उस काली रात में बाया नदी ने चुपके-चुपके कई उजले आँसू बहाए थे जिसकी ज़िंदा रौशनी की चकाचौंध आज भी मुझे अपनी आँखें बंद करने को मजबूर कर देती है।
ये कहानी जहाँ से शुरु होती है उस वक़्त वहाँ बहुत खुशहाली थी। घर में काफी चहल-पहल थी। महिलाओं का गाना-बजाना चल रहा था, पुरुष भी थोड़ी दूर पर बैठे इसका मज़ा ले रहे थे, बच्चे उछलकूद मचा रहे थे। सभी खुश थे। बच्चे की छट्ठी थी। महिलाओं के गानों, पुरुषों के ठहाकों और बच्चों के शोर का जादू अगल-बगल झुंड में खड़े बाँस के पेड़ों पर भी छा रहा था और वे भी झूम-झूमकर मानो इस उत्सव का आनंद ले रहे थे। ये मकसूदन का घर था। बाँस के झुरमुटों के बीच उगी एक झोपड़ी जिसका रोम-रोम आज पुलकित था।
काफी मन्नतों के बाद मकसूदन की पत्नी की गोद भरी थी। पत्नी का नाम क्या था खुद उसे छोड़कर किसी को भी नहीं पता था, शायद वो भी अब तक अपनी उस पहचान को भूल चुकी थी। पूरे गाँव के लिए वो ‘मकसूदन की कनिया’ थी।
लेकिन ये कहानी मकसूदन की कनिया की नहीं है, न ही उस अभागे मकसूदन की। ये कहानी है उन आँसुओं को रोती बाया की जो आज भी किसी काली रात की आहट से घबराती है और गरदन तक अपना सर नदी में घुसाए निश्चिंत बाँस के झुरमुटों में अपने पूरे वज़ूद समेत छिप जाना चाहती है, मानो वो रात अपना काला आँचल उसके सामने फैलाकर उससे पूछ बैठेगी – क्यों उस रात तू सूख न गई बाया?
वो रात मकसूदन खेत पर था। अंधेरिया रात थी और उसकी कनिया एक हाथ में खाना-लालटेन पकड़े, दूसरे से डेढ़ महीने के बच्चे को गोद में सम्हाले जल्दी-जल्दी पगडंडियों से होकर खेत पर जा रही थी। दूर-दूर तक कोई न था। बस लहलहाते खेत और लहलहाती बाया – दोनों के बीच कनिया के नंगे पैरों का फटाफट निशान लेती सफेद धूल से सनी, चौड़ी, लहराती पगडंडी।
मचान पर बैठे मकसूदन ने अपनी कनिया को आते देखा तो नीचे उतरकर खेत के बाहर आ गया।
“अरे, इसे क्यों ले आई?”
“किसे?”
“मुनिया को”
“तो क्या वहाँ छोड़ आती?”
“चाची को दे आती। कुछ ही देर की तो बात थी। इसे एक हाथ में उठाए-उठाए तुझे कितनी परेशानी हुई होगी”
“अपना कलेजा उठाने में कभी किसी को परेसानी होती है, मुनिया के बापू? ई न होती तो अबतक हम खतम हो गए होते”
सचमुच। मकसूदन जानता है अगर देबी ने अबकी आसीरबाद न दिया होता तो जान तो खतम ही थी कनिया की। छ: साल इंतजार! कौन जनाना कर सकी है आजतक? इंतजार तो उसने भी किया था, नहीं तो बिरादरी वाले तो तीन साल बाद से ही उसके पीछे पड़ गए थे। नई बहू ले आ मकसूदन, इस लुगाई से तुझे कुछ नहीं मिलने वाला। रामकिरपाल चाचा ने तो एक जगह बात भी बढ़ा दी थी। कितना रोई थी उस दिन उसकी कनिया। चार साल के बच्चे की तरह। रात भर सीने से चिपटाकर रखा था मकसूदन ने उसे। ना। इसकी जगह कोई नहीं ले सकती – उसके गाल पर आँसुओं के साथ फिसलते चले आए काजल को पोंछते हुए उसने कहा था मन में – यही उसकी कनिया हो सकती थी, यही उसकी कनिया है।
लेकिन उस दिन चार साल के बच्चे की तरह रोने वाली उसकी कनिया धीरे-धीरे गाँव वालों के, बिरादरी के ताने सुन-सुनकर बुढ़ाने लगी थी, खतम होने लगी थी। ताने सुनकर आँसू नहीं गालियाँ निकलने लगी थीं, चेहरे के भोलेपन में खिंचाव आ गया था, उदास या मुस्कुराने वाले होंठ बड़बड़ाते रहते थे, चिढ़े-चिढ़े, खिंचे-खिंचे से – लेकिन मकसूदन के लिए फिर भी वही उसकी कनिया थी। उसी दिन वाली, जिसे बैलगाड़ी पर ब्याह कर घर लाया था। आज भी।
उसे पता ही न चला कब उसके हाथों ने कनिया के चेहरे पर बिखरे बालों को पीछे समेट दिया। डेढ़ महीने में फिर से नई होने लगी है उसकी कनिया – हो भी क्यों न, नई-नई माँ जो बनी है!
