Tuesday, February 8, 2011

......................................

सभी बेहद निराश थे। लड़के वालों ने ना कह दिया था। हमेशा से अच्छे फिगर वाली फुन्नू आज उन्हें बेहद दुबली-पतली, कमज़ोर-सी नज़र आ रही थी। क्या नहीं किया था इसे सजाने के लिए। कोई कसर न छोड़ रखी थी। पड़ोस की बिन्दु के घर से जाने कौन-कौन सी क्रीम लाई थी फुन्नू की माँ। नया सलवार-सूट, नई सैंडल, बालों में लगाने को क्लिप और बाला-चूड़ी के लिए पूरे चार घंटे बाज़ार का चक्कर लगाया था उन्होंने। सारी मेहनत और पैसों पर पानी फिर गया।

“अब यूँ मुँह लटकाने से कुछ नहीं होगा” – फुन्नू के पापा ने कहा – “इसकी शादी करनी है तो इसका वज़न बढ़ाना होगा। अब भाई लड़के वाले हैं पूरा नाप-तौल के, ठोक-बजा के, हर तरफ से देखेंगे ही। दस ऐंगल से देखा होगा उन्होंने।”

“लड़की है कोई गाय-बकरी थोड़े ही न है जो खरीदार को दिखाने के लिए ताज़ा-मोटा करेंगे” – माँ ने सोफे के नीचे से जूठे कप बटोरते हुए कहा।

“खरीदार तो हम हैं जो दीदी के लिए लड़का खरीद रहे हैं” – दरवाजे के पास खड़ी फुनकी ने बीच में कहा – “दहेज देकर”
“तू करना बिना दहेज के अपनी बेटी की शादी। बीच में टाँग अड़ा रही है। जा, जाकर दीदी को कह उतार दे सारा सिंगार। ठूँठ लकड़ी पर सिंगार नहीं जँचता”

पापा की बात सुन फुनकी वहाँ से हट गई थी। और फिर धीरे-धीरे कर सभी अपना लटका हुआ मुँह ले वहाँ से इधर-उधर हो गए थे।

मिश्रा जी की हालत इतनी अच्छी न थी कि वे पूरा खाना घी-दूध में बनवाते। पहले से ही राशनवाले पर दो-ढाई हज़ार का कर्ज़ बाकी था। इसलिए घर भर में सिर्फ फुन्नो को घी लगी रोटी मिलती – टपकते घी से तरबतर। ख़ासतौर से उसके लिए दोपहर को राज़मे की सब्ज़ी बनती – जितना प्रोटीन मिलेगा उतना मोटाएगी। खूब टमाटर खाने को मिलते, भूख से ज़्यादा रोटी दी जाती।

“जितनी जल्दी स्वास्थ्य सुधर जाए उतना अच्छा। देखो तो कैसी सींकड़ी लगती है। ऐसे में कौन इसे पसंद करेगा”

“इसकी शादी हो जाए तो फुनकी के लिए लड़का ढूँढें। इसके चक्कर में उसकी भी उमर निकल जाएगी” – माँ चिंता करतीं।

“नहीं, उमर की तो कोई बात नहीं है। ऐसी बड़ी भी नहीं हुई हैं दोनों। बस, देखने-सुनने में ज़रा अच्छी बनीं रहें। कहो उनसे कि दोनों अपना थोड़ा-बहुत ख़याल रखें”

“हाँ, वो तो रख रही हैं। फुन्नो के लिए जो फुल क्रीम दूध आता है, उसी में से लेकर दो-तीन चम्मच मलाई लगा देती हूँ दोनों को”

“हाँ, सो ही” – पापा अख़बार पढ़ते हुए कहते – “भई लड़कियों को सुन्दर तो होना ही पड़ता है। लड़के की कमाई और लड़की की ख़ूबसूरती, यही तो देखते हैं लोग। और, कुछ मोटाई की नहीं फुन्नो?”

