ये वो लड़कियाँ हैं जिन्हें अपने नाम का अर्थ नहीं पता। जिनके लिए सुनीता का ‘स’ और रुख़साना का ‘र’ कोई मायने नहीं रखता। मायने रखती है तो चौराहे की लाल बत्ती। भीड़ में खड़ी लम्बी-लम्बी गाड़ियाँ। दौड़ते-भागते शीशा पोंछते इन्हें जो कभी-कभार इक्का-दुक्का पैसे मिलते हैं वही इनके लिए अक्षर हैं, वही इनकी वर्णमाला।
ऑफिस के लिए अपनी कैब का इंतज़ार करते मैं रोज़ इन्हें देखती हूँ। शीशा पोंछने के एवज़ में गाड़ी के मालिक से पैसे मिलेंगे नहीं – इसकी संभावना ज़्यादा होती है। लेकिन ऐसा करना सिर्फ इनके पैसे कमाने का ज़रिया ही नहीं बल्कि मनोरंजन का साधन भी है। इनमें से कुछ को बोलना बहुत आता है और कुछ होठों से तो छोड़िए आँखों से भी बोलने में शर्माती हैं।
मैंने एक बार एक छोटी सी बच्ची को पानी पिलाते वक़्त उससे पूछा था – “नाम क्या है तुम्हारा?”
उसके नाम का मुझे आज तक उससे पता नहीं चल पाया। उसकी सहयोगी रुख़साना ने मुझे बताया –
“सबीना नाम है इसका”
“और तुम्हारा?” – मैंने उससे पूछा।
“रुख़साना”
“रुख़साना का मतलब क्या है?”
“मतलब क्या? नाम है”
10 साल की यही रुख़साना पहली लड़की थी जिसने अपनी बिरादरी की तरफ पहली बार मेरा ध्यान खींचा था।
मैं कैब का इंतज़ार करते हुए कोई किताब पढ़ रही थी। अचानक सामने से एक लड़की दौड़ती हुई आई और अपना हाथ आगे कर अपनी भारी आवाज़ में कहा – “दीदी, एक रुपइया दे दो” – स्वर में थोड़ा अनुनय भी था और थोड़ा विश्वास भी।
“क्यों दे दूँ” – मैंने किताब बंद करते हुए पूछा।
“दे दो न” मैंने मुस्कुराते हुए ‘न’ में सिर हिलाया। कुछ देर तक शायद मुझे अपने निर्णय पर दुबारा सोचने का मौका देते हुए वह खड़ी रही लेकिन ऐसा कुछ न होते हुए देख वापस अपने साथियों के पास चली गई।
अगले दिन मेरे आते ही उसने सड़क की दूसरी ओर से ही पुकार कर कहा – “दीदी, आज दे दो” – और अपना हाथ बढ़ाया। हाथ में कोई डिब्बा था जो काले कपड़े से ढका था। मैंने ‘न’ की मुद्रा में सिर हिलाया और मुस्कुरा कर किताब निकालने में व्यस्त हो गई। लेकिन तबतक वह सड़क पार कर यहाँ आ चुकी थी।
“सनीवार है। सनी महराज को दे दो”
डिब्बे में कुछ सिक्के पड़े थे और उसके अन्दर धूपबत्ती जल रही थी।
“सनी महाराज पैसे का क्या करेंगे?”
“आसीरवाद मिलेगा तुमको”
“किसका? तुम्हारा?”
“अरे दीदी, तुम दे दो न बस”
पर हमेशा की तरह ‘न’ की मुद्रा में सिर हिलता देख हताश होकर कहा – “अच्छा, तो पानी ही पिला दो” – उन्हें पता होता था कि मेरे झोले में पानी की एक बोतल हमेशा मौज़ूद रहती है।
और एक को पिलाने का मतलब होता था पूरे झुंड को पिलाना। एक से दो, दो से तीन – तीन से चार। ऐसे ही एक दिन जब मैं किसी छठी या सातवीं हथेली में बोतल की अंतिम बची कुछ बूंदे डाल रही थी तो रुख़साना ने अपनी उसी भारी आवाज़ में पूछा – “दीदी”
“हाँ”
“वो जो गारी (गाड़ी) आता है, वो क्या तुम्हारा अपना गारी है?”
