Monday, April 11, 2011

रिटायरमेंट डे

सरोजिनी नगर सी-ब्लॉक के गेट के सामने की सड़क को एक महिला तेज़ी से पार करती है। सामने दूसरी तरफ एक सफेद रंग की चार्टर्ड गाड़ी खड़ी है। महिला तेज़ी से उस बस के पहले पायदान पर चढ़ती है। खिड़की के पास बैठा आदमी कहता है – “अरे मैडम आज भी देर कर दी आपने आने में! लेकिन आज मैंने पूरे पाँच मिनट तक आपकी वेट की है। आज तो ख़ास दिन है!” – अंतिम वाक्य को मुँह में अदा से गोल -गोल घुमाते हुए कहा।
पायदान पर खड़ी मैडम की साँस धीमे होकर एकाएक फक-फक कर चलने लगी। एक अजीब बिखरी हुई अफरा-तफरी की आदत हो गई थी, जो ज़िन्दगी में समा गई थी और कब छूटते हुए मिनटों के पीछे भागना ही दिन की शुरुआत और रात का रुटीन बन गया था, सच में मैडम को पता ही नहीं चल था। बस के हेल्पर के साथ बैठे आदमी ने तपाक से कहा – “आज क्या बात है, भई!” “आज मैडम का आखिरी दिन है” मैडम अपने हाथों से पर्स को भींचकर बस में बैठे हर शख़्स की ओर मुस्कुराते हुए सबसे पीछे की सीट पर कोने में खिड़की के पास छिपकर बैठ गईं। उनके आगे की सीट पर तीन औरतें बैठी थीं। एक थीं मिसेज सक्सेना, दूसरी मिसेज सिब्बल, तीसरी मिसेज घोष। मिसेज घोष मुड़कर, मुस्कुराते हुए कहने लगीं – “आज आप रिटायर हो रही हैं। कितने साल हो गए आपको?” “तैंतीस साल” “वाह! आज तो आप आराम से जा सकती थीं, आज जल्दी क्यों जा रही हैं?” “यूँ हीं” “अच्छा है.......” “कितने बच्चे हैं आपके?” “जी...मैं शादीशुदा नहीं हूँ, मतलब मैंने शादी नहीं की है” “अरे, आप तो सरकारी क्वार्टर में रहती हैं न! फिर आप कहाँ रहेंगी? परिवार में बाकी लोग.....” “जी, कोई नहीं” – जब बहुत कुछ विस्तार से कहने का मन नहीं करे तो बस कुछ शब्द चुनकर सामने वाले के मुँह पर पोथ देने की मैडम की पुरानी आदत थी।
मैडम बाहर की तरफ देखने लगती हैं। उन्हें पता नहीं था कि मिसेज घोष अभी भी उन्हें ही देख रही होती हैं। आँखों के किनारे कभी इतने ऊँचे हो जाते हैं कि जने कितने नमकीन समन्दर समा जाते हैं उसमें। आज पानी फिर तैर गया। शायद पानी को आदत हो गई है बांध तोड़कर बाहर न आने की।
आज मैडम बाहर देख रही हैं बड़े गौर से सभी चीज़ों को। ट्रैफिक, गाड़ियाँ, पेड़, सड़क, दुकानें। आज लग रहा था उन्हें कि यह सब मेरे आसपास घूम रहा है, तेज़ी से, नज़रें टिक नहीं पा रही हैं, देखने को एक नया पल मिला था। कभी पल ही चीज़ों को नए सिरे से देखने के लिए मजबूर करते हैं। आज उन्होंने मिसेज घोष, सक्सेना व सिब्बल को भी घूर कर देखा, इसलिए नहीं कि अपने खालीपन को दिखाने के लिए चेहरे पर तनाव और ईर्ष्या लिए घूमें लेकिन इसलिए कि शायद यूँ हीं। बस ऑफिस के बाहर रुकी। मैडम उतरकर ऑफिस बिल्डिंग की तरफ जाने लगीं। मन में चाह उठी ‘काश! यह बिल्डिंग ग्रे नहीं लाल होती! यहाँ पार्किंग नहीं छोटी-छोटी घास....’ इन्हीं चाहतों की तरंगों को गेट कीपर ने तोड़ा – “गुडमार्निंग मैडम! आज के दिन की बधाई” – साथ में खड़े साथी ने टोका – “बुद्धू बधाई नहीं देते हैं आखिरी दिन की”- आज गेट पर दुबारा दबा-कुचला, मुरझाया हुआ आखिरी दिन लपककर, मैडम पर चिपककर उनकी गर्दन पर जा बैठा। उस दिन को गले से छुड़ाते हुए मैडम बोलीं – “अरे, कोई बात नहीं। और, कैसे हैं?” “ठीक हैं!”
“जी, आशीर्वाद है आपका” “अरे नहीं नहीं”
मैडम ने चौथी मंजिल के लिए लिफ्ट का बटन दबाया। लिफ्ट चलने ही वाली थी कि मिस्टर चक्रवर्ती सामने से भागते हुए आए और साथ में मिस्टर पांडे थे। लिफ्ट चली और बात फिर चली।
“मैडम आज तो आखिरी दिन है। आगे का क्या सोचा, कहाँ रहना है” “कहाँ रहना मतलब, मिस्टर चक्रवर्ती?” – पांडे जी ने चौंककर कहा। “मैडम ने शादी नहीं बनाया और कोई नहीं है इनका, ऐसा सुनने में आया है मैडम” “जी.........अभी तो सरकारी क्वार्टर में ही रहना होगा” लिफ्ट रुकी। मैडम थोड़ा आगे निकलीं तो केश के शर्मा जी आखिरी दिन के कुछ पेपर साइन करने के लिए मैडम को थमा गए। मैडम के कानों में दुबारा आवाज़ पड़ी –
“यार एक बात बता