“अभी तो शुरु ही किया है, कुछ दिनों में हो जाएगी” और फुन्नो को मोटा करने में परिवार वाले लगे रहे। अभी हाथ ज़रा पतले हैं, अभी दुहरी ठुड्डी नहीं आई, अभी कंधे की हड्डी दिखती है – और इन सबके बीच फुन्नो चुपचाप, बिना कुछ बोले उन सबके कहने पर चलती रही।

“दीदी को मोटा करने की चिंता में कहीं बाकी सभी न दुबले हो मरें” – फुनकी अक्सर हँसकर कहती।
घी टपकती रोटी देख फुन्नो ने एक दिन माँ से कहा था – “असली रोटी का स्वाद क्या होता है, ये तो मैं भूल ही गई माँ। एक रोटी तो बिना घी की दे दे”

“बलि के बकरे को देखा है कभी तूने? – फुनकी ने हमेशा की तरह अपनी चोटी घुमाते हुए कहा।

“चुप रह” – माँ ने बुरी तरह झिड़का – “हर जगह टाँग अड़ाती फिरती है। तुझे जलन हो रही है तो तू भी खा ले”

“ना। मैं तो ऐसी ही ठीक हूँ। जैसी हूँ वैसे में कोई पसंद करे तो ठीक है वरना जाए चूल्हे में। मुझे किसी के लिए कुछ घटाने-बढ़ाने का शौक नहीं”

“शौक किसे होता है बेटा” – एक हाथ से अपने माथे पर आए पसीने को आँचल से पोंछते हुए और दूसरे से तवे पर रखी रोटी पलटते हुए माँ ने कहा – “लेकिन मजबूरी भी तो कोई चीज़ होती है। आज अगर इसके दुबले होने के कारण कोई इसे पसंद नहीं करेगा तो कैसे करेंगे इसकी शादी? फिर तुझे भी तो ससुराल भेजना है। शादी ऐसे ही थोड़े न हो जाती है कि हाथ उठाया और कर दी” – माँ ने रोटी घी में चुपड़ा और फुन्नो की थाली में डाल दिया।

“माँ” – फुन्नो ने रोकते हुए कहा – “बिना घी की। मैंने कहा था” – लेकिन तबतक रोटी थाली में जा चुकी थी।

“क्यों नखरे करती है। जो दे रही हूँ खा चुपचाप। एक तो तेरी चिंता में हम घुले जा रहे हैं और तू है कि..........। जल्दी से वज़न बढ़ा। ये नहीं होता कि खा-पीकर जल्द-से-जल्द स्वास्थ्य सुधार लें। जानती है लोग क्या कहते हैं? कहते हैं, अरे वो, मिश्रा जी की लड़की? वो तो अभी बच्ची है! हाय राम, कब तक बच्ची बनी रहेगी तू? जल्दी से अपना घर-बार बसा। और अब खा चुपचाप।”

और फुन्नो खाती रही। चुपचाप। बिना कुछ बोले। परिवार में हर वक्त लोगों की निगाहें उसकी देह पर होतीं – “हाँ, अब तो कुछ-कुछ ठीक है, लेकिन अभी भी सब कुछ ठीक नहीं है” – ठीक सचमुच सब कुछ नहीं था। फुन्नो के बाहर भी और फुन्नो के भीतर भी। बाहर जितना सुधर रहा था, भीतर उतना बिगड़ रहा था। लेकिन किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया या शायद अपनी-अपनी मजबूरियों के सामने किसी ने इसकी परवाह नहीं की कि फुन्नो अब लोगों के सामने जाने से कतराने लगी थी। कि फुन्नो को ये सारी बातें ताने जैसी लगती थीं। औरों से ज़्यादा ख़ास बर्ताव – उसे काम नहीं करने थे, अधिक चलने-टहलने से मनाही थी, अपने कपड़े तक साफ करने पर पाबंदी थी – कहीं वापस कमज़ोर न हो जाए – औरों से ज़्यादा पौष्टिक आहार, औरों से कहीं ज़्यादा आराम, औरों से कहीं ज़्यादा ध्यान जो उसके शरीर पर बढ़ते माँस के एक-एक मिलीमीटर का हिसाब रखते। घर में हर किसी को उसी की चिंता रहती।
और इसी चिंता में घुले लोगों की नज़रें उसके बदलते व्यवहार पर न जा सकीं। फुन्नो अब ज़्यादातर समय अकेले बिताने लगी थी। उसे लेकर घर में जो कुछ भी हो रहा था, उसे अच्छा नहीं लग रहा था। तनाव होता था किसी के सामने जाने में, किसी से बात करने में, किसी की बात सुनने में – हर बार हर बात घुमा-फिरा कर वहीं ला दी जाती – फुन्नो का वज़न।
और वज़न बढ़ रहा था। चार किलो, पाँच किलो, छ: किलो और फुन्नो अब लड़के वालों को दिखाने लायक हो गई थी। प्रदर्शनी का समय हो गया था।

