Scene 2
काका एक दुकान पर रखे फोन से अपनी बहन से बात कर रहा है। बगल में चिंटू खड़ा है।
काका (फोन पर): “हाँ-हाँ बहन हम अभी चल रहे हैं। शाम तक पहुँच जाएँगे। अच्छा रखता हूँ” फोन रख देता है। काका (दुकान में खड़े दुकानदार से): “हाँ भईया, कितने हुए?”
दुकानदार: “दो रुपये”
काका अपने पंख से दो रुपये का सिक्का निकालकर उसे देता है। दोनों उड़ चलते हैं। रास्ते में चिंटू काका से बोलता है –
चिंटू: “बापू, अपुन लोग लगता है बहुत दूर जा रेला है”
काका: “हाँ, तेरी बुआ परदेस में रहती है”
चिंटू: “परदेस बोले तो?”
काका: “परदेस...मतलब दूसरे देस”
चिंटू: “मतलब बहुत दूर”
काका: “हाँ”
चिंटू: “मतलब रास्ते में भूख-प्यास भी लगेगी”
काका (थोड़ा सोचने के बाद): “मुझे तो आदत है पर तुम्हें लग सकती है”
चिंटू: “हाँ तो फिर खरीद दो ना मेरे लिए कुछ”
दोनों एक पेड़ पर उतरते हैं। काका पंख से निकालकर उसे एक रुपया देता है।
काका (पैसे देते हुए): “बस इतने ही पैसे बचे हैं”
चिंटू: “इतने में क्या मिलेगा?”
काका: “चने की दाल”
चिंटू: “बस! मैं यही खाऊँगा!”
काका: “अगर इतने में तुझे कुछ और मिल जाता है तो खरीद ला! और पूरे पैसे मत खर्च कर आना, रास्ते में कुछ पैसे–वैसे पास में होने चाहिए”
चिंटू: “ठीक है, वैसे मैं दाल ही खरीद लूँगा। वैसे भी चने की दाल मुझे पसंद है” कहकर चिंटू राशन की एक दुकान पर जाता है।
चिंटू (दुकानदार से): “भईया, चने की एक दाल चाहिए”
दुकानदार: “ले लो”
चिंटू: “कितने की है?”
दुकानदार: “एक रुपया”
चिंटू: “अरे, ये तो पूरा रुपया ही मांग लिया तुमने! एक दाल की कीमत पूरा एक रुपया!!!”
दुकानदार (चिढ़कर): “लेना हो तो लो वरना जाओ”
चिंटू पंख में से पैसे निकालकर दुकानदार के सामने रख देता है और कहता है – “ये लो रखो” चिंटू एक दाल उठाकर, जाँचता-परखता है, फिर उसे लेकर काका के पास आता है।
चिंटू (काका के पास आकर, डाल पर बैठकर): “चलिए”
काका: “कितने लिए?”
चिंटू: “किसने?”
काका: “दुकान वाले ने”
चिंटू: “क्या लिए?”
काका: “पैसे”
चिंटू: “किसके पैसे?”
काका (परेशान होकर): “अरे, दाल के और किसके!”
चिंटू: “कौन सी दाल के?”
काका (गुस्सा कर): “तुम कौन सी दाल लाने गए थे अभी?”
चिंटू: “कहाँ?”
काका: “दुकान पर”
चिंटू: “कौन सी दुकान पर?”
काका: “अरे बाबा! उस दुकान पर.....”
चिंटू (बीच में ही टोककर): “जहाँ चने की दाल मिलती है?”
काका: “हाँ”
चिंटू: “आपको इतना नहीं पता??”
काका: “क्या नहीं पता?”
चिंटू: “कि मैं कौन सी दाल लाने गया था”
काका: “चने की दाल लाने गए थे”
चिंटू: “फिर?”
काका: “क्या फिर?”
चिंटू: “फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?”
काका कुछ कहने को मुँह खोलता है फिर उसे हँसी आ जाती है। चिंटू भी हँसने लगता है। दोनों हँसते हैं। हँसते-हँसते चिंटू अचानक पूछता है –
चिंटू: “आपने इसकी कीमत तो पूछी ही नहीं!”
