Thursday, August 18, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 12 और 13)

Scene 12


एक किराने की दुकान की गोदाम। कई बोरियाँ रखी हुईं हैं। उसमें एक भद्दा सा गन्दा चूहा छेद कर रहा है। तभी बगल में एक चुहिया आती है जिसने कानों में बालियाँ और पाँवों में पायल पहन रखी है। इन दोनों के कपड़े फटे-पुराने, पैबन्द लगे हैं।
चुहिया (चूहे से): “सुनो”
चूहा नहीं सुनता, काम में लगा रहता है।
चुहिया (ज़ोर से): “अरे सुनते हो? कोई हमसे मिलने आया है”
चूहा (काम छोड़कर): “हमसे?”
चुहिया (बेरुखी से): “हाँ”
चूहा: “कहाँ”
चुहिया हाथ से पीछे की ओर इशारा करती है। चूहा उधर देखता है। काका और चिंटू एक छोटी सी बोरी पर बैठे हैं।
चूहा(उन्हें देखकर, दोनों हाथ मलते हुए): “हीं-हीं-हीं-हीं-हीं.........हमसे मिलने आए हैं?......जी कहिए?”
चिंटू (आदेशात्मक लहज़े में): “चूहा-चूहा तुम जाल काटो, जाल न गजराज फँसावे, गजराज न समुन्दर सोखे, समुन्दर न आग बुझाए, आग न लाठी जलाए, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
चूहा (वैसे ही हाथ मलते हुए): “हें-हें-हें...वो तो ठीक है हम जाल को काट देंगे पर....”
काका: “पर क्या?”
चूहा: “आप तो देख ही रहे होंगे, जब आप आए थे तब मैं इस बोरे को काट रहा था। लेकिन देखिए उतनी देर तक काटने का फल.....कुल एक मिलीमीटर भी नहीं काट पाया”
चिंटू: “पर ये तो काफी कटा हुआ है”
चूहा (घबराकर): “अ..हाँ लेकिन...दरअसल...वो..इतना तो पहले से ही कटा हुआ था। मैं तो इसे थोड़ा भी नहीं काट पाया”
चिंटू: “अच्छा-अच्छा, तो तुम ये कह रहे हो कि तुम जाल नहीं काट पाओगे”
चूहा: “अब~~ इन दाँतों के साथ तो नहीं काट पाउँगा। क्या है कि बहुत दिनों से दाँतों को पैना नहीं करवाया, धार खत्म हो चली है इनकी। अगर आपकी कुछ मेहरबानी हो सकती तो मैं इन्हें तेज़ करवा लेता। क्या है कि जब बोरे काटने में इतनी परेशानी है तो जाल काटने में तो.....हें-हें...आप समझ ही सकते हैं.....कुछ मिल जाता तो..हें-हें-हें”
चिंटू: “तो तुम्हें धार पैनी करवानी है”
चूहा: “हें-हें-हें-हें”
चिंटू: “ठीक है! हम अभी इंतज़ाम करते हैं। तुम यहीं ठहरना, बिल्कुल यहीं। हम अभी आ रहे हैं”
काका को चलने का इशारा करता है और उड़ता है। चूहा हें-हें करता हुआ हाथ मलता उन्हें उड़ते जाते देखता है।



