Monday, June 22, 2009

धूप की परछाई में
सुनहरी आँखें लिए
मन की छोटी अंगुली थामे
धूल के धुएँ में घिरी
मिचमिचाती साँसें लिए
कभी सोचती हूँ
मुफ़्त की ये ज़िन्दगी
कितनी महंगी पड़ती है हमें
कभी-कभी।

गुलाबी पंखों से उड़ती
नीली- हरी रोशनी में
काले, गहरे अक्षरों की किताब पढ़ती
कभी-कभी कितना अन्धा कर देती है हमें
कि आसपास का अन्धेरा
हमें दिखता भी नहीं ।
सफेद मिट्टी के नारंगी रंग में भीगे हम
पहचान ही नहीं पाते
कि, सूखी हवा की सुगन्ध में
हम धीरे-धीरे सूखते जा रहे हैं ,
कितनी बड़ी ग़लतफ़हमी देती है हमें
गीली बाल्टी से टप-टप टपकती ये ज़िन्दगी
कि,
नारंगी रंग की ये खुश्बू
हमेशा फैलती रहेगी,
मटमैले रंग का ये जीवन
हमेशा खुशनुमा रहेगा।

5 comments:

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  2. Very good poem Pragya, the description and analogies are good!

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  3. Bahut Accha likha hai Apne...Ek taraf jahan Zindgi ki sacchai ke baare mein sawal kia hai... vahin dusri or prakriti ke sabhirango ka istemaal kia hai... Pragya kya yeah kavita nayi kavita ki shreni mein nahi aati ???

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  4. Very Good Keep it Up. Achha Likhti Ho

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  5. thank u very much for the inspiring comments...

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