Monday, June 27, 2011

जाने कब तक

इस खौलते पानी में
हाथ डुबाए
हमलोग
जाने कब तक
बैठे रहेंगे,
एक-दूसरे को आँखें तरेरते
जाने कब तक
ऐंठे रहेंगे?
कितनी बार
बोलती आवाज़ों का
गला दबाएँगे,
समुदायों को
गिरोहों के किलों में सजाएँगे?
कब तक
यूँ
अपने ही बनाए धरातलों में
सिमटते जाएँगे?

11 comments:

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  2. मैं अपने सभी ब्लॉग दोस्तों से माफी भी चाहती हूँ कि कई दिनों से ब्लॉग पर बहुत समय नहीं दे पा रही हूँ और इस वज़ह से आपकी कई बेहतरीन रचनाओं से वंचित भी हूँ...आज भी बस अपनी एक कविता छोड़े जा रही हूँ....उम्मीद करती हूँ कि आपको पसन्द आएगी और जल्द ही अपनी पसन्द की कविताएँ आपके ब्लॉग़ पर पढ़ने की इजाज़त मिल पाएगी ज़िन्दगी से मुझे....

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  3. मन के द्वंद्व को बखूबी लिखा है ..अच्छी प्रस्तुति

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  4. अद्भुत शब्द और सुन्दर भाव...

    नीरज

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  5. सार्थक प्रश्न करती आपकी अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,प्रज्ञा जी.
    मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.

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  6. वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर',
    गम न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी.

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  7. आदरणीया प्रज्ञा जी,

    मेरे नज्मों पर आपकी टिप्पणियाँ उनका रूप और निखार देती हैं.
    तहे दिल से शुक्रिया.
    अगर हो सके तो संपर्क कीजिये.
    sagebob19 @yahoo.in

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  8. सुन्दर रचना |
    मेरे ब्लॉग में आपका सादर आमंत्रण है |

    http://pradip13m.blogspot.com/

    आये और अच्छा लगे तो जरुर फोलो करें |
    धन्यवाद् |

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  9. बहुत खूब ...शुभकामनायें आपको !

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