कहते हैं साहित्य सृजन के लिए शब्दों पर पकड़ से ज़्यादा महत्व रखता है संवेदनाओं पर पकड़। यदि संवेदनाएँ गहरी हों तो शब्द खुद-ब-खुद खिंचे चले आते हैं।
आलो-आँधारी
लेखिका – बेबी हालदार
प्रकाशक: रोशनाई प्रकाशन, काँचरापाड़ा, पश्चिम बंगाल।
मूल्य: 75 रुपये।
अब तक हमने ऐसे कई उपन्यास पढ़े हैं जिसमें बड़े-बड़े लेखकों ने अपनी सशक्त, धारदार लेखनी के माध्यम से अशक्त लोगों के जीवन के उजालों और अन्धेरों का चित्रण किया है। आलो-आँधारी एक ऐसी भोली आत्मकथा है जिसकी लेखिका इस बात को लेकर बेहद सशंकित रहती है कि क्या उसे इतने शब्द आते हैं कि वह कुछ लिख सके –
“सोच रही थी कि लिख सकूँगी या नहीं/चिट्ठी सुनकर मैं अवाक् रह गई। मैंने ऐसा क्या लिखा है जो उन लोगों को इतना अच्छा लगा! उसमें अच्छा लगने की तो कोई बात नहीं! फिर मेरी लिखावट भी खराब है और लिखने में भूलें इतनी कि उसका कोई ठिकाना नहीं!”
चौका-बरतन, झाड़ू-पोंछा करके अपनी और अपने बच्चों की जीविका चलाने वाली बेबी को जब उसके ‘तातुश’ ने अपने जीवन के दुखों और संघर्षों की गाथा को कागज़ पर उतारने के लिए कहा तो उसकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि सातवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ देने के बाद अब क्या उससे कुछ लिखा-पढ़ा जाएगा?
लेकिन जब उसने लिखा तो अपने कष्टकारी जीवन के सभी संघर्षों को बेहद सहज व सरल शब्दों में इस प्रकार लिख डाला कि यह लक्ष्मण गायकवाड़, लक्ष्मण माने, सिद्दलिंग्या जैसे दलित लेखकों की आत्मकथा की श्रेणी में जा पहुँचा।
मुर्शिदाबाद में रहने वाली छोटी सी बेबी की माँ घर छोड़कर चली जाती है, सौतेली माँ आती है, फिर 11-12 की उम्र में बेबी का विवाह हो जाता है, जल्दी-जल्दी तीन बच्चे, उन बच्चों को पढा-लिखा कर आदमी बनाने की चाह और उसके बाद उसके दुखों का अनवरत संघर्ष में बदल जाना। संघर्ष की यह गाथा किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से पूर्ण रूप से अछूती है। तभी तो बात-बात में उसपर हाथ उठाने वाला उसका स्वामी भी कभी-कभी उसे माया का पात्र दिखता है। इस संघर्ष में उसका अपना कोई नहीं तो पूरी तरह से पराया भी कोई नहीं। न कोई हीरो है न कोई विलेन। बकौल मदन कश्यप, ‘बेबी हालदार की कथा में न कोई नायक है, न ही खलनायक। जो बुरा दिखता है, उसके भीतर भी कुछ अच्छाईयाँ हैं और जो बहुत अच्छा-अच्छा बना रहता है उसकी धूर्तताएँ भी प्रकट हो जाती हैं। उसके साथ सब कुछ बुरा ही बुरा नहीं है। समय-समय पर मदद पहुँचाने वाले कुछ अच्छे लोग भी मिलते हैं।’
अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति प्राप्त कर चुकी इस ईमानदार सी आत्मकथा में कुछ भी कल्पना नहीं है, न ही कोई बनाव-सिंगार है। भाषा-शैली के बनावटी तनाव से कोसों दूर ‘आलो-आँधारी’ बिना किसी साहित्यिक विश्लेषण की चिंता किए बस सीधे-सीधे अपनी राह चलती जाती है और इस राह में चलते-चलते कभी वह इतनी खो जाती है कि उसे खुद पता नहीं चलता कि कब वह ‘मैं’ से ‘वह’ में चली गई है। इस बारे में बेबी का कहना है कि ‘अपने जीवन की कुछ घटनाओं को भुलाते रहने की कोशिश में मुझे अब कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे वे घटनाएँ मेरे नहीं बल्कि किसी और के साथ घटी थीं।’ पूरी आत्मकथा में प्रमुख पात्र को ‘मैं’ से संबोधित करते-करते कभी भी वह उस ‘मैं’ को ‘वह’ मान बैठती है – “बेबी के भाग्य में क्या था वह मैं खूब जानती हूँ”
“बेचारी बेबी! बेचारी नहीं तो क्या! और किसका होगा इतना छोटा बचपन कि दीवार से टिककर बैठ, पूरा का पूरा याद कर लिया जाए! फिर भी बेबी को उससे मोह है।”
“इतने दुख का दिन बेबी ने कितनी हँसी-खुशी से पार कर दिया! कुछ समझ ही नहीं पाई कि उसके साथ यह क्या हो गया”
