चलते-चलते रुका दरख़्त बन गया है आदमी,
हँसते-हँसते बड़ा कमबख़्त बन गया है आदमी।
इसे मत रोको, मत टोको, मुसाफ़िर है,
सूनी पगडंडियों पर चलता बड़ा सख्त बन गया है आदमी।
कई ज़माने गुज़रे, कई अफ़साने गुज़रे, इसे कोई फ़िक्र नहीं,
अपने आकारों में सिमटा कोई वक़्त बन गया है आदमी।
बहुत बहुत धन्यवाद ........वैसे इस कविता को पढ़ कर एक पंक्ति याद आती है !
ReplyDeleteजीने की बात जबसे करने लगे हैं लोग ,
उस रोज़ से शहर में मरने लगे हैं लोग .......!
बहुत पहले कभी पढी थी यह कविता, अब तक ठीक से याद नहीं आ पा रही थी ! मगर कविता का जो मूल है वो अब तक भूल भी नहीं पाया था ....आपकी एक और कविता का मूल अब तक थोड़ा थोड़ा याद आ रहा है जिसमे माँ और बेटी का संवाद विशेष आदि है ................वैसे आपकी कविताओं में संभावनाएं हैं .....धन्यवाद !
बहुत-बहुत धन्यवाद शिवा हौसला अफ़ज़ाई के लिए....आपने एक बहुत ही बेहतरीन और मार्मिक नज़्म की याद दिला दी...मैं कोशिश करूँगी इसे कहीं न कहीं से खोज निकालने की...
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