इस खौलते पानी में
हाथ डुबाए
हमलोग
जाने कब तक
बैठे रहेंगे,
एक-दूसरे को आँखें तरेरते
जाने कब तक
ऐंठे रहेंगे?
कितनी बार
बोलती आवाज़ों का
गला दबाएँगे,
समुदायों को
गिरोहों के किलों में सजाएँगे?
कब तक
यूँ
अपने ही बनाए धरातलों में
सिमटते जाएँगे?
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ReplyDeleteमैं अपने सभी ब्लॉग दोस्तों से माफी भी चाहती हूँ कि कई दिनों से ब्लॉग पर बहुत समय नहीं दे पा रही हूँ और इस वज़ह से आपकी कई बेहतरीन रचनाओं से वंचित भी हूँ...आज भी बस अपनी एक कविता छोड़े जा रही हूँ....उम्मीद करती हूँ कि आपको पसन्द आएगी और जल्द ही अपनी पसन्द की कविताएँ आपके ब्लॉग़ पर पढ़ने की इजाज़त मिल पाएगी ज़िन्दगी से मुझे....
ReplyDeletebahut sahi, shuruaat apne hi kadam honge
ReplyDeleteमन के द्वंद्व को बखूबी लिखा है ..अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteअद्भुत शब्द और सुन्दर भाव...
ReplyDeleteनीरज
सार्थक प्रश्न करती आपकी अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,प्रज्ञा जी.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर',
ReplyDeleteगम न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी.
आदरणीया प्रज्ञा जी,
ReplyDeleteमेरे नज्मों पर आपकी टिप्पणियाँ उनका रूप और निखार देती हैं.
तहे दिल से शुक्रिया.
अगर हो सके तो संपर्क कीजिये.
sagebob19 @yahoo.in
सुन्दर रचना |
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग में आपका सादर आमंत्रण है |
http://pradip13m.blogspot.com/
आये और अच्छा लगे तो जरुर फोलो करें |
धन्यवाद् |
वाह, बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत खूब ...शुभकामनायें आपको !
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