“चौबे जी लोग आने वाले हैं कल शाम को। सारी तैयारी कर लेनी होगी” – पापा ने दफ्तर से आते ही कहा।

“कल शाम को?”

“हाँ, कल शाम को। और कोई वक्त नहीं था उनके पास”

“लेकिन इतनी जल्दी कैसे करेंगे सबकुछ?” – माँ परेशान हो गईं।

“हो जाएगा। मिलजुल कर करेंगे, सब हो जाएगा। पहले काम शुरु तो करो”

और काम शुरु हो गया। परीक्षा देने आए चचेरे भाई ने सफाई का ज़िम्मा लिया। घर, आँगन, छत, स्टोर सभी जगह साफ करना होगा। जहाँ जाएँ उन्हें कहीं कोई गंदगी न दिखे। माँ व्यंजनों के लिस्ट में घुस गईं। फुनकी ने माँ का साथ दिया। पापा बाज़ार से लाने वाली सारी आवश्यक चीज़ों की लिस्ट में जा घुसे। घर में घूम-घूम कर देखा – ‘कप-प्लेट का पुराना सेट फीका पड़ गया है – लाना पड़ेगा, प्लास्टिक की एक ट्रे – पुरानी वाली थोड़ी चनक गई है, एक पाँव-पोछन – घर के बाहर रख देंगे, हाथ पोंछने को एक छोटा, सफेद तौलिया, हाथ धोने का साबुन भी नहीं है’
“डिटॉल का हैंडवॉश ले लेते हैं, थोड़ा स्टैंडर का लगेगा” – बरामदे की धूल झाड़ते भाई ने सुझाव दिया।

और इतने सारे कामों और काम करने वालों के बीच फुन्नो अकेली बैठी थी। काम करने से मनाही थी – चेहरे पर थकावट न आ जाए।

अगले दिन सुबह से फिर साफ-सफाई, झाड़ू-पौंछा। गुलदस्ते में सजे एक-एक फूल की एक-एक डाल, एक-एक पंखुड़ी तक पोंछी गई।
मिठाई, नमकीन, समोसे – जाने कितने सारे पकवान – कुछ माँ के बनाए, कुछ पापा के लाए। सारी तैयारियों के बीच पता ही न चला कब शाम हो गई।
चार बज गए। सभी तैयार होकर कुर्सी-टेबल के आस-पास आ गए। लड़के वाले आएँगे तो यहीं बैठेंगे। कौन कहाँ-कैसे बैठेगा ये भी तो तय करना था।
फुन्नो को आज फिर माँ ने उसी दिन की तरह तैयार किया – बल्कि इस बार थोड़ा अधिक ही। बहुत मुश्किल से खर्च किया है इसके ऊपर। किराने वाले पर पहले से ही कर्ज़ था, जाने कैसे उतारेंगे – इस बार रिजेक्टेड नहीं होनी चाहिए।

पाँच बज गए। सभी तैयार बैठे थे। बीच-बीच में पापा हुई तैयारियों को उठकर देख लेते। चाय-पानी, नाश्ता-खाना सबके इंतज़ाम पर नज़र डाल आते। आईने में जाकर बार-बार अपने बाल व्यवस्थित करते। घड़ी देखते। टिक-टिक-टिक-टिक।

“हाँ, ठीक है सब कुछ। सब इंतज़ाम बढ़िया है। फुन्नो तो पूरी तरह से तैयार है न?”