“न” – कहकर मैंने खाली बोतल को बंद किया और अपने झोले में डाल दिया। पानी खत्म होना था कि हथेलियों के झुंड भी एक-एक कर गायब हो गये।
“दीदी”
“हूँ” – मेरी कैब आने का वक्त हो रहा था।
“तुम इनलोगों की तरह (सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की तरफ इशारा करके) अपना गारी क्यों नहीं लेते हो?”
“पैसे नहीं हैं” – मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
“झूठ। तुम तो ऑफिस में काम करता है। इत्ता बड़ा आदमी है, खरीद लो न!”
“ठीक है, खरीद लूँगी। पर मेरे गाड़ी खरीदने से तुम्हारा क्या फायदा होगा?”
“तुम्हारा गारी पोछूँगा न मैं! तब तो तुम मुझे पैसे देगा न?”
उससे अक्सर मुलाकातें होती रहतीं या यूँ कहूँ कि हम रोज़ ही मिलते। कभी बातें होतीं तो कभी बस दूर से ही मुस्कुराकर अभिभावदन स्वीकार हो जाता। इन्हीं मुलाकातों में उसने मुझसे अपने लिए एक जोड़ी चप्प्ल की मांग भी कर डाली। जिसे मैंने सैलरी मिलने पर खरीदने की बात कहकर टाल दिया। हालंकि, ये बात अलग है कि उसके बाद हर दिन का उसका पहला प्रश्न एक ही होता – “पैसे मिल गए तुम्हें ऑफिस से?”
फिर काफी दिनों तक वो मुझे नज़र नहीं आई। उसकी सखी-सहेलियों से पता चला कि उसकी माँ उसे लेकर अपने मायके ‘मोतीहारी’ चली गई है। इस बीच मैंने भी कैब की सेवा लेना लगभग छोड़ दिया। दो-तीन महीनों में एक बार। एकाध बार उनसे ऑटो में बैठे भी मुलाकात हुई। उसी चौराहे के नज़दीकी सिग्नल पर अगर कभी उन्होंने मुझे ऑटो में बैठे देख लिया तो एक अनोखी, अप्रत्याशित खुशी के साथ चहकते हुए ऐसे घेर कर अपनी बातें बताने लगते मानो ये सिग्नल कभी ग्रीन होगा ही नहीं। शुरुआत पानी की मांग से होती – “दीदी!!!” और फिर नज़दीक आकर – “पानी पिला दो”।
और फिर बातों का सिलसिला शुरु हो जाता। रुख़साना नहीं होती पर उसका ज़िक़्र अपने-आप ही लाते, मानो ये उनका फर्ज़ हो। मेरे पूछे बग़ैर ही उसकी सारी ख़बरें मुझ तक ऐसे ही आवारा पत्तों की मानिंद उड़ते-फिरते पहुँचती रहतीं।
“दीदी, रुख़साना का ना बाबू छोर दिया उसलोगों को”
“उसका मम्मी आया था यहाँ लेकिन उसको वापस भेज दिया”
“रुख़साना कहाँ है अभी?” – मैं भी पूछ लेती।
“वो अपना नानी का यहाँ है”
“यहाँ आएगी?”