तरकारी से रोटी छुआती कनिया हल्के से मुस्कुरा दी।
“बुढ़ा गए लेकिन प्यार जताना नहीं छोड़ा?”
“बुढ़ाएँ मेरे दुश्मन!”
“पर बाल तो तुम्हारे सफेद हुए हैं, बुढ़ाएँ फिर दुस्मन कैसे, मुनिया के बापू?”
“बाल तो तेरे भी पक हैं मुनिया की माँ”
“तो दोनों ही बुढ़ा गए मुनिया के बापू” – और दोनों ही खिलखिलाकर हँस पड़े।
उन दोनों की वह उन्मुक्त हँसी दम साधे उनकी बातें सुनती बाया के पूरे बदन में गुदगुदाती चली गई थी। और चोरी पकड़े जाने के डर से उसने अपने-आपको तो बड़ी मुश्किल से ज़ब्त कर लिया था पर किनारे पर पड़ी कुछ लापरवाह लहरें फिर भी मचल ही पड़ी थीं। बाया की इस हालत पर काली रात को हँसी आ गई थी और आकाश में दो-चार तारे चमक गए थे।
रात लम्बी थी और मकसूदन की कनिया को घर जाना था। मुनिया को मकसूदन के हाथों में पकड़ा वह थोड़ी दूर जाकर मुँह-हाथ धोने लगी।
अचानक खेत में कुछ हलचल हुई। बाईं ओर से दो-तीन जानवर घुसे थे। मुनिया को वहीं पगडंडी पर लालटेन के बगल में रख मकसूदन एक हाथ में लाठी, एक हाथ में कपड़ा लहराता हो-हो कर खेतों में जा घुसा।
उसी वक़्त जाने कहाँ से नशे में धुत्त लोगों से भरी, धूल उड़ाती एक जीप पगडंडी को रौंदती हुई गुज़र गई। लालटेन गिर पड़ा, सफेद धूल एक भयानक तेज़ी से लाल हो गई और बाया ने दिल दहला देने वाली एक डरावनी, ह्रदय-विदारक चीख सुनी।
कनिया के हाथ का लोटा तेज़ी से लुढ़कता-लुढ़कता बाया में आ गिरा और कनिया उस लाल धूल में ‘मुनिया-मुनिया’ कर जा गिरी।
बाया आज भी वो दृश्य याद कर चंचल हो उठती है। जीप से उतरकर वो चार लोग उस तड़पती माँ के पास आए थे। मुनिया के रौंदे हुए शरीर को अपने-आप में घुसाए मुनिया की माँ बदहवास सी उसके निकलते खून पर मिट्टी डाल रही थी। मिट्टी डालने से खून का निकलना बंद हो जाएगा।
अभागा मकसूदन भी तभी पहुँचा था – दौड़ता-हाँफता – लेकिन यहाँ आकर लुट जाएगा, जानता न था।
जीप के चारों सवार बच्ची को माँ से अलग करने की कोशिश कर रहे थे। मकसूदन खड़ा रहा – कनिया को देखता – मुनिया को देखता – सुन्न।
लेकिन जीप के सवार सुन्न नहीं थे। नशे में धुत थे पर जानते थे कि क्या करना है। बच्ची को माँ से छुड़ाया गया और तेज़ी से लुढ़कते लोटे की तरह बाया में लुढ़का दिया गया। और फिर उस अर्द्ध-विक्षिप्त माँ को उसके अभागे मकसूदन के सामने औरत होने की नंगी सज़ा दी गई। दो जोड़ी हाथों ने मकसूदन को पकड़ा और दो जोड़ी हाथों से मकसूदन की कनिया मसली गई – एक-एक कर।
बाया हरहराई, छ्टपटाई, लहरों को इधर-उधर पटका, तिलमिलाई और आख़िर में रो पड़ी – उजले आँसू वाली रुलाई।
उस रात उस काली रात में जाने कितने धब्बे पड़ गए जिसे उसने आज तक नहीं धोया।
फिर कई दिनों तक सुना मैंने – ‘मकसूदन की कनिया पगला गई है’, ‘कनिया ने अपना ही बच्चा नदी में फेंक दिया’ ‘अरे, एक रात खेतों वाली चुड़ैल आ गई उसपर और उससे उसका बच्चा नदी में फिंकवा दिया, तभी से पागल हो गई है बेचारी मुनिया की माँ, नहीं-नहीं, मकसूदन की कनिया’
