8 मार्च हर वर्ष आता है और हर वर्ष हम
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं। राजधानी दिल्ली में कई बड़े-बड़े बोर्ड लगते
हैं जिसमें महिलाओं के लिए प्रेरणादायक स्लोगन के साथ हँसती-मुस्कुराती महिलाओं के
चित्र छापे जाते हैं। अच्छा लगता है। क्या अच्छा लगता है ये बताना ज़रा मुश्किल है
बस अंदर कुछ मुस्कुराहट और खुशी का एक मिलाजुला रंग उभरता है और मन को अच्छा लगता
है। पर यह अच्छापन कुछ ही दूर लगे एक और बोर्ड से अचानक दब जाता है और काफी देर तक
भीरु बनकर कहीं अन्दर छिपा रहता है। ये दूसरा बोर्ड ‘बेटी बचाओ’ का बोर्ड है। एक ऐसा
बोर्ड जो हमसे भ्रूण हत्या न करने की अपील करता है। पर यह अपील उस जीव की भ्रूण
हत्या करने से रोकती है जो किसी की बेटी है, किसी की बहू है, किसी की बहन, माँ और
पत्नी है। मैं ये सोचती हूँ कि यदि ये जीव किसी की बहन, बहू, माँ, पत्नी नहीं होता
तो क्या हम इसे बचाने की अपील करते? पता नहीं....और यह सवाल और उसका यह ‘पता नहीं’
जवाब मेरे उस मुरझाए हुए मन को और आहत कर जाता है...
क्या यह जीव (जिसे हम इंसानी रूप में
महिला या कन्या के तौर पर जानते हैं) सिर्फ अपने रिश्तों की वज़ह से अहमियत रखता
है? मैंने कन्या भ्रूण हत्या के पक्ष में कई प्रचार देखे और सुने हैं। कन्याओं को
बचाने की सभी बात करते हैं और हर जगह उसका एकमात्र कारण किसी अन्य से उसका रिश्ता या
मानव जाति के जीवित रहने में उसकी अहम भूमिका बताया जाता है। किंतु यदि कन्या नामक
यह जीव किसी की बहू, माँ या पत्नी न बने या न बन सके तो? तो क्या आधार होगा उसे
भ्रूण से इस दुनिया में जीवित लाने का? जवाब मेरे पास शायद सचमुच नहीं है....
मेरा मुरझाया मन सोचता है, क्यों हम
कन्या को उसके जन्म लेने से मृत्यु प्राप्त होने तक सिर्फ रिश्तों में देखते हैं? क्या
हम इतने स्वार्थी हो गये हैं कि हमारे द्वारा कोई जीव तभी संरक्षित किया जा सकता
है जब हमें उसकी ज़रूरत हो? क्या हम ‘ज़रूरतों’ के पार जाकर किसी का संरक्षण नहीं कर
सकते? क्या होगा यदि कल को हमारी किसी को ज़रूरत न रह गई? हमारी धरती जो हमें जाने
कब से पाल रही है, उसे हमारी क्या ज़रूरत है? कोई नहीं, उसके पास मनुष्य के अलावा
कई जीव हैं, क्यों नहीं वह हमें, सिर्फ हमें, उखाड़ फेंकती है अपनी रोम-रोम से? वह
नहीं कर सकती ऐसा, क्योंकि वह मनुष्य नहीं है और शायद इसीलिए स्वार्थी नहीं है। मेरा
वही मन एक और बात सोचता है – भ्रूण में कन्या एक बार मरती है और सदा के लिए मौन हो
जाती है। पर भ्रूण से कन्या, कन्या से युवती, युवती से महिला और महिला से वृद्धा
बनने तक वह जाने कितनी-कितनी बार मरती है और कितनी-कितनी बार मौन होती है। रोज़
अख़बार के पन्ने पलट कर, घर-परिवार-पड़ोसी की लड़कियों और महिलाओं को देखकर कभी-कभी
