Tuesday, July 26, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 3)

Scene 3

महाराज का किला। दरवाज़े पर दो पहरेदार भाला लिए खड़े हैं। काका और चिंटू उड़ते हुए आते हैं और दरवाज़े से अन्दर जाने लगते हैं। दोनों पहरेदार भालों को क्रॉस करके उन्हें रोकते हैं और एक पूछता है -
पहरेदार 1: “ए, कहाँ चले जा रहे हो?”
चिंटू (किले को दिखाकर): “क्या है ये”
पहरेदार 1: “महाराज का किला”
चिंटू: “तो महाराज के किले में जा रहे हैं!”
काका: “दरअसल भाई, महाराज से मिलना है, कुछ काम है उनसे”
पहरेदार 2: “क्या काम है?”
चिंटू: “तुम महाराज हो?”
पहरेदार 2: “नहीं”
चिंटू: “फिर तुम्हें कैसे बताएँ क्या काम है?”
पहरेदार 1: “महाराज अभी मिल नहीं सकते”
चिंटू: “क्यों?”
पहरेदार 1: “वो अभी जिम में है”
चिंटू: “कोई बात नहीं, जाकर कहो उनसे हम उनसे मिलना चाहते हैं”
पहरेदार 2: “कहा न इसने कि महाराज नहीं मिल सकते”
काका: “भईया बहुत ज़रूरी काम है, एक बार कहकर तो देखो”
पहरेदार 2 (कुछ सोचकर): “अच्छा ठीक है”
पहरेदार 2 अन्दर जाता है।
चिंटू (पहरेदार 1 से): “भईया, ये भाला चलाना तो तुम जानते हो न?”
पहरेदार 1: “हाँ बिल्कुल, क्यों?”
चिंटू: “मुझे चलाना सिखाओगे?”
पहरेदार 1: “तुम? ह: ह: ह: ह: ह:...कभी खुद को शीशे में देखा है? चले हैं भाला सम्हालने, हुँह!”
चिंटू: “ए-ए, मुझे जानते नहीं हो तुम। एक दिन यही भाला हाथ में पकड़े मेरे पीछे-पीछे चलोगे, समझे?”
पहरेदार 1 कुछ कहता तब तक पहरेदार 2 किले से बाहर आता है।
पहरेदार 2: “जाओ महाराज बुला रहे हैं। अन्दर घुसते ही साइनबोर्ड पढ़ लेना। जिधर इशारा करके जिम लिखा हो उधर चले जाना”
चिंटू (लापरवाही से): “ठीक है-ठीक है”
काका (दोनों पहरेदारों से): “अच्छा भाई धन्यवाद”
दोनों महल में घुसते हैं। चारों ओर बड़े-बड़े परदे, बड़े-बड़े शीशे, तरह-तरह के झाड़-फानूस और सजावट की अन्य चीज़ें सजी हुई हैं।
चिंटू हर शीशे में अपने-आपको अलग-अलग angle से देखता हुआ आगे बढ़ रहा है और गीत गुनगुना रहा है – “तारीफ करूँ क्या उसकी जिसने हमें बनाया”......... “ये आँखें उफ जुम्मा ये अदाएँ उफ जुम्मा”
तभी सामने साइनबोर्ड आ जाता है जिसपर लिखा है – “जिम – दाहिनी ओर जाएँ, स्विमिंग पूल – बाईं ओर जाएँ”। चिंटू इस साइनबोर्ड को देख नहीं पाता और शीशे में खुद को देखता हुआ, गुनगुनाता हुआ मुड़ता है और इससे टकराकर नीचे गिर जाता है। पीछे से काका आता है।
काका (साइनबोर्ड देखकर): “ये रहा बोर्ड”
चिंटू (नीचे अपना सर सहलाते हुए): “हाँ, जानता हूँ”
फिर ऊपर आता है। दोनों साइनबोर्ड पढ़ते हैं और दाहिनी ओर उड़ान भरते हैं। राजमहल की बड़ी-बड़ी गलियों को आश्चर्य से देखते हुए दोनों जिम पहुँचते हैं।
चिंटू(जिम को दूर से ही देखकर): “वो रहा जिम”