“पाता नहीं”
और इन बातों में अक्सर ही इसका ख़याल नहीं रखा जाता कि मेरे साथ क्या कोई और भी उस ऑटो में बैठा है जिसे मुझे इस बातचीत और इस अनोखी दोस्ती या रिश्ते का बैकग्राउंड समझाना पड़ेगा।
फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला भी खत्म हो गया। मेरा उस रास्ते से आना-जाना बिल्कुल बंद हो चुका था और कैब तो अब मेरे लिए एक एलियन शब्द बन चुकी था। एलियन पूरी दुनिया ही हो चुकी थी। कौन से रास्ते कहाँ खुलते थे, कहाँ बंद होते थे कुछ पता नहीं चल पा रहा था। उजाले-अन्धेरों और हाईवे-गलियों के बीच चलते हुए उससे एक दिन फिर मुलाकात हुई।
मुझे किसी ने पीछे से पुकारा – “दीदी!!!!!” – थोड़ी दूर से पर ऐसा लगा मानो अभी तो ये आवाज़ कानों को छूकर गई थी!
मैंने पीछे देखा – रुख़साना थी – करीब 6-7 मीटर की दूरी पर। फुटपाथ पर चुक्का-मुक्का बैठी, सब्जी से सने हाथों में रोटी का टुकड़ा लिए थाली के सामने बैठी। इस फुटपाथ पर उसके जैसे लोगों की पूरी एक बस्ती रहती थी। बड़ी-बड़ी पॉलीथीनों, बैनरों और साड़ियों का टेंट बनाकर रहने वालों की बस्ती, जो अक्सर फ्लाई ओवर के नीचे की जगह को भी अपने फुटपाथ वाले घर का हिस्सा बना लिया करते हैं। इतने सारे लोगों के बीच जाने में मुझे संकोच हुआ, पर जब उसने हाथ के इशारे से मुझे दुबारा बुलाया तो मुझे जाना पड़ा।
“दीदी, यहाँ आओ” – उसने झट से अपना हाथ धोया और वहीं एक टेंट के पास मटमैले रंग की साड़ी पहनी एक महिला को दिखाकर कहा – “ये मेरा मम्मी है”
“मम्मी, देखो ये दीदी है” – उसकी मम्मी ने पलटकर मुझे देखा और मुस्कुराकर हाथ जोड़कर नमस्ते किया।
उसकी बगल में 4-5 साल का एक बच्चा खड़ा था।
“ये भाई है तुम्हारा?” – मैंने रुख़साना से उसकी हू-ब-हू मिलती शक़्ल को ध्यान में रखकर पूछा।
“नहीं” – एक बेहद रूखा जवाब आया और उसने उस लड़के को धक्का देकर वहाँ से चले जाने को कहा। लड़का थोड़ा पीछे खिसक गया। इस बीच रुख़साना की माँ ने अपने को फिर से काम में व्यस्त कर लिया था और चेहरे को आँचल से पूर्ववत् पूरी तरह से ढक लिया था।
“जाता क्यों नहीं? इधर मत आया कर” – उसे ऐसा निर्देश देकर रुख़साना मेरी ओर मुख़ातिब हुई – “ये मेरा भाई नहीं है”
“पर बिल्कुल तुम्हारी तरह दिखता है!” – उनके आपस में भाई-बहन न होने के बावज़ूद बिल्कुल एक जैसी शक़्ल के मालिक होने पर मुझे हैरानी हो रही थी।
“ये सबीना का भाई है। जा तू यहाँ से!”
लड़का थोड़ा और पीछे खिसका।
“दीदी, अब तो तुम दिखते ही नहीं?” – उसकी तरफ से नज़रें हटाकर उसने शिकायत की।
“हाँ” – मेरा ध्यान अब भी उस लड़के की तरफ था। वही आँखें, चेहरे की वही कटिंग, वही नाक...........
मुझे उसकी तरफ देखते हुए देखकर रुख़साना से उसे फिर हड़काया – “तू अभी तक यहीं खड़ा है? भाग!”
