Wednesday, October 6, 2010

हत्या और आत्महत्या


शुक्रवार, शाम के 5.45 बजे, नई दिल्ली के संसद मार्ग के एक सरकारी भवन की 5वीं मंज़िल पर क ख ग मंत्रालय के ‘X’ विभाग के कमरा नम्बर 5033 में धीरे-धीरे अन्धेरा एक कोने से जाग कर दूसरे कोने तक दौड़ रहा है। सभी मेजों पर बेतरतीबी से फाइलें आवारा, खुजली वाले कुत्तों की तरह गन्दी और बेपरवाह पड़ी हैं और अपनी पीली आँखों से पास से गुजरने वालों की आहट पर खुलती-बन्द होती हैं।
विभाग के चपरासी श्याम बाबू जाते समय हमेशा लाइटें बन्द करते हैं। आज भी घर जाने की जल्दी में सभी स्विचों को बन्द करके लटकते हुए मशीनी उपकरणों को सांस लेने का मौका दे रहे हैं। वहीं उनके पीठ के पीछे की कुर्सी की कतारों में सबसे कोने में फाइलों के ढेर के बीच सुषमा सिर झुकाए बैठी है। श्याम बाबू मुड़कर सामने की ओर के स्विच को बन्द करने के लिए बढ़ते हैं। सुषमा को बैठा देखकर कहते हैं अरे मैडम, सब कब के जा चुके, आप अभी तक यहाँ हैं? तबीयत तो ठीक है?
सुषमा धीरे से सिर उठाकर कहती है सर में दर्द है, सोचा अभी गोली खाई है, थोड़ी देर सिर टेक लूँ।
मैडम, 6 बजने वाले हैं, मुझे कमरा बन्द करना है, अगर तबीयत ठीक हो तो....
अच्छा, ठीक है
सुषमा उठी और अपना सामान समेटने लगी, पानी की बोतल, खाने का डब्बा, मोबाइल।
सफेद चेहरे पर एक काली रेखा खिंच गई, जैसे ही उसका हाथ नीता मैडम की बेटी के शादी के कार्ड पर पड़ा। शादी.........! बारात.......!! नई दुनिया........!! नन्ही ज़िन्दगी.........!!!
सुषमा खड़े-खड़े ही शादी के कार्ड पर बने गणेश भगवान के डिज़ाइन को नाखून से खुरचने लगी। उसके नाखून गणेश भगवान के हाथों को खुरचकर आँखों की ओर बढ़ गए। धीरे-धीरे......और गहरे...और गहरे...और दर्द...और ज़्यादा दर्द..........!!
मैडम, मुझे कमरा बन्द करना है........... श्याम बाबू थोड़ा झुंझला गए, उन्होंने देख लिया था। सुषमा की नज़र ऊपर उठी। अपनी ज़िन्दगी की खुरचन वह छुपा नहीं पाई थी।
अरे, टाइम तो लगता है न, तबीयत ठीक नहीं है मेरी एक तीखी, नुकीली नज़र के साथ सुषमा कमरे के बाहर निकल गई। उसके पर्स में अभी भी वह कार्ड था। शादी का कार्ड, रंग-बिरंगा, दुल्हन के जोड़े की तरह सोने-सा, लाल जोड़ा, हाथों में मेहन्दी.......!!
सुषमा यह सोचते हुए ऑफिस के बाहर निकली, बस पकड़कर मेट्रो पहुँची, फिर नया नगर स्टेशन से एक्ज़िट कर अपने घर की तरफ चलने लगी। कदम धीरे-धीरे उठ रहे थे, भाव और ज़्यादा सफेद होते जा रहे थे, घर के मोड़ पर सुषमा ने कार्ड निकाला और उसके टुकड़े कर नाली में फेंक दिया। फटे हुए कार्ड का एक टुकड़ा सुषमा की आँखों में चुभ गया
“Nilima weds Chirag”
सब बकवास उसका मन बोल उठा।
सुषमा वेड्स विनोद। काइंडली कम एंड ग्रेस द ओकेज़न! -  दो साल पहले उसके शादी के कार्ड पर भी लिखा गया था।
घर के दरवाज़े पर लगी घंटी बजाने से पहले ही सुषमा को पता था अन्दर क्या चल रहा है। आगे जो होने वाला है उसकी भयावहता व कुण्ठा को अपने में जगाकर दनादन 5 बार घंटी को बजा दिया टा टा टा टा टा
अन्दर से विनोद के चिल्लाने की आवाज आ रहा हूँ के कुछ मिनटों बाद धड़ाम से दरवाजा खुला।
तुझसे सबर नहीं होता है?
तुमसे नहीं रखा जाता तो मैं कैसे रखूँ
