Friday, March 18, 2011

और धुआँ ना उठे

मेरी माटी जल जाए
और धुआँ ना उठे
मैं ख़ाक हो जाऊँ
और धुआँ ना उठे

मेरा आसमाँ खिले
दो जहाँ से मिले
मेरी याद मिट जाए
और धुआँ ना उठे

मेरा रास्ता चले
अपनी मंज़िल तले
ये क़दम बहक जाएँ
और धुआँ ना उठे

वहीं चाँद थम जाए
जहाँ सूरज ढले
रौशनी पिघल जाए
और धुआँ ना उठे

ये हवा भी थम जाए
मौसम बदल जाए
मेरे पर सम्हल जाएँ
और धुआँ ना उठे

6 comments:

  1. मेरी माटी जल जाए
    और धुआँ ना उठे
    मैं ख़ाक हो जाऊँ
    और धुआँ ना उठे

    मेरा आसमाँ खिले
    दो जहाँ से मिले
    मेरी याद मिट जाए
    और धुआँ ना उठे
    Kya gazab likha hai!

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  2. वाह! इतना कुछ हो जाए और धुंआ भी न उठे...
    ऐसा कैसे होगा भला...

    कुंवर जी,

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  3. आपको सपरिवार होली की शुभकामनायें !

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  4. प्रज्ञा जी,
    बहुत बढ़िया रचना.कई बार पढ़ ली है.हर बार नए
    ही अर्थ सामने आ जातें हैं.लगता है आईना देख रहा हूँ.

    मेरी माटी जल जाए
    और धुआँ ना उठे
    मैं ख़ाक हो जाऊँ
    और धुआँ ना उठे

    मेरा आसमाँ खिले
    दो जहाँ से मिले
    मेरी याद मिट जाए
    और धुआँ ना उठे

    मन के अंतर द्वंदों के चलते बहुत ही निराशावादी अभिव्यक्ति है.
    कई बार अस्तित्व हीन होने का मन करता है.
    लेकिन ज़्यादा देर तक नहीं,फिर आशा की तरंगें मचलने लग जाती हैं.

    रौशनी पिघल जाए
    और धुआँ ना उठे
    मेरे पर सम्हल जाएँ
    और धुआँ ना उठे

    आप की कलम को शुभ कामनाएं.


    होली मुबारक.

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  5. आप सबको भी होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ......रचना की सराहना के लिए बहुत शुक़्रिया...ये सराहनाएँ कलम को रुकने से बचाती हैं....

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  6. धुंआदार रचना।

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