“अरे, क्यों भगाती हो? रहने दो खड़ा, क्या फर्क पड़ता है?” – मैंने उसे रोका।
“तुमको पता नहीं है, इसका मम्मी का कारण हमारा बाबू रोज हमारा मम्मी को मारता है” – और फुटपाथ पर पड़े दो कंकड़ एकसाथ रुख़साना के हाथों से दनदनाते हुए रॉकेट की तरह उस लड़के पर झपटे।
“ता अपना मम्मी को बोलो यहाँ से भाग जाए!” – कंकड़ खाकर भी लड़का यह जवाब देने के लिए वहाँ रुका रहा और फिर जीभ दिखाकर सरपट भाग लिया। रुख़साना ने दो-चार कंकड़ और सम्हाले और उसके पीछे भागी।
रुख़साना की माँ ने अब आँचल थोड़ा उठाकर भागती रुख़साना को देखा, आसपास खड़े-बैठे अपनी बिरादरी के लोगों को अपनी ओर अर्थपूर्ण तरीके से मुस्कुराते हुए देखा और आँचल फिर से नीचे खींचकर काम में लग गई।
मेरे लिए वहाँ कुछ रह नहीं गया था। मुझे पीछे से बुलाने वाली रुख़साना अभी किसी और ही के पीछे भाग रही थी। मैं चली आई।
फिर उससे एकबार मुलाकात हुई जो अभी तक की उससे मेरी अंतिम मुलाकात है।
पेट्रोल पंप पर हमारी गाड़ी में पेट्रोल भरा जा रहा था। मुझे फोन पर बात करनी थी इसलिए मैं थोड़ा बाहर आकर खड़ी हो गई थी। नंबर मिलाकर मैंने जैसे ही बात करना शुरु किया, वही आवाज़ – “दीदी”
मैंने सामने देखा। रुख़साना। सड़क की दूसरी तरफ। थोड़ी अलग थी। मुड़ी-तुड़ी पैंट और ऊपर से दो बटन खुली शर्ट ने सलवार कमीज़ का रूप धारण कर लिया था। बेतरतीब सी गुँथी एक चोटी बेतरतीब ही पर दो चोटियों में बदल गई थी। कमर पर रखे रहने वाले हाथों की अंगुलियाँ कंधों पर करीने से रखे गए पीले रंग के दुपट्टे के छोर में गाँठ बांधने-खोलने में व्यस्त थीं।
लापरवाह और बदमाश रुख़साना को ये क्या हो गया?
तब तक अपनी एक सहेली के साथ सड़क पार कर वह मेरे करीब आ गई। पहनावा कुछ भी हो, पर चेहरा वही था – हँसता हुआ – आत्मविश्वासी – चमकीली आँखों वाला।
“तुम गारी ले लिया दीदी?”
“क्यों? पोछना है?”
“नहीं” – हँसता और थोड़ा लजाता हुआ उत्तर।
“वैसे भी, मेरे पास पैसे नहीं हैं”
“तुम कितना झूठ बोलता है दीदी! उस वक्त भी बोला कि नहीं है। अब भी बोल रहा है” मैं मुस्कुरा दी।
कुछ देर हमदोनों चुप रहे।
“मेरा मम्मी यहीं झुग्गी में घर ले लिया है। 1400 रुपया महीना पर”
“1400 रुपये? हर महीने दे देती हो?” – मुझे आश्चर्य हुआ, हर महीने इतना कमा लेते हैं ये!
“हाँ, मम्मी देता है मेरा! हर महीना के अंत में आता है मालिक”
“अच्छा”
“उसके पास भी ऐसा ही गारी है, पर रंग दूसरा है। मम्मी को बिठा के ले जाता है”
“गाड़ी में?........कहाँ?”
“किराया लेने, बैंक”
“.............”
“एक दिन हमको भी ले जाएगा! परामिस (प्रॉमिस) किया है” - भारी आवाज़ में खनक आ गई थी।
“तुम्हें क्यों?”
