Tuesday, September 27, 2011

रुत

रुत को शादी करने का बड़ा शौक था। दसवीं पास कर लिया था और अब शादी का सपना सवार हो गया था। रुत उन लड़कियों में से थी जिसे गुड़िया खेलना और घर-घर खेलना सबसे अधिक भाता था। घर-घर खेलने में मानो वो अपनी खुद की दुनिया बसती देखती थी। बाकी के दोनों भाई-बहन पढ़े-लिखे, अच्छी-खासी उम्र के होने के बाद शादी करके खुश। लेकिन रुत को पढ़ाई-लिखाई बेकार की चीज़ें लगतीं। बरतन की सफाई में जो सुख है, घिस-घिसकर उसे आईना बनाने में जो मज़ा है वह भला भौतिकी की मशीनों में कहाँ?
सुबह उठते ही वह झाड़ू-पोंछा, बरतन, घर सजाने, खाना बनाने और इन सबके बीच अपनी शादी के सपने देखने में मशगूल हो जाती। उसे कुछ नहीं चाहिए – एक प्यारा सा पति, एक अपना सा घर – जिसे वह अपने हिसाब से सजाती-सँवारती रहे। यहाँ तो वह अपनी पसन्द का कुछ कर ही नहीं सकती – सबके अपने-अपने कमरे हैं – सबका अपना-अपना हिसाब। खुद का भी एक अकेला कमरा होता तो कोई बात होती, वह भी माँ और दादी के साथ बाँटना पड़ता है। और अपने घर के ख़्वाब में खो जाती रुत।
बड़े भाई ने बहुत समझाया। पढ़ाई पूरी कर ले रुत, शादी तो होनी ही है। लेकिन ना। पढ़ाई में रुत का बिल्कुल मन नहीं लगता। क्यों करे वह पढ़ाई जब उसे शादी ही करनी है! तो रुत दसवीं पास ही रह गई और उसकी माँ ने उसके लिए कोई लायक लड़का ढूँढना शुरु कर दिया। और इस बात पर बड़े भइया ख़फ़ा हो गए। माँ-रुत एक तरफ और भइया एक तरफ। दीदी की तो पहले ही शादी हो चुकी थी। लेकिन रुत उस शादी से खुश नहीं थी – ऐसी क्या शादी जिसमें दोनों जन दिन भर नौकरी ही करते रहो। ख़ैर, तो भइया ख़फ़ा होकर चले गए अपने शहर हैदराबाद और माँ फिर से अपने कर्तव्य की जल्दी से जल्दी पूर्ति में लग गई।
रिश्ता आया। बुआ के यहाँ से। लड़का अकेला था। अकेला मतलब न माता-पिता, न भाई-बहन। हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा था जब भूकम्प में घर के सभी सदस्य मारे गए थे।
बुआ ने बताया कि लड़का अच्छा है। हालांकि उस हादसे के बाद उसने पढ़ाई छोड़ दी और अभी किसी स्टील की कम्पनी में नौकरी करता है। माँ सुनते ही तैयार। बुआ पर उन्हें पूरा भरोसा था। हो भी क्यों न, बहू भी तो वही ढूँढ कर लाईं थीं।
और जब रुत को ये बात पता चली तो उसकी खुशी की सीमाएँ न रहीं, कल्पनाएँ शुरु हो गईं!
शादी, घर और बच्चे – यही उसकी दुनिया थी। जैसे-जैसे शादी की तारीख़ नज़दीक आती गई, रुत की पलकें सपनों से भारी होती गईं। तैयारियाँ अपने परवान पर थीं, इसी बीच बड़े भइया को एक गुमनाम पत्र आया। पत्र लिखने वाले ने अपनी पहचान छुपाते हुए लिखा था कि लड़का कुछ बुरी आदतों का शिकार है। कैसी बुरी आदतें? यह नहीं बताया गया था। भइया गाँव आए। बुआ को बुलावा भेजा। बुआ ने समझाया कि ऐसा कुछ नहीं है, कुछ लोग हैं जो लड़के से जलते हैं और इतनी अच्छी लड़की से उसका रिश्ता होते देख घटिया हरकतों पर उतर आए हैं। माँ ने भी हाँ में हाँ मिलाया। पर भइया का दिल नहीं मान रहा था। उन्होंने माँ को कहा कि अभी भी वक़्त है, एक बार जाकर लड़के से मिल लो। पर माँ ठहरी बुआ पर अंधविश्वास रखने वाली। बुआ आख़िर हमें खराब लड़का थोड़े ही दिलवाएँगी? क्या बहू को शादी से पहले हमने देखा था, नहीं न? फिर इस बार ऐसा क्यों करें? और अब शादी की इतनी तैयारियाँ हो गई हैं, अब क्या होगा मिलजुलकर?
बुआ भी नाराज़ हो गईं – मुझपर भरोसा नहीं है। भइया ने रुत को समझाया – रुत ज़िंदगी खराब हो जाएगी तेरी। इतनी छोटी सी तो है तू, क्या जल्दी पड़ी है शादी करने की? एक बार सही से खोज-खबर तो करवा ले। पर रुत की आँखों में आँसू आ गए। भइया तो शुरु से ही नहीं चाहते कि मैं शादी करूँ। खुद तो मेरे लिए लड़का ढूँढा नहीं, एक बुआ लेकर आई हैं तो उसमें भी खराबियाँ दिख रही हैं। थक-हारकर भइया वापस हैदराबाद चले गए। शादी हुई। धूमधाम से। सभी बहुत खुश। लड़का खूब सुन्दर है, हाँ थोड़ा दुबला है, पर कितना गोरा है देखो तो! फिर नौकरीशुदा, कलकत्ते में रखेगा रुत को! राज करेगी रुत! और रुत तो अपने दूल्हे को देख इतनी खुश कि विदाई के समय का रोना भी भूल गई। माँ हँस पड़ी – “अरे, शकुन के नाम पर तो सबके सामने रो दे रुत”
आज तीन साल बीत चुके हैं। उस रोज़ शकुन के नाम पर भी न रो पाने वाली रुत आज भी खुद को घर के किसी न किसी काम में व्यस्त रखकर किसी के सामने रोने नहीं देती। लेकिन घर वो नहीं जहाँ वह शादी कर गई थी, घर वो जहाँ से उसकी शादी हुई थी। शादी के तीन-चार महीने तक तो सबकुछ बहुत अच्छा रहा। बिल्कुल रुत की कल्पना जैसा, जैसा वह चाहती थी। उसकी गुड़ियों के घर जैसा ही उसका अपना एक छोटा-सा, सुन्दर-सा घर हुआ जिसको वह दिन-रात सजाती रहती। एक प्यारा-सा पति मिला जिसके लिए ख़ुद को सजाती रहती। पति के दोस्त, रिश्तेदार हुए जो यदा-कदा मिलने पर भी पति के नाम पर उसे छेड़ने का कोई मौका नहीं गँवाते और वह अपने गुलाबी गालों को आँचल से ढकती फिरती कि कोई उन्हें शर्म से लाल होते न देख ले।