“हाँ-हाँ, बिल्कुल। लड़के वाले देखेंगे तो देखते रह जाएँगे मेरी सोना बिटिया को”

“बस फिर क्या टेंशन है” – पापा कहते और बाहर झाँकने लगते।

“आ जाएँगे-आ जाएँगे” – माँ कहतीं – “अब लड़के वाले हैं, आराम से, अपनी सहूलियत से आएँगे”

छ: बज गए, साढ़े छ:, पोने सात, सात। सात के बाद साढ़े सात और शाम ढल गई। रात ने अपनी कजरारी आँखों को धीरे-धीरे खोलना शुरु कर दिया। सभी इंतज़ार में बैठे रहे। भूख लगने लगी। पापा ने उन्हें फोन करने का सोचा ही था कि बाहर गाड़ी रुकने की आवाज़ आई।
वे लोग आ गए थे। सज-धज कर – पूरी फौज के साथ। पापा दरवाज़े की ओर भागे और स्वागत शुरु हो गया - ‘चलो भाई, दरवाज़ा खोलो उनके लिए’ ‘हाथ में कुछ बैग-वैग है तो ले लो’ ‘यहाँ बैठिए-इधर आइए’ - सब उनकी खातिरदारी में मन-प्राण से जुट गए। ‘अरे, समोसा लाओ भाई-जलेबी लाओ भाई’ ‘इनको दो-उनको दो’ ‘आप तो कुछ ले ही नहीं रहे’ ‘बहन जी, आप भी लीजिए-इसे अपना ही घर समझें’

फिर एक नया दौर चला। फुन्नो आई। बैठी। सबकी नज़रें उसके ऊपर, उसकी नज़रें नीचे। फिर चला ‘बातचीत’ का दौर। कई सारे सवाल – थोड़े से जवाब, कई तरह के सवाल – एक ही तरह का जवाब। लोगों ने फुन्नो को सवाल सुनते देखा, जवाब देते देखा, चुप रहते देखा, उठते देखा और फिर जाते देखा।

“दो दिनों में फोन करते हैं” – जाते समय उन्होंने कहा।

और दो दिन उत्सुकता, आशा, घबराहट, भावी योजनाओं के बीच बीत गए। फोन आया। दोपहर के तीन बजे।

“हाँ जी मिश्रा जी”

“जी-जी चौबे जी। मैं तो सुबह से ही आपके फोन का इंतज़ार कर रहा था”

“हाँ, मैं वो ज़रा व्यस्त था”

“जी-जी, कोई बात नहीं”

“तो, हमने सोचा है इस बारे में”

“जी” – मिश्रा जी के हाथ में थोड़े-बहुत पसीने आ रहे थे।

“बात ये है मिश्रा जी, कि” – आवाज़ थोड़ी रुकी – “देखिए मिश्रा जी, क्या है कि” – आवाज़ फिर रुकी – “....अब कैसे समझाऊँ आपको”

मिश्रा जी हाथ में आए पसीने की वज़ह से रिसीवर ढंग से पकड़ नहीं पा रहे थे – “नहीं-नहीं आप बताइए न, झिझकिए मत। खुलकर बात कहिए...अगर कोई लेन-देन की बात हो तो.....”

“नहीं-नहीं, वैसी कोई बात नहीं। दरअसल हमें लगता है कि” – आवाज़ फिर रुकी – “बुरा मत मानिएगा पर....आपकी बेटी ज़रा......कुछ हेल्दी है और हमारे बेटे को ज़रा दुबली, फिट टाइप की लड़की चाहिए। अब आजकल के लड़के हैं, मिश्रा जी। इनके अपने ही ढंग हैं। हमारी सुनते भी नहीं। लेकिन इससे हमारे-आपके पुराने संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए”

शायद हाथ में आए अधिक पसीने की वज़ह से मिश्रा जी के हाथ से फोन का रिसीवर छूट गया था। उधर से आवाज़ आ रही थी – “अब शादी-ब्याह हमारे-आपके हाथ में तो है नहीं, ये सबकुछ तो भगवान ही कराता है, हम तो बस कोशिश ही कर सकते हैं.........” – मिश्रा जी ने गुलदस्ते के फूलों को बदलती फुन्नो को देखा। रिसीवर से आवाज़ का आना जारी था।

21 comments:

  1. Excellent narration!
    Kahani behad achhee lagee!

    ReplyDelete
  2. बहुत ही बढ़िया व्यंगात्मक कहानी.
    कब रुकेगा यह नुमाईश का खेल.
    सलाम.

