मेरी माटी जल जाए
और धुआँ ना उठे
मैं ख़ाक हो जाऊँ
और धुआँ ना उठे
मेरा आसमाँ खिले
दो जहाँ से मिले
मेरी याद मिट जाए
और धुआँ ना उठे
मेरा रास्ता चले
अपनी मंज़िल तले
ये क़दम बहक जाएँ
और धुआँ ना उठे
वहीं चाँद थम जाए
जहाँ सूरज ढले
रौशनी पिघल जाए
और धुआँ ना उठे
ये हवा भी थम जाए
मौसम बदल जाए
मेरे पर सम्हल जाएँ
और धुआँ ना उठे
मेरी माटी जल जाए
ReplyDeleteऔर धुआँ ना उठे
मैं ख़ाक हो जाऊँ
और धुआँ ना उठे
मेरा आसमाँ खिले
दो जहाँ से मिले
मेरी याद मिट जाए
और धुआँ ना उठे
Kya gazab likha hai!
वाह! इतना कुछ हो जाए और धुंआ भी न उठे...
ReplyDeleteऐसा कैसे होगा भला...
कुंवर जी,
आपको सपरिवार होली की शुभकामनायें !
ReplyDeleteप्रज्ञा जी,
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना.कई बार पढ़ ली है.हर बार नए
ही अर्थ सामने आ जातें हैं.लगता है आईना देख रहा हूँ.
मेरी माटी जल जाए
और धुआँ ना उठे
मैं ख़ाक हो जाऊँ
और धुआँ ना उठे
मेरा आसमाँ खिले
दो जहाँ से मिले
मेरी याद मिट जाए
और धुआँ ना उठे
मन के अंतर द्वंदों के चलते बहुत ही निराशावादी अभिव्यक्ति है.
कई बार अस्तित्व हीन होने का मन करता है.
लेकिन ज़्यादा देर तक नहीं,फिर आशा की तरंगें मचलने लग जाती हैं.
रौशनी पिघल जाए
और धुआँ ना उठे
मेरे पर सम्हल जाएँ
और धुआँ ना उठे
आप की कलम को शुभ कामनाएं.
होली मुबारक.
आप सबको भी होली की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ......रचना की सराहना के लिए बहुत शुक़्रिया...ये सराहनाएँ कलम को रुकने से बचाती हैं....
ReplyDeleteधुंआदार रचना।
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