और मकसूदन? आया था अगले दिन मालिक के पास। जुहार लेकर। बड़े मालिक से कहा भी लेकिन बड़े मालिक ने ठीक ही कहा – ‘अब तो जो होना था वो हो गया मकसूदन, देवी का आसिरवाद थी मुनिया, देवी ने बुला लिया वापस। अब कचहरी-मुकदमा करके क्या फायदा? जहाँ तक मुनिया की माँ का सवाल है..........
‘अब कौन सी मुनिया की माँ साहेब’ – भीगी पलकों ने आँसुओं को पतझड़ के पत्तों की तरह टपका दिया।
‘हमदर्दी है तुमसे मकसूदन। पर तुम बताओ कचहरी जाने से कनिया ठीक हो जाएगी? नहीं न। कनिया इलाज कराने से ठीक होगी। हमारा प्रायश्चित यही होगा मकसूदन। गलती हमारी है, प्रायश्चित तो करने दो। कुछ दिन हॉस्पीटल में रहेगी, बिल्कुल ठीक हो जाएगी तुम्हारी कनिया।’
लेकिन कनिया फिर कभी ठीक नहीं हुई और न ही मकसूदन ने उसे हॉस्पीटल भेजा। मेरी कनिया मेरे पास रहकर ठीक हो जाएगी। बच्ची तो छीन ही ली भगवान ने उससे, अब मैं भी उससे दूर हो जाऊँ? इतना बड़ा अतियाचार उसे अकेले सहने दूँ! ना-ना, मैं हमेशा उसके पास रहूँगा।
लेकिन कनिया अब किसी के पास न जाती थी। दूर-दूर रहती। कहीं किसी खेत में कुछ ढूँढती रहती, कहीं पगडंडियों पर बैठे दोनों हाथों से पगडंडी की देह छीलती रहती, कभी मचान पर खड़े होकर जोर-जोर से ‘मुनिया के बापू’ को पुकारती, घर नहीं जाती और रात भर बाया के किनारे बैठकर टकटकी लगाए उसे देखती रहती, कभी-कभी बाया के भीतर हाथ ले जाकर तैरते शैवालों के बीच कुछ टटोलती, कुछ पकड़ने की कोशिश करती और हाथ के खाली रह जाने पर झुंझलाती, चिल्लाती और फिर गुस्से में उठकर चली जाती।
बाया सहमी सी, असहाय उसे पैर पटकते जाते हुए देखती रह जाती।
और उसके पीछे-पीछे होता उसका पति, उसकी मुनिया का बापू – जो उसे समझा-बुझाकर घर चलने को कहता – पहले प्यार से पुचकारता, समझाता, फिर झिड़कता और फिर गोद में उठाकर चल देता।
बाया को समझ नहीं आता कि वह उन दोनों पर आँसू बहाए या ख़ुद पर, जो उस रात ख़ून से लथपथ एक बच्ची को लीलकर भी लाल नहीं हुई और जो आज भी ख़ून के आँसू रोते उस आदमी को देखकर लाल नहीं हो पा रही।
हर दिन और रात का यही सिलसिला था। फिर एक रात मुनिया का हाथ पकड़ने की आस में मुनिया की माँ भी उस काली रात में समा गई – अंधेरिया रात की आख़िरी रात – ‘छपाक’ के कुछ ही देर बाद जल्दी से एक और ‘छपाक’ का स्वर। अंधेरी बाया में मकसूदन ने अपनी कनिया को बहुत ढूँढा, घंटों उस कालेपन में बाया के शरीर में घुमड़ता रहा, बिछलता रहा, आवाज़ लगाता रहा पर उसके हाथ पानी के छल्लों के अलावा कुछ नहीं आया। मुनिया की अंगुली पकड़ने की आस में मुनिया की माँ के हाथ से अपनी मुनिया के बापू की गोद छूट गई।
पर बाया से कुछ न छूट पाया – न वो पगडंडी, न बाँस के झुरमुट, न खेत, न मचान और न मकसूदन।