Scene 13
“Whew! क्या कहा तुमने ज़रा दुबारा कहना!” – कहकर एक मोटी सी बिल्ली एक घर के छज्जे पर से कूदकर नीचे आती है। नीचे खूब सारे गमले रखे हैं। वहीं काका और चिंटू खड़े हैं।
चिंटू: “जी...जो कहा वही कहा”
बिल्ली: “नहीं-नहीं, ज़रा दुबारा कहो। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा। ज़रा उसी लय में, उसी ताल में, वही सुर, वही शब्द! आहा-हा क्या शब्द थे, वही शब्द ज़रा फिर से दुहराना!!”
चिंटू: “बिल्ली-बिल्ली तुम चूहा खाओ, चूहा न जाल काटे, जाल न गजराज फँसावे, गजराज न समुन्दर सोखे, समुन्दर न आग बुझाए, आग न लाठी जलाए, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
बिल्ली: “हाय दइया! ये मैं क्या सुन रही हूँ! कान ऐसी बात सुनने को तरस गए थे! चूहा – यह शब्द ही कितना रसदार है.........चूहे!” – कहकर मानो ‘चूहे’ शब्द में खो जाती है। फिर तुरंत सम्हलकर पूछती है।
बिल्ली: “हाँ तो बोलो, कब चलना है?”
तबतक घर के भीतर से ऐनक लगाए एक बूढ़ी बिल्ली आती है।
बूढ़ी बिल्ली (घर से बाहर निकलते हुए): “कहाँ चलना है? कोई पार्टी-वार्टी है क्या, हाँ भाई?”
अपना ऐनक ठीक करती है। सामने काका और चिंटू को देखकर चौंककर जाती है।
बूढ़ी बिल्ली: “अरे, तुम दोनों कौन हो भाई? (चिंटू को पकड़कर) ओहो! तुम तो बहुत हट्टे-कट्टे दिखते हो, चटपटे लगते हो!”
चिंटू को अपने चेहरे के पास लाती है। चिंटू घबरा जाता है।
चिंटू (घबराकर): “अरेरेरेरे.........मैं तो चूहे की दावत लेकर आया था, चूहे की, चूहा-चूहा!”
बूढ़ी बिल्ली: “क्या? कहाँ?” – कहकर चिंटू को छोड़ देती है।
चिंटू ‘धम्” से नीचे गिरता है। उठता है। पहले तो भागकर काका के पास जाता है। फिर अपने शरीर से धूल झाड़ता है। चिंटू (बूढ़ी बिल्ली से): “हाँ, वो....” लेकिन मोटी बिल्ली बीच में ही टोक देती है और चिंटू को बात पूरी नहीं करने देती।
मोटी बिल्ली (बीच में टोकते हुए): “मौसी तुम भीतर जाओ, ये मेरी और इसकी डील है”
बूढ़ी बिल्ली (मोटी बिल्ली को अनसुना करते हुए): “कितने चूहे हैं बेटा? आहा-हा, मेरी तो अभी से लार टपकने लगी है। बेटा, एक मिनट रुकना ज़रा, हाँ? मैं ज़रा डाई-वाई करके आती हूँ। बस एक मिनट लगेगा। जाना मत...आहा-हा चूहों की पार्टी!!” – कहकर भीतर जाती है।
मोटी बिल्ली (चिंटू को धकियाते हुए): “चलो”
तीनों चल देते हैं।


5 comments:

  1. Pragya ji,
    maza aa gaya ye padhkar...
    चूहा-चूहा तुम जाल काटो, जाल न गजराज फँसावे, गजराज न समुन्दर सोखे, समुन्दर न आग बुझाए, आग न लाठी जलाए, लाठी न साँप मारे, साँप न रानी डसे, रानी न राजा छोड़े, राजा न बढई डाँटे, बढ़ई न खूँटा चीरे, खूँटा न दाल निकाले, खूँटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
    bachpan mein suni thee ye kahani apni dadi se aur bade hone par bhi sunti rahi. tota aur ek dana daal ki kahani. bahut badhiyaa likha hai aapne badhai.

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  2. "कितना रसदार है.........चूहे!” – कहकर मानो ‘चूहे’ शब्द में खो जाती है।"


    हमारे मुंह में भी पानी ला दिया इस कहानी ने ....
    ऐसी कहानी क्यों लिखती हो ??

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  3. Pragya ji,
    kuchh vyastataon ke karan main apke blog par nahin pahunch pa raha hun..par samay nikalkar apki is shrinkhala ko poora padhunga...apse anurodh hai ki ap facebook ka Indian childrens litrature group join karen aur vahan apne blogs ka link avashya den..taki log apke blog tak akar ise padh saken...vaise maine apki ek post ka link aj hi vahan laga diya hai...ap is link par jakar vahan tak pahunch sakti hain..
    http://www.facebook.com/groups/indichilit/

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  4. @जेन्नी जी, सतीश जी, हेमंत जी>>धन्यवाद कहानी पसन्द करने का:)

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  5. @हेमंत जी>> children's literature group के बारे में बताने का बहुत-बहुत शुक्रिया...और लिंक डालने का भी बहुत-बहुत धन्यवाद..

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