एक कमरे के बाहर ‘शाही जिम’ लिखा है। दोनों अन्दर पहुँचते हैं। जिम में अत्याधुनिक मशीनें भरी हुई हैं। महाराज पारम्परिक वेशभूषा (धोती कुरता, मुकुट आदि) में ट्रेडमिल पर बैठे साइकिलिंग कर रहे हैं। पसीने से लथपथ हैं।
चिंटू और काका दोनों एकसाथ महाराज को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं – “प्रणाम महाराज”
महाराज दोनों की ओर देखते हैं और साइकिलिंग करते-करते ही हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं – “प्रणाम-प्रणाम, कहिए कैसे आना हुआ?”
काका: “महाराज.....”
लेकिन चिंटू बीच में ही हाथ से इशारा करके काका को रोक देता है।
चिंटू: “महाराज, हम आपके भव्य राज्य के दो अदने से जीवित प्राणी अपने जीवन और प्राण दोनों ही की भिक्षा लेने आपके पास आए हैं”
महाराज (साइकिलिंग करते-करते): “ऐसा क्या हो गया कि आपके जीवन-प्राण संकट में आ गए?”
चिंटू (ट्रेडमिल की हैंडल पर बैठकर): “राजा-राजा आप बढ़ई को डाँटें, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
महाराज (रुककर): “ये क्या है?”
चिंटू: “कविता है जो.....”
महाराज (बीच में): “अच्छी है। एक महीने बाद राष्ट्रीय स्तर का कविता सम्मेलन है। आ जाना दोनों” – कहकर फिर से साइकिलिंग शुरु कर देते हैं।
महाराज को फिर से साइकिलिंग में व्यस्त देखकर चिंटू और काका एक-दूसरे को देखते हैं। फिर चिंटू थोड़ी हिम्म्त करके बोलता है -
चिंटू: “महाराज आपने इस कविता का अर्थ नहीं समझा”
महाराज (चिंटू को देखकर, प्रश्न के भाव से, साइकिलिंग करते हुए ही): “इसका कोई भाव भी था?”
चिंटू: “जी”
महाराज: “बताओ”
चिंटू: “जी अर्थ ये था कि हमारा दाल का एक दाना एक खूँटे में गिर गया है, न तो खूँटा ही उसे निकाल रहा है और न ही बढ़ई हमारी मदद करने को तैयार है”
महाराज (उसी व्यस्त भाव से): “अच्छा, तो अपनी कविता में तुमने ये कहने की कोशिश की है कि एक दाल के दाने के लिए मैं उस बढ़ई के पास जाऊँ”
चिंटू: “नहीं महाराज, वो बढ़ई आपके पास आए”
महाराज: “तो तुम चाहते हो कि मैं उसे बुलाऊँ”
चिंटू: “जी महाराज”
महाराज: “तुम्हारी चाह पूरी नहीं होगी........जा सकते हो”
चिंटू: “परंतु महाराज...”
महाराज (बीच में ही): “किंतु-परंतु कुछ नहीं (जोर से) सिपाहियों”
महाराज इतने ज़ोर से सिपाहियों को बुलाते हैं कि चिंटू हैंडल पर से गिरते-गिरते बचता है।
काका: “नहीं-नहीं महाराज, हम चले जाते हैं”
दोनों उड़कर बाहर आ जाते हैं। बाहर आकर दोनों किले की दीवार पर बैठ जाते हैं।
काका: “देख लिया? कुछ नहीं होने वाला यहाँ, अब चलो परदेस”
चिंटू: “आप जाइए परदेस। मैं चला रानी के पास”
काका: “रानी के पास? मगर क्यों?”
चिंटू: “आप बस देखते जाइए डैडी, मैं क्या चक्कर चलाता हूँ” चिंटू यह कहकर उड़ जाता है।
काका: “अरे लेकिन सुन तो”
लेकिन चिंटू नहीं सुनता और उड़ जाता है। काका वहीं बैठा रह जाता है।



क्रमश:
(चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)

No comments:

Post a Comment