काका: “रहने दे”
चिंटू: “अच्छा देख तो लो!”
काका: “क्या?”
चिंटू: “यही कि मैं कितनी सुन्दर दाल लाया हूँ!” – कहकर चिंटू दाल को एक पंख से निकालकर ऊपर आसमान में उछालता है और दूसरे पंख से बड़े ही स्टाइल से पकड़ने की कोशिश करता है लेकिन दाल कुछ ज़्यादा ही दूर होती है और चिंटू की पकड़ में नहीं आती और सीधे जाकर नीचे ज़मीन में गड़े एक खूँटे के अन्दर गिर जाती है।
चिंटू: “अरे नहीं, दाल तो इस खूँटे में गई”
काका (सर पकड़कर): “हाँ...और अब निकलेगी भी नहीं”
चिंटू: “तो?”
काका (सर से हाथ हटाते हुए): “तो क्या? कुछ पैसे बचे हुए हैं या सब खर्च कर आया?”
चिंटू: “पैसे तो नहीं बचे।”
काका चिंटू को देखता है और कहता है: “फिर सोचना क्या है? पैसे हमारे पास हैं नहीं कि कुछ और खरीदा जाए”
चिंटू: “तो?”
काका: “तो ये कि अब सीधे बुआ के हाथ का खाने को तैयार रहो”
चिंटू (बिल्कुल फिल्मी अन्दाज़ में): “नहीं~~~~~...ये नहीं हो सकता.........कह दो कि ये झूठ है!”
काका: “अरे नौटंकीबाज़! कभी तो सामान्य रहाकर! अब चुप कर और चल चुपचाप”
चिंटू: “नहीं बापू। एक मिनट रुको...मैं भूखे पेट इतनी दूर नहीं जा सकता”
काका: “तो क्या करोगे?”
चिंटू: “इस खूँटे से कहूँगा कि ये दाल वापस कर दे”
काका: “तुम्हारी बात ये मान जाएगा?”
चिंटू: “उम्मीद पे तो दुनिया कायम है पापा, फिर ये दाल क्या चीज़ है!”
चिंटू खूँटे के पास आता है। हाथ जोड़कर उसकी तीन बार प्रदक्षिणा करता है। फिर सर झुकाकर उससे विनती करता है। चिंटू: “हे खूँटा जी महाराज, मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप हमारी दाल हमें वापस कर दें”
खूँटा कुछ नहीं कहता। आँख मूंदे बैठा रहता है।
चिंटू: “अच्छा, कविता में विनती करता हूँ। शायद आपको मेरी कविता पसंद आ जाए और आप हमारी बात मान जाएँ” चिंटू: “खूँटा-खूँटा तुम दाल निकालो, हमारी एक बात तुम मानो, क्या खाएँगे क्या पीएँगे, क्या लेकर परदेस जाएँगे”
इतना सुनकर खूँटे की भवें चढ़ती हैं और वह चिढ़कर कहता है –
खूँटा: “एक चने की दाल के लिए मैं इतनी मेहनत क्यों करूँ? जो चीज़ मेरे अन्दर गई सो गई। तुम जाओ यहाँ से” – कहकर अपनी आँखें बन्द कर लेता है।
काका आगे बढ़कर चिंटू के पास आता है।
काका: “चलो बेटा, ये दाल हमसे नहीं गलने वाली”
चिंटू (दृढ़तापूर्वक): “नहीं पापा, इस दाल को तो मैं गलाकर ही दम लूँगा.........चाहे कुछ हो जाए”
काका (परेशान होकर): “लेकिन तू क्या करेगा? इसका जवाब तूने सुन लिया न?”
चिंटू: “अगर ये खूँटा मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं बढ़ई के पास जाऊँगा”
खूँटा: “अरे जाओ-जाओ, जैसे बढ़ई तुम्हारी बात सुनकर यहाँ दाल निकालने आ ही जाएगा”
चिंटू उड़ चलता है। पीछे से काका भी उड़ता है। उड़कर चिंटू एक झोंपड़ी के पास पहुँचता है। झोंपड़ी के पास एक पेड़ है जिसकी डाल पर चिंटू और काका बैठ जाते हैं।
चिंटू बढ़ई को पुकारता है – “बढ़ई भाई ओ~~~~ बढ़ई भाई!”