“क्यों? मैं भी तो घूमूँगा मम्मी के साथ! अभी बोलता है मैं छोटा हूँ, बैंक के अन्दर जाने नहीं देगा” फिर मेरे मोबाइल को देखकर कहा – “तुम्हारा मोबाइल है?”
“हाँ”
“नया है?”
“हाँ, थोड़ा सा”
“मैं देखूँ?” – कहकर हाथ बढ़ाकर उसने मोबाइल ले लिया और 30-40 सैकेंड की जाँच पूरी करने के बाद मुझे लौटाते हुई बोली – “फोटो भी खींचता है ये?”
“हाँ” – मुझे हँसी आ गई – “तुम्हारी खीचूँ?”
“नहीं” - कहकर उसने तुरंत अपना दुपट्टा अपने चेहरे पर कर लिया और पीछे मुड़ गई। लेकिन जाने क्यों मेरे मन ने कहा कि शायद उसका इस निर्लिप्त हँसी से हँसता हुआ चेहरा मुझे दुबारा देखने को न मिले।
और फिर जद्दोज़हद शुरु हुई उसकी एक अच्छी फोटो लेने की।
रूठना, समझाना, झिझक, नाराज़गी, शर्म और जाने क्या-क्या जो मैंने उससे उम्मीद नहीं की थी। और अंतत: जब मेरा धर्य खत्म हो गया तो मैंने भी हार मान ली – “ठीक है, अगर तुम नहीं चाहती कि मैं तुम्हारी फोटो लूँ, तो मैं नहीं लूँगी” – और मैं गाड़ी की तरफ बढ़ गई। गाड़ी काफी देर से सड़क किनारे खड़ी होकर मेरा इंतज़ार कर रही थी। जैसे ही दरवाज़े तक पहुँची – “दीदी” लेकिन इस बार मैं न पलटी न ही मैंने कुछ कहा।
अन्दर बैठने ही वाली थी कि एक दूसरी आवाज़, उसकी सहेली की – “दीदी, खिचवाएगा ये, रुक जाओ”
लेकिन मैंने इस बार भी नज़रअन्दाज़ कर दिया और गाड़ी में बैठ गई। दरवाज़ा बन्द करने से पहले फिर वही आवाज़ – “दीदी, रुक जाओ। ये तैयार है!”
मैंने देखा उधर। अब तक एक पूरा का पूरा झुंड वहाँ खड़ा हो चुका था। बीच में खड़ी रुख़साना लजाती और हँसती हुई मुझे ही देख रही थी।
“लेकिन मैं अकेले नहीं खिचवाऊँगा”
“तुम इसे किताब में तो नहीं छापोगे?”
“चुन्नी ओढ़कर”
“मेरा मम्मी गुस्सा हो जाएगा”
और आख़िरी में – ‘जब फोटो आ जाएगा तो मुझे दिखाओगे न दीदी’ – उसके बोलने का तरीका अजीब-अजीब तरीकों में लिपटा होता था।
“बिल्कुल! तुम देखना कैसी लगती हो फोटो में”
हालांकि उसकी कोई ऐसी फोटोग्राफ जिसे मैं उसकी फोटो कह सकूँ, नहीं ली जा सकीं, 2-3 मिलीं लजाते-लजाते और वो भी उसका आधा-अधूरा चेहरा दिखातीं। बहरहाल, उसके झुंड ने मेरे फोटोग्राफी के इस शौक का पूरा इस्तेमाल किया और बाक़ायदा अलग-अलग पोज़ में जबरन मुझसे कई फोटो क्लिक करवाए गए।
वे फोटोग्राफ मेरे कम्प्यूटर में रखे हैं कहीं। प्रिंट आउट लेकर कभी दे आऊँगी उसे। एक जोड़ी चप्पल भी रखी है। पर जाने क्यों इस बार उससे मिलने से डरती हूँ.........शायद.........उन आँखों को हमेशा चमकीला जो देखा है...