    ReplyDelete
  3. बदलते समय के साथ हमारे अंतस का बदलते जाना हमारी मौलिकता और अंततः हमारे अस्तित्व के लिए ही घातक होगा।

    ReplyDelete
  4. आदरणीय प्रज्ञा जी
    क्या कहने आपकी इस प्रस्तुति के ......कभी कहानी और कभी व्यंग्य लगता है ..पर है बहुत सार्थक और सन्देश परक ...आपका आभार

    ReplyDelete
  5. बहुत ही बढ़िया कहानी
    आपने ब्लॉग पर आकार जो प्रोत्साहन दिया है उसके लिए आभारी हूं

    ReplyDelete
  6. वसन्त की आप को हार्दिक शुभकामनायें !
    कई दिनों से बाहर होने की वजह से ब्लॉग पर नहीं आ सका
    बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

    ReplyDelete
  7. सार्थक रचना, पढकर अच्‍छी लगी।

    हार्दिक बधाई।

    ---------
    ब्‍लॉगवाणी: एक नई शुरूआत।

    ReplyDelete
  8. बढ़िया असर छोडती आपकी रचना शायद कुछ लोगों को कुछ सिखा सके ! शुभकामनायें आपको !

    ReplyDelete
  9. विचारणीय पोस्ट, बहुत कुछ कह दिया इतने में ही.

    ReplyDelete
  10. इसी कहानी का एक हि‍स्‍सा देखें इस लिन्‍क पर http://rajey.blogspot.com/

    ReplyDelete
  11. @क्षमाजी, sagebob, राधारमण जी, केवल राम जी, संजय भास्कर जी, रजनीश जी, सतीश जी, रचना जी Rajey जी>>>आप सभी का बहुत-बहुत आभार...

    ReplyDelete
  12. बढ़िया व्यंगात्मक कहानी...

    ReplyDelete
  13. bahut pyari si ek alag sa asar dikhati rachna..tees par funno aur funki..ye do naame ne ke dum se aisa laga...main bhi wahin kahin pe khara hoon...:)

    pahlee baar aaya hoon, ab barabar aana parega..follow jo kar raha hoon:)

    ReplyDelete
  14. जिंदगी की कड़वी सचाई.

    ReplyDelete
  15. pragya ji kahani bahut hi khoob lagi. mote aur patle k beech main jo apne samaj k tane-bane ka chitr kheencha hai kamaaal ka hai.

    ReplyDelete
  16. दिगम्बर जी, मुकेश जी, राजेश जी, विजय जी>>टिप्पणियों व हौसला आफ़ज़ाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया...आशा है आपलोगों को रचनाएँ पसंद आती रहेंगी...

    ReplyDelete
  17. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  18. काश कि लिखने से कुछ लोग सीख भी पाते, पर अपनी-अपनी मजबूरियों का रोना रोते लोगों के दिलों में दूसरों या यूँ कहूँ कि अपनों का दर्द समझने तक की जगह नहीं बची है...ऐसे में जाने ये रचनाएँ कहाँ stand करती हैं...

    ReplyDelete
  19. @मुकेश जी>>>बहुत आभार अनुसरण करने के लिए...

    ReplyDelete
  20. pragya aapki lekhani me ek baat hai aur who hai " saadagi" .it is very simple to be difficult but very difficult to be simple.
    shubkamnaye !

    ReplyDelete
  21. दीप्ति जी>>टिप्पणी के लिए बहुत आभार...आपने हमारे लिए आख़िरकार वक्त निकाल ही लिया:)

    ReplyDelete