“कौन है?” – कहता हुआ एक बूढ़ा झोंपड़ी से बाहर निकलता है। बूढ़ा घुटनों तक धोती पहने है और कन्धों पर गमछा रखे है।
चिंटू: “मैं हूँ, मैं चिंटू। इधर ऊपर देखो बढ़ई महाराज, पेड़ पर”
बढ़ई पेड़ पर ऊपर की ओर देखता है। बढ़ई: “कहो, क्या है?”
चिंटू: “हम तुमसे एक मदद चाहते हैं”
बढ़ई: “मदद? मुझसे??”
चिंटू नीचे आकर उसके चेहरे के पास आकर कहता है -
चिंटू: “हाँ बाबा तुमसे”
बढ़ई: “कहो, क्या मदद चाहिए?”
चिंटू (कई मुद्राएँ बनाते हुए): “बढ़ई-बढ़ई तुम खूँटा कीरो, खूँटा न दाल निकाले, खूटे में दाल है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ?”
बढ़ई: “क्या? एक दाल के दाने के लिए तुम मुझ बूढ़े को परेशान कर रहे हो? वो खूँटा इतनी दूर है और तुम चाहते हो कि तुम्हारे एक दाल के दाने के लिए मैं वहाँ तक जाऊँ? ना, मैं वहाँ तक नहीं जाने वाला, मुझसे ये नहीं होगा” कहकर बढ़ई अन्दर चला जाता है।
काका: “अब?”
चिंटू (सर खुजलाते हुए): “अब?”
फिर कुछ देर सोचने के बाद अचानक ज़ोर से बढ़ई को सुनाकर कहता है -
चिंटू: “हम महाराज के पास इस बढ़ई की शिकायत करने जाएँगे”
बढ़ई (झोंपड़ी के अन्दर से ही): “जाओ जाओ, शौक से जाओ, वो नहीं कुछ करने वाले”
काका (चिंटू से): “बेटा कुछ नहीं होने वाला। चलो बुआ के घर चलो। दोपहर होने वाली है”
चिंटू: “नहीं, आपको जाना हो तो जाइए। अब ये दाल का दाना मेरे लिए इज़्ज़त का सवाल बन गया है”
काका: “क्या बेटा, तुम एक दाने के लिए..........”
चिंटू (बीच में ही): “नहीं पिताजी, आज चिंटू ये भीष्म प्रतिज्ञा लेता है कि वो या तो इस दाने को वापस पाएगा या फिर कभी आपको अपना मुँह नहीं दिखाएगा”
काका उसे देखता है कुछ कहता नहीं।
क्रमश:
bahut achhi lag rahi hai....
ReplyDeleteBahut maza aa raha hai in kahaniyon ko padhneme!Aajkalke bachhon ko dada-dadi,nana-nani shayad patahee nahee honge!
ReplyDeletewaiting for stories :) nice one
ReplyDelete@रश्मि जी, क्षमा जी, गोपाल जी>>किसी भी कहानी का जीवन काफी कुछ अपने दर्शकों पर निर्भर करता है..आपलोगों को कहानी पसन्द आ रही है यह सुनकर अच्छा भी लगा और हौसला आफ़ज़ाई भी हुई..बहुत-बहुत शुक़्रिया..कहानी आगे भी मनोरंजक बनी रहे इसकी पूरी कोशिश करूँगी..
ReplyDelete@गोपाल जी>> ब्लॉग को फॉलो करने का बहुत-बहुत शुक़्रिया..
ReplyDeleteकहानी पसन्द आ रही है....प्रज्ञा जी
ReplyDeletekahani badiya hai aur narration lajawab.maza aa raha hai.
ReplyDeleteप्रज्ञा जी, बहुत अच्छा प्रयास है आपका। आज आपके ब्लॉग परपहली बार आना हुआ। ब्लॉग देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। बधाई स्वीकारें।
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लो जी, मैं तो डॉक्टर बन गया..
क्या साहित्यकार आउट ऑफ डेट हो गये हैं ?
शायद आपने ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें अभी तक नहीं देखीं। यहाँ आपके काम की बहुत सारी चीजें हैं।
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