(फोटोग्राफ नहीं डाल रही हूँ, उसने छापने से मना किया था)
बहुत सुन्दर लघु कथा है, बिल्कुल अपने नामानुकूल लिखा है आप ने,
ReplyDeleteबहुत - बहुत शुभ कामना
धन्यवाद दीप....
ReplyDeletesundar or sahi shado ke sath likhi gyi kahani....pasand aayi !!
ReplyDeleteBadhai ...
Jai ho manglamy HO
आपके जीवन में बारबार खुशियों का भानु उदय हो ।
ReplyDeleteनववर्ष 2011 बन्धुवर, ऐसा मंगलमय हो ।
very very happy NEW YEAR 2011
आपको नववर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें |
satguru-satykikhoj.blogspot.com
लघु कथा ही नहीं वल्कि एक सफल कहानी ...जीवन से जुडी हुई ...बहुत बढ़िया ...शुक्रिया
ReplyDeleteनव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें ......स्वीकार करें ..
ReplyDeleteइस साल की विदाई और नए वर्ष का अभिनन्दन अच्छा लगा ..
ReplyDeleteनव वर्ष की शुभकामनायें
Naye saal kee dheron shubhkamnayen!
ReplyDeleteRachana padhne dobara aaungi!
देर से टिप्पणी देने के लिए माफ़ी...दरअसल उक्त कृति को पढ़ने के बाद एक पंक्ति में टिप्पणी देना उचित नहीं होता और कुछ व्यस्तता के कारण ज्यादा नहीं लिख पा रह था ...उक्त रचना को आज फुरसत में पढ़ा हूँ और टिप्पणी दे रहा हूँ....................यथार्थ को दर्शाती एक खुबसूरत कृति जिसमे साहित्य एवं समाज दोनों के सुन्दर समन्वय के दर्शन होते हैं. ..... यह कृति जहाँ एक तरफ समाज के एक तबके को छूती है वहीं साहित्य की मर्यादा को भी महिमा मंडित करती है !
ReplyDelete"ये वो लड़कियाँ हैं जिन्हें अपने नाम का अर्थ नहीं पता। जिनके लिए सुनीता का ‘स’ और रुख़साना का ‘र’ कोई मायने नहीं रखता। मायने रखती है तो चौराहे की लाल बत्ती। भीड़ में खड़ी लम्बी-लम्बी गाड़ियाँ। दौड़ते-भागते शीशा पोंछते इन्हें जो कभी-कभार इक्का-दुक्का पैसे मिलते हैं वही इनके लिए अक्षर हैं, वही इनकी वर्णमाला। "
शुरुआत से ही कृति के उद्देश्य का बोध होने लगता है ! जहां हर पंक्ति में जीवन्तता है वहीं अक्षर-अक्षर में यथार्थ भी !
"“सनीवार है। सनी महराज को दे दो”
डिब्बे में कुछ सिक्के पड़े थे और उसके अन्दर धूपबत्ती जल रही थी।
“सनी महाराज पैसे का क्या करेंगे?”
“आसीरवाद मिलेगा तुमको”
आज के समाज में उक्त पंक्ति सार्थकता के तटस्थ प्रतीत होती है ! उक्त रचना यह सोचने पर मजबूर करती है की समाज के इस तबके को किस समुदाय में रखा जाय ? .................................................................बाकी बहुत ही सुन्दर एवं उद्देश्य परक कृति है !
आप सभी को नव वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ व कृति को पसन्द करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया...वैसे यह कृति पूरी तरह से रुख़साना की है..कहानी, संवाद, शुरुआत, अंत सभी उसी की देन हैं...मैंने तो बस इन सभी को शब्दों में ढाल दिया है...