जब शाम होती और गोधूली बेला में यादों की राख धूल के साथ उड़ने लगती तो बाया उसके पदचापों को सुनती – सर झुकाए, बाँस के सहारे बैठा वह भी बाया में कुछ ढूँढता रहता और अपनी तेज़ चलती लहरों के बीच चुपचाप, मूक खड़ी बाया भी उसमें कुछ ढूँढती रहती।
दूर से मकसूदन को कोई पुकारता – कभी चाची, कभी चाचा, कभी गाँव का कोई आदमी - और मकसूदन चुपचाप उठ जाता – उसी बाया के किनारे से होकर, उसी पगडंडी से चलकर, उन्हीं खेतों के बीच से – पर न तो किसी को समझाता-पुचकारता, न किसी को झिड़कता, न किसी को गोद में उठाए।
वो बाया की ओर पीठ किए चलता जाता और बाया अपराध भावना से भरकर, तेज़ी से, अपनी गोद खाली करने के लिए दौड़ने लगती।
bahut dino baad aapko pada....shayad kahi busy honge!! waise apki yah post jhakjhor dene wali hai....swagat hai !!
ReplyDeleteJai HO Mangalmay HO
Very interesting story !
ReplyDeleteaapki lekhan shailay baandh kar rakhti hai.bahut sunder roop me prastut ki gaye rachana hai .
ReplyDelete@विवेक जी, Zeal तथा दीप्ति जी>>>>आप सभी का बहुत-बहुत शुक़्रिया...कहानी थोड़ी सी सच्ची है इसलिए झकरोर जाती है...शायद कहीं एक बाया है, एक मकसूदन भी और एक ऐसी काली रात भी..
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रेरक प्रकरण| धन्यवाद|
ReplyDelete@Zeal>>>फॉलो करने के लिए आपका शुक़्रिया...
ReplyDeleteबहुत प्रेरक
ReplyDeleteकई दिनों व्यस्त होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
पहले तो मुआफी चाहूंगा,आप के ब्लॉग पर व्यस्तता के चलते पहुँच नहीं पाया.
ReplyDeleteप्रज्ञा जी आपकी कलम को ढेरों सलाम.
क्या रचना गढ़ी है आपने.
आपकी लेखन शैली कमाल की है.
"'उन दोनों की वह उन्मुक्त हँसी दम साधे उनकी बातें सुनती बाया के पूरे बदन में गुदगुदाती चली गई थी। और चोरी पकड़े जाने के डर से उसने अपने-आपको तो बड़ी मुश्किल से ज़ब्त कर लिया था पर किनारे पर पड़ी कुछ लापरवाह लहरें फिर भी मचल ही पड़ी थीं। बाया की इस हालत पर काली रात को हँसी आ गई थी और आकाश में दो-चार तारे चमक गए थे।"
वाह!वाह!वाह!
बहुत ही मार्मिक रचना.नपी तुली.कहीं भी कोई शब्द ज़्यादा नहीं.कम भी नहीं.
मकसूदन का दर्द सीधे दिल में उतर आता है.
one of your best.hats off.
@संजय जी, विशाल जी>>>आप जैसे पाठकों की प्रेरणा है जो इस कलम को चला रही है....रचना पसंद की आपने..शुक्रिया इसका..
ReplyDeletepragya aapke chode comment ke through hee blog tak pahuchee badee marmsparshee kahanee thrushyo ko jeevant kar jatee hai .
ReplyDelete@संजय जी, विशाल जी>>>माफी मांग कर शर्मिन्दा न करें मुझे...भागदौड़ भरी इस ज़िन्दगी में हम सब जानते हैं कि एक-दूसरे के लिए समय निकालना समय के साथ कितनी बड़ी जद्दोज़हद करना है...
ReplyDelete@Apnatve>>>बहुत शुक़्रिया..
ReplyDeleteKeep it pragya ...very nice story
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