ये लगता है कि जन्म देकर जीवन और दुख एक साथ देने से अच्छा क्या भ्रूण हत्या
द्वारा जीवन और दुख एक साथ ले लेना है? क्या सचमुच इस जीव के लिए जीवन और दुख एक-दूसरे
का पूरक है? यदि हाँ तो, मैं विवश होकर सोचती हूँ, क्या एक बार की भ्रूण हत्या बार-बार
की भावनात्मक हत्या से बेहतर हो सकती है?...और इस बार जवाब फिर नहीं मिलता मुझे।
मुरझाया मन मुरझाता चला जाता है और इस सवाल का जवाब ‘हाँ’ मानने लगता है। उसके
‘हाँ’ मानने के काफी देर बाद, सोच-विचार करके मन का दूसरा वाला कोना सर उठाता है
और कहता है, क्यों हम इसका जवाब ‘हाँ’ मानें? भ्रूण में रहते हुए जीव अपनी हत्या
होने से किसी को रोक नहीं सकता पर जीवन मिल जाने के बाद कोई क्यों होने दे अपनी भावनात्मक
हत्या, मानसिक हत्या, आर्थिक हत्या और साथ ही साथ सामाजिक हत्या भी? कन्या या
महिला को रिश्तों में देखने की बात पर भी वह मन कहता है - कोई और माने या न माने,
कन्याएँ और महिलाएँ खुद को क्यों नहीं रिश्तों से परे भी महत्वपूर्ण मानती हैं। क्यों
नहीं वे अपनों के साथ अपना भी रखरखाव उतने ही प्यार और ध्यान से करती हैं? क्यों
अपना खयाल रखने में उन्हें हीनभावना होती है? ख़ुद का ख़्याल रखना कुछ ग़लत तो नहीं? लेकिन
जाने क्यों महिलाएँ अपना ख़्याल भी किसी और के लिए रखती हैं। और उन्हें कोई ये नहीं
बताता कि ये गलत है। यदि वे किसी और के साथ ग़लत होता नहीं देख सकतीं तो ख़ुद के साथ
ऐसा कैसे होने दे सकती हैं? किसी और के साथ अन्याय नहीं करतीं तो ख़ुद के साथ भी न
करें। मन का वह कोना कुछ और तरह की बातें करता है, जैसे; सामाजिक हत्या से आज़ाद
होना है तो रिश्तों से आज़ाद होओ, भावनात्मक हत्या से आज़ाद होना है तो ‘महिला’ की
हर एक परिभाषा से आज़ाद होओ, मानसिक हत्या से आज़ाद होना है तो शारीरिक रोगों और हर
प्रकार की निर्भरता से आज़ाद होओ...........हत्याओं से आज़ाद होओ, आज़ाद महसूस करना
शुरु करो......आज़ादी चाहो, इसे प्राप्त करना सीखो और इसके लिए उठ खड़े होओ....किसी
और के लिए नहीं ख़ुद के लिए...अपने जैसों के लिए और बिना किसी हीनभावना और ग्रंथि
के...क्योंकि प्रकृति ने तुम्हारा अंकुरण तुम्हारे लिए भी किया है, तुम्हें
तुम्हारे लिये भी बनाया है......
मैं नहीं जानती कि मन का यह कोना सही कह
रहा है या नहीं, जो कह रहा है उसे करना कन्याओं/महिलाओं के एजेंडे में कभी शामिल होगा
भी या नहीं...आज़ाद महसूसने की शुरुआत कब होगी और जब होगी तो कितने प्रतिशत में......पर
इतना ज़रूर जानती हूँ कि मुझे अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को सेलेब्रेट करता एक और
बोर्ड दिखता है और मन के दूसरे कोने की मुरझाहट थोड़ी कम होने लगती है.....हो सकता
है ये मन के ‘पॉज़िटिव’ कोने की बातों का असर हो पर मुझे फिर से अच्छा लगना शुरु हो
गया है........