ReplyDeleteआपके शब्दों ने इसे जीवंत बना दिया है...धन्यवाद
ReplyDelete@विवेक...आपकी कविता 'आज की सुबह ये कैसे आई' पढ़ा...बहुत ही प्यारी व जीवंत कविता है...लगा जैसे जनवरी की सर्दी में कहीं से गुनगुने धूप का एक टुकड़ा मिल गया...आपके ब्लॉग पर किसी तकनीकी कारण से टिप्पणी पोस्ट नहीं कर पाई..कविता इतनी सुंदर थी कि बिना टिप्पणी किए रह नहीं सकी और इसलिए यहाँ लिख रही हूँ...
ReplyDeletevery happy new year.....
ReplyDelete..very interesting article....real thinking ..thanks for post
प्रज्ञा जी आप का धन्यवाद जो आप ने टिप्पड़ी की बहुत अच्छा लगा
ReplyDelete@mark...thanks for the comment and happy new year to you too..
ReplyDeleteप्रज्ञा, बहुत सारी चीजें हैं हमारे दिमाग के अन्दर | उनमे से सबसे खतरनाक चीज है सहानुभूति | तुमने ये कहानी वही तंतु छेड़ के छोड़ दी है | तुम्हारी कहानी का बेहद सही और संतुलित पक्ष है ये | उम्मीद और हताशा के बीच में तुमने रख छोड़ी है ये कहानी | बेहद खूबसूरत कहानी |
ReplyDeleteएक बात और, संवाद भी बहुत अच्छे और सार्थक लगे, बिना नाटकीयता के |
@नीरज जी...हौसलाआफ़ज़ाई व कहानी पसंद करने के लिए बहुत शुक़्रिया..
ReplyDeleteआज थोड़ा समय मिला तो आप तीनों रचनाओं को फिर पढ़ा .
ReplyDeleteनीलोफ़र का पागल,रुख़साना और बदनाम. लगा , तीनों एक ही diary के पन्ने हैं.आप के लिखने की शैली बहुत ही अच्छी है.पहली लाइन से पढ़ना शुरू करते हैं तो ठहराव आता ही नहीं.कब अंत हो जाता है की पता ही नहीं चलता सोमेर्सेट माम की रचना की तरह.कई बार लगता है बलराज साहनी जी की कोई रचना पढ़ रहा हूँ.
आप विषय की रोचकता को बनाए रखना बखूबी जानती हैं. कई बार ऐसा लगता है कोई documenatry फिल्म देख रहा हूँ discovery चैनल पर जिसमे शेर शिकार कर रहा है और छायाकार निर्विकार ,उदासीन फिल्म उतार रहा है.कई बार खलता है रचना में आपका न बोलना और कुछ न करना .मुझे पता है ये तीनों पात्र आप को जरूर सजीव रूप में मिले होंगे,चाहे उनका रूप थोड़ा अलग रहा होगा.आपने ऐसे पात्र चुने हैं जिस से पाठक रोज़ मिलते हैं लेकिन ध्यान नहीं देते.आज मैं गाडी लाल बत्ती पे रोकता हूँ तो कितनी ही रुखसाना नज़र आ जाती हैं.ऐसे ही किसी मोड़ पर, किसी पेड़ के नीचे नीलोफर का पागल भी मिल ही जाता है.और शहर की एक बदनाम गली में मीराबेन टकटकी लगाये पूछती है, "क्यों आए थे?".और आप ही तरह मैं भी निरुत्तर सा देखता रहता हूँ.
बहुत ही सुन्दर रचनाएँ हैं .कहानिया कहने से डर लगता है कहीं रुखसाना , निलोफर का पागल और मीराबेन नाराज़ न हो जाएँ.
@sagebob>>>>सच कहूँ तो आपकी टिप्प्णी अभिभूत करने वाली है...कई बार रचना से अधिक ख़ूबसूरत उसकी आलोचना होती है, आपकी टिप्पणी इस बात की गवाह है...बहुत शुक्रिया इस बेहतरीन टिप्पणी के लिए...
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