इस खौलते पानी में
हाथ डुबाए
हमलोग
जाने कब तक
बैठे रहेंगे,
एक-दूसरे को आँखें तरेरते
जाने कब तक
ऐंठे रहेंगे?
कितनी बार
बोलती आवाज़ों का
गला दबाएँगे,
समुदायों को
गिरोहों के किलों में सजाएँगे?
कब तक
यूँ
अपने ही बनाए धरातलों में
सिमटते जाएँगे?
Monday, June 27, 2011
Wednesday, June 8, 2011
जानती नहीं ख़ुदा, तुझे मुझसे क्या शिक़ायत है, क्या नाराज़गी है कि न मुझे जीने देते हो न मरने देते हो....जीने लगो तो ऐसा ग़म मेरे सिर बांधते हो जिसे उतारा नहीं जा सकता...ऐसी यादें, ऐसे चोट, ऐसे सच.....मौत में सिमटने की कोशिश करो तो एक बहुत बड़ी सी खुशी, जैसे सबकुछ दे दिया....और फिर? वही सब कुछ....मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ ईश्वर....ये कैसा बोझ है जो हर किसी के लिए भारी है......मेरे लिए और जो भी मेरे आसपास है सबके लिए...क्या करूँ...क्या छोड़ दूँ सबकुछ....क्या यही अच्छा है...क्या सबकुछ मिटाने का यही तरीका है?......छोड़ने भी तो नहीं देते...........क्यों ऐसा सबब ईश्वर...क्या किया है मैंने..मेरी ग़लतियाँ तो बताओ......
Subscribe to:
Posts (Atom)