विजय मोहन सिंह (सहारा समय) के शब्दों में ‘आत्मकथा का यह तर्जे-बयाँ उल्लेखनीय है क्योंकि यह किसी शिल्पकौशल के तहत नहीं अपनाया गया है, बल्कि अपने ‘मैं’ के ‘वह’ में तब्दील कर देने की प्रक्रिया में इतना स्वत: स्फूर्त और तटस्थ है कि अत्यंत प्रामाणिक और घनिष्ठ रूप से घटित लेखन की प्रक्रिया में स्वत: अपने से बाह्र होकर अपने को देखने लगता है’
मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखी गई ‘आलो-आँधारी’ का अनुवाद अब तक 15 भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं में हो चुका है। हिंदी में इसका अनुवाद श्री प्रबोध कुमार (मुंशी प्रेमचंद के नाती) ने किया है। अनुवाद में सातवीं कक्षा तक पढ़ी बेबी हालदार की भाषा को अधिक छेड़ा नहीं गया है। पुस्तक की रूह को ज़िंदा रखने की ख़ातिर कई शब्द और वाक्य-विन्यास बंग्ला के ही रहने दिए गए हैं।
जीवन से जूझती यह आत्मकथा हमें सिर्फ किसी एक बेबी हालदार की कहानी नहीं सुनाती बल्कि जाने ऐसी कितनी बेबी हालदार होंगी जो इस कथा में वर्णित संघर्षों को जी रही होंगी और जीवटता से उनका मुकाबला कर रही होंगी।
जैसा कि मेधा पाटकर कहती हैं, ‘मेहनतकश समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली बेबी हालदार ने इस आत्म-चित्रण में ही शोषितों, भुक्तभोगियों का जीवन-चित्रण किया है, जिसका न केवल भावनिक या साहित्यिक बल्कि राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में भी योगदान होगा। एक महिला अपनी संवेदना से अन्यायकारी दुनिया की पोल-खोल कितनी गहराई से, फिर भी सरलता से कर सकती है, इसकी प्रतीक है यह किताब।’
Is kitab ko padhnekee ichha jagrut ho gayi hai!
ReplyDeleteइसी को कहते हैं कि सधारण जीवन की सधारण सी कहानी भी असधारण हो जाती है।
ReplyDeleteप्रतिभा किसी समय , परिस्थिति,स्थान कि मोहताज़ नहीं होती ! प्रतिभा होती है उजागर होने के लिए ,जो कभी भी दब नहीं सकती ! साहित्य के इस माणिक मोती को मेरा सलाम !
ReplyDeleteप्रतिभा किसी समय परिस्थिति,स्थान कि मोहताज़ नहीं होती ....
ReplyDeleteब्लॉग को पढने और सराह कर उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.
ReplyDeletepad kar acha laga.. shukriya...
ReplyDeleteMeri nayi kavita : Tera saath hi bada pyara hai..(तेरा साथ ही बड़ा प्यारा है ..)
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आप सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया...
ReplyDeletepragyaa acchhi hai tumhaari samikshaa.....
ReplyDelete"Bikhare Sitere" pe aapkee nihayat khoobsoorat tippanee ka nirdesh kiya hai"In sitaron se aage 3"is aalekh me zaroor dekhen..!
ReplyDelete"आलो आँधारी"---की बहुत बढ़िया समीक्षा की है आपने ---अगर मिल सकी तो जरूर पढ़ूंगा।
ReplyDeleteआपकी एक कविता को पुन: पढ़ने कि हार्दिक इच्छा है , अगर उपलब्ध हो तो प्रकाशित करें ,,,, कितना सख्त बन गया है आदमी...........
ReplyDeleteशिवा..वह कविता अभी भी मेरे ब्लॉग पर है..older post पर जाएँ...
ReplyDeleteबढ़िया साहित्य के विषय में बढ़िया जानकारी..धन्यवाद
ReplyDeleteधन्यवाद विनोद...एक छोटी सी समस्या आ गई है मेरे सामने...मुझसे कुछ लोगों ने इस पुस्तक (हिन्दी में अनुवादित) की मांग की है और बाज़ार में कहीं यह पुस्तक मुझे मिल नहीं रही..यदि आपलोग कहीं किसी जगह इस पुस्तक से टकराएँ तो मुझे ज़रा उस जगह का नाम बता दें ताकि मैं उसके पाठकों से उसकी मुलाकात करवा पाऊँ....धन्यवाद..
ReplyDeleteऐसी शख्सियत से परिचय करवाने का आभार।
ReplyDeleteधन्यवाद दिव्या...
ReplyDelete"आलो आँधारी" की अच्छी तरीके से समीक्षा कि है.......
ReplyDeleteबढिया .