आते ही जुबान चलने लगी तेरी....इतनी देर क्यों हुई है, 5.30 बजे दफ्तर छूटता है, अब 7 बज रहे हैं। मैडम अब आ रही हैं
विनोद की जबान से ज़्यादा वह खुद लड़खड़ा रहा था। लड़खड़ाते हुए वह सोफे पर बैठ गया। उसके शाम का इंतज़ाम पूरा परवान पर था दो बोतल, एक आधी- दूसरी भरी, सोडा एक भरा गिलास, कुछ नमकीन आधी प्लेट पर आधी मेज पर, एक सिगरेट का डिब्बा जिसमें से दो सिगरेट मानो सुषमा की तरह ही उंगली करके कह रही हो मुझे तुम खत्म क्यों नहीं कर देते एक ही बार में, क्यों आधी सुलगाकर मसल देते हो एशट्रे पर, अब आज़ाद करो मुझे
जिस लम्बे सोफे पर विनोद पसरकर बैठा था उसी के दूसरे कोने पर सुषमा ने खड़े-खड़े ही अपना बैग दे मारा।
ये क्या हरकत है
मुझे भी यही पूछना है, तुम कब सुधरोगे। अब तो कुछ समझो, अब हम दो नहीं हैं, अब...............खुद को नहीं सम्भाल सकते तो क्यों कह रहे हो मुझे इस बच्चे को जन्म देने के लिए। जिस बच्चे का बाप ऐसा है, सोचो वह खुद कैसा होगा
चुप रहो! तुमको हक नहीं है बच्चा गिराने का। वह मेरा भी है समझी तुम  - आवेग में आकर उठ तो पड़ता है, लेकिन सहारे के बिना खड़ा नहीं रह सकता वह, नशे में और होश में भी।
जाकर कुछ काम क्यों नहीं ढूँढते तुम? कम पैसे सही, काम तो मिलेगा
नहीं करना मुझे कम पैसे का काम। तुम यही चाहती हो न कि मैं तुमसे कम पैसे कमाऊँ, ताकि दूसरे के आगे........है न.........तुम सरकारी लोग न काम समझते हो न ही पैसा........!
ढूँढ लेते कोई पराइवेट वाली जो पैसे कमा.......
मिली थी, पर माँ के कहने पर...
कौन वो शिवा.....
चुप.....रहो और उठकर उसने भरा हुआ कांच का गिलास तोड़ दिया।
काँच के बिखरे टुकड़े फैल गए फर्श पर, छोटे-छोटे और कुछ बड़े,....ज़िन्दगी साफ दिख रही थी उसमें दोनों की........जिसे समेटने की इच्छा भी सन्नाटे में खो गई थी।
सुषमा की आँखें भी अब इस सन्नाटे के तमाचे की तरह सुनसान हो गई। विनोद पीता रहा। करीब घंटे बाद सुषमा बाहर आई। बाल कसकर बन्धे थे। सुबह के वही कपड़े, सिलवटों से और भर गए थे। सुषमा ने आकर विनोद की बगल से अपना बैग खींचा तो मेज पर रखी खाली बोतल ने डर के मारे सुसाइड कर लिया।
विनोद पीकर जाग चुका था, और ज़्यादा वहशी और ज़्यादा हिंसक।
कहाँ जा रही हो!
अबॉर्शन करवाने
रुको विनोद ने हाथ पकड़ लिया घर के बाहर कदन रखा तो टाँगे तोड़ दूँगा।
है हिम्मत! एक पीया हुआ इंसान जो चल तो पाता नहीं और मारने की बात....मुझे न तुम चाहिए और न तुम्हारा बच्चा कहकर सुषमा दरवाजे की तरफ मुड़ी।
विनोद ने आगे बढ़कर उसके बालों को खींचा।
ओह...छोड़ दो! जंगली.....
आह.............
ओह! नहीं........?
हत्या और आत्महत्या का सामान वहाँ मौज़ूद था, काँच के टुकड़े जिससे उसने कलाई काटी और भरी हुई शराब की बोतल जिससे उसके सर के दो टुकड़े हो गए।
सुबह उनके मकान के बाहर भीड़ इकट्ठा थी। परिवार, पुलिस और तमाशबीन समाज। परिवार और तमाशबीन समाज को बस इतना पता है कि एक ने हत्या की दूसरे ने आत्महत्या। सुषमा के परिवार वालों का अनुमान है कि विनोद ने हत्या करने के बाद आत्महत्या की है और विनोद का परिवार इससे ठीक उल्टा समझता है। अभी वह बाहर है इस सस्पेंस के साथ कि किसने किसकी हत्या की और किसने आत्महत्या?



एक बहुत ही अज़ीज़ दोस्त द्वारा लिखी गई कहानी जो यह जानना चाहती हैं कि वो कैसा लिखती हैं....:)

16 comments:

  1. pariwarik antardwand aur rishton ki ho rahi asamyik maut ke sath-sath ek susandesh denewali achhi kahani hai

    ReplyDelete
  2. Apni dost se kahiye,kya gazab likhtee hain!

    ReplyDelete
  3. लेखिका.............? यह लेखन शैली कुछ जानी पहचानी सी लग रही है ! बिना लेखक का नाम जाने कोई टिप्पणी नहीं कर सकता ..........कृपया लेखक को सामने लाये..........

    ReplyDelete
  4. ap sabhi ka dhanayad !! lekhika -deepti Anand

    ReplyDelete
  5. बहुत सच लिखा है ... यथार्थ ... आजके मध्यमवर्गीय परिवार का सत्य ... पुरुष मानसिकता का सत्य ... बहुत अछा लिखा ...

    ReplyDelete
  6. @शिवा....लेखिका का नाम 'दीप्ति आनन्द' है, जिनकी यह पहली ऐसी कहानी है जिसे उनके अतिरिक्त किसी और ने पढ़ा है..बहुत ही उत्सुक थीं आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए...जब इन्हें पढ़ा तो मैसेज किया कि बहुत अच्छा लग रहा है, मैंने सोचा नहीं था कि मैं ये प्रतिक्रियाएँ प्राप्त कर पाऊँगी..

    ReplyDelete
  7. @दीप्ति....माफ करना मैंने तुम्हारे बिना पूछे तुम्हारी भावनाओं को यहाँ लिख डाला...

    ReplyDelete
  8. बहुत ही उत्तम रचना है..............नाम जानने के पीछे कारण यह था कि मै इस कृति के लिए प्रथम एवं सीधा संवाद लेखक के साथ करना चाहता था................यहाँ तारीफ़ लेखक कि ज्यादा महत्वपूर्ण है..........जिसने इसे मूर्त रूप दिया है...................समाज कि ज्वलंत समस्या को चित्रित किया गया है.......बहुत बहुत प्रशंसनीय............आगे भी लिखती रहें...............हिन्दी और साहित्य को आप पर गर्व रहेगा.

    ReplyDelete
  9. pragya di...
    bahut bahut shukriyaa apkaa..itnee marmsparshee rachanaa aap yahan laayen. shuru se ant tak ek antardwand bana rahaa jo khatm hone k baad mujhe kachotane lagaa. aaye din aas pas aisee ghatanaa dekhane ko mil jaatee hain. lekin aapki mitr ne jis tarah ise shabd diyaa hai, iskee jiwantataa, karunaa aur dard ko barkaraar rakhaa hai wah kabil-e-tarif hai.
    ab kam ki baat...
    filhal mai patna me hun. time tv se judaa hua hun. iskaa ek saptahik akhbar bhee hai "bharat desh hamara" jisme maine ek sahity ka bhee pannaa rakhaa hai...agar aapkee aur apke mitr kee anumatee ho to ise prakashit karna chahunga.
    mera no hai 9308912720

    ReplyDelete
  10. मुझे तुलनात्मक बिम्ब अच्छे लगे, कहानी ठीक-ठाक है |

    ReplyDelete
  11. mujhe acha laga ki apka dhayan tulnatmak bimb ki taraf gaya .sarahna ke lea dhanawad.khud ko manjhne ki koshihb jari hai. pun: dhanawad.

    ReplyDelete
  12. मुझे मुआफ करें , दीप्ति जी , मैं तारीफ़ और आलोचना दोनों करूँगा.आपका पर्यास बहुत सराहनीय है . कहानी अच्छी है . बांधे रखती है.दूसरा शैली अच्छी है .आलोचना से पहले पुनः क्षमा .मुझे लगता है कहानी लम्बी है .यहाँ से भी शुरू कर सकते हैं. “ मैडम , 6 बजने वाले हैं,........या यहाँ से भी शुरू हो सकती है. '' शादी का कार्ड, रंग-बिरंगा, दुल्हन के जोड़े.............कृपया मेरी आलोचना को अन्यथा मत लें.शुरूआती बातें जरुरी नहीं लगती.कहानी अपना universal रूप खो जाती है.दफ्तर का एड्रेस जरूरी नहीं.आप लिखते रहिये .बहुत अच्छा लिखती हैं आप. आप की कलम को शुभ कामनाएं.पुनः क्षमा.

    ReplyDelete
  13. @ sagebob:pahli kahani badi aatmiy hoti hai .ek bar lekhne ke bad sach kahu to man nahi kiya jada jod-tod ka . mujhe bhi laga ki thoda vayvasthit ho sakti hai kahani . ap shama na mange . sujav sadav aamantrit hai. mera manna hai ki 'sach nirdeshit karta hai aur joth digbhramit'.at: aalochna ke lea dhanayvad!

    ReplyDelete
  14. दीप्तिजी,आपने मेरी आलोचना को बहुत ही सकारात्मक रूप में स्वीकार किया है.आप का बड़प्पन है.मैं शर्मिन्दा हूँ.
    पर मुझे लगता है की रचना बच्चे की तरह होती है , उसे संवारते-दुलारते रहना चाहिए.मैं अपनी रचनाओं को सालों बाद भी दरुस्त करता हूँ.
    बाकी पहली रचना तो पहले प्यार की तरह होती है.बुक्कल में सहेज के रखने के काबिल होती है.आप को पुनः शुभ कामनाएं . आशा है आप का ब्लॉग भी जल्दी देखने को मिलेगा.

    ReplyDelete