कितनी अच्छी थी वह दुनिया। पति का नाम था रोशन जो अक्सर अपना सारा समय उसी के साथ बिताता। लेकिन कभी गायब होता तो दो-तीन दिनों के लिए गायब हो जाता। रुत अपने घर से बहुत कम बाहर निकलती थी। कुछेक रिश्तेदार उसके आसपास रहते थे पर अपने घर के कामों से ही फुरसत नहीं मिलती थी, क्या किसी और के यहाँ जाए। रुत पूरी तरह रमी थी अपनी गृहस्थी में, किसी की कोई चिंता नहीं, कोई परवाह नहीं। लेकिन जब रोशन के गायब होने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी और वो हफ्तों-हफ्तों के लिए गायब होने लगा तो रुत को चिंता हुई।
‘नौकरी ही ऐसी है’ – रोशन ने कहा था। लेकिन रुत का दिल घबराता। कहीं किसी और लड़की के साथ..........और रुत का दिल डूबने लगता। एक दिन बुआ आईं घर पर। बातचीत के दौरान रुत ने हिचकते-हिचकते उन्हें रोशन के हर दूसरे-तीसरे दिन गायब होने की बात बताई और उसकी ज़िन्दगी में किसी दूसरी लड़की के होने की अपनी आशंका भी सामने रखी। बुआ ने गंभीर होकर सुना और रुत को दिमाग से किसी और लड़की का वहम निकाल देने को कहते हुए आश्वासन दिया कि वे इसका पता ज़रूर लगाएँगी।
लेकिन न तो रोशन का गायब होना रुका और न ही बुआ का फिर कोई सन्देश आया। आजकल रोशन चिड़चिड़ा भी होने लगा। रात में भी कब आता पता नहीं चलता। अपने-आप में कुछ बड़बड़ाता रहता। रुत पूछती तो उसपर चिल्ला उठता। रुत सहम उठती।
उसकी दुनिया तो ये न थी। उसकी तो वही दुनिया थी जो उसने कभी अपनी गुड़ियों को दी थी, जो उसने कभी घर-घर में खेला था। वहाँ प्यार था, खुशी थी, अपनापन था, सुरक्षा थी। पर यहाँ तो ये सब कुछ धीरे-धीरे कर खत्म हो रहा था। और वह इसमें कुछ नहीं कर पा रही थी।
अभी तक उसने ये बातें अपने घर वालों से संकोचवश छिपा रखी थी। उसे डर था कि भइया पता चलने पर डाँटेंगे और कोई उपाय ढूँढने की बजाय कहेंगे ‘मैंने तो पहले ही मना किया था। अब सम्हालो खुद ही’। क्या करूँ क्या न करूँ इसी उधेड़बुन में एक शाम वह बाहर की सीढ़ियों पर बैठी थी कि उसने किसी को अपने घर की ओर आते देखा। वह कौन था, रुत नहीं जानती लेकिन जिसे वह अपने कन्धों का सहारा दिए ला रहा था वह रोशन था। रोशन ऐसी हालत में? वह लगभग घिसट रहा था। आँखें करीब-करीब बन्द थीं और बदन में मानो जान ही नहीं थी।
रुत घबरा गई। फटाफट दरवाज़ा खोला और रोशन को उस व्यक्ति की मदद से बिस्तर पर लिटाया। वह व्यक्ति उसके मुहल्ले में रहता था और ‘क्या हुआ’ पूछने पर उसका जो जवाब आया, उसे सुनकर रुत के पाँवों तले की ज़मीन खिसक गई।
‘लड़का बुरी आदतों का शिकार है’ – उसे शादी से पहले मिली उस गुमनाम चिट्ठी की याद आ गई।
मेरा रोशन चरस पीता है – उस रात वह बहुत रोई। सुबह उठी तो रोशन गायब था। बहुत हिम्मत करके वह उस बड़े नाले के पास गई जहाँ से कल शाम रोशन को मुहल्ले का वह आदमी उठाकर लाया था। बड़ा सा नाला, बड़े-बड़े पेड़ों से घिरा, काले पानी, आसपास लगे कई छोटे-छोटे पौधों और गन्दगी में मुँह मारते सुअरों से भरा, सुनसान। उसने एक-दो बार रोशन को आवाज़ दी पर कोई जवाब न सुनकर वापस आ गई। उस रात जब रोशन आया तो उससे उसकी पहली लड़ाई हुई जो फिर हर दिन की लड़ाई बन गई। हालांकि उसके बाद से रोशन हफ्तों गायब नहीं रहता बल्कि हर दूसरे-तीसरे दिन उसे कोई न कोई सहारा देकर नाले से घर तक पहुँचा रहा होता। रूनी अन्दर ही अन्दर टूटती रहती। उसके सपने के घरौंदे पर चरस के पौधे उग आए थे। आखिर उसने माँ को बताया। माँ घर आई। रोशन से बात की, लेकिन बातचीत में रोशन बहुत कम शब्द बोलता। हाँ, पर जब तक माँ रही रोशन ठीकठाक रहा। यह ज़रूर चाहता रहा कि माँ जल्दी चली जाए। और माँ जल्दी चली भी गई। यह उम्मीद कर कि अब रोशन सुधर गया लगता है। लेकिन ऐसा नहीं था।
रुत ने माँ को दुबारा बुलाना चाहा तो वह हिंसक हो उठा। चूल्हे की लकड़ी के निशान रुत के बदन पर करीब दस-पन्द्रह दिनों तक रहे। रुत रोती रही – हफ्तों। और जब आँसुओं का सैलाब थमा तो सामने उसने बड़े भइया को खड़ा पाया।
बड़े भइया को बहुत बाद में इस बात की खबर मिली और खबर मिलते ही वो रुत के यहाँ आ पहुँचे। तब आदतन रोशन घर पर नहीं था। रुत से बात कर उन्होंने उसके मोहल्ले वालों से बातचीत की। पता चला कि रोशन को चरस-गाँजे की आदत पहले से थी। इसी चक्कर में उसकी पढ़ाई छूट गई और नौकरी तो उसने कभी की ही नहीं। पुरखों की कमाई थी ही उड़ाने को। कुछ लोगों ने बताया, ‘पहले तो कहीं और जाता था, फिर अभी कुछ दिनों पहले से यहीं नाले के पास उसने अपना खुद का इंतज़ाम कर लिया। इस वज़ह से पहले वाली पार्टी से उसकी लड़ाई भी होती रहती थी। अब वहीं पड़ा रहता है दिन भर। हमें दिखता है तो हम उठा लाते हैं यहाँ।’
रुत को पता था बड़े भइया नाराज़ हैं। घरवालों से, बुआ से, रुत से, और ख़ुद से भी।
रोशन से मिलने का इंतज़ार किए बिना उन्होंने रुत को सामान बाँधने को कहा फिर बड़े नाले के पास जाकर देखा – रोशन सचमुच वहीं पड़ा था – भइया को देखकर उसने हिलने की कोशिश की पर हिल न सका। दो घंटे बाद की ट्रेन से रुत मायके आ गई।


आज भी रुत मायके में ही है। एक साल भी न चल सकी अपनी गृहस्थी को याद कर सपनों से भारी होने वाली पलकें अब आँसुओं से भारी हो चलती हैं। रुत उन्हें रोकने की कोशिश करती है पर अकेले में वे मानते नहीं – रोशन की तरह। बड़े भइया ने बहुत कोशिश की रुत को किसी इंस्टीट्यूट में दाखिला दिलाने की, पर रुत को अभी भी पढ़ाई पसन्द नहीं। वह अपनी माँ के घर को सजाने में व्यस्त है। पता नहीं व्यस्त है या ख़ुद को व्यस्त रखे हुए है। बहुत कम बोलती है। बोलती तभी है जब बड़े भइया दूसरी शादी की बात करते हैं। रोशन कभी दुबारा मुड़कर आया नहीं और इस वज़ह से उससे तलाक संभव नहीं हो पाया। रुत बोलती है कि जब तक एक से तलाक मिला नहीं तब तक दूसरे से शादी कैसे करूँ। बड़े भइया जानते हैं कि रुत अब न किसी से तलाक चाहती है और न किसी से शादी। वो उसकी आँखों में झाँकते हैं जिसमें उसने कभी अपने लिए गुड़िया जैसी शादी के सपने सजाए थे और चुपचाप उठ जाते हैं।

16 comments:

  1. बेहद मार्मिक्।

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  2. शादी करने की तुनक ने कहां पहुंचा दिया कहानी की नायिका को.... इसीलिए कहा जाता है, जिंदगी का कोई भी फैसला कल्‍पनाओं के सहारे नहीं हकीकत को जानने के बाद लिया जाना चाहिए.....

    अच्‍छी सीख देती कहानी।

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  3. आपको सपरिवार
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  4. अच्‍छी सीख देती कहानी।
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं|

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  5. हृदय स्पर्शी चित्रण.
    प्रज्ञा जी,सपने टूट जाएँ तो कई बार सपने देखने का मन नहीं करता.
    सुन्दर रचना के लिए आभार आपका.

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  6. संवेदनशील प्रस्तुति ...

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  7. यह सिर्फ़ एक कहानी ही नहीं कहीं वास्तविकता भी है. अंजानी ललक में कई लड़कियां अपना भविष्य बिगाड़ ही लेती हैं.

    आपके प्रोफाइल को लिखने वाली कलम ने भी प्रभावित किया. :-)

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  8. कहानी का सहज प्रवाह और भाषा शिल्प मन पर असर करता है...
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं|

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  9. आप सभी का बहुत-बहुत शुक़्रिया...साथ ही नवरात्रि की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

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  10. बहुत माम्रिक कहानी लगी. नवरात्रि की शुभकामनायें.

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  11. मार्मिक ....
    शुभकामनायें रुत के लिए !

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