहीं दिया। कई दिनों बाद एक दिन उसे मैंने ‘त्रिवेणी’ के आगे खड़ा पाया, वैसे ही चुपचाप। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा। मैं उसे देखकर मुस्कुरा दी तो जवाब में वह भी मुस्कुरा उठा और कहीं चल दिया। कुछ दिनों बाद मेरी भी SBKK की क्लासेज़ बन्द हो गईं। मैंने भी वहाँ जाना छोड़ दिया।
.............मैं नहीं जानती कि नीलोफ़र कौन है, कहाँ है, कब आएगी, आएगी भी या नहीं, उससे इसका क्या रिश्ता है। बस इतना जानती हूँ और कहना चाहती हूँ कि कभी आपको भी अगर मंडी हाउस में कोई पागल नीले रंग का मफ़लर लपेटे दिख जाए तो उससे डरिएगा नहीं बल्कि उसे देखकर हल्का-सा मुस्कुरा दीजिएगा, वह भी मुस्कुरा पड़ेगा...................
और हो सके तो उसे बताइएगा कि उसकी नीलोफ़र ने जो उसे मफ़लर दिया है वह बहुत अच्छा है, और तब आप देखिएगा कि उसकी मुस्कुराहट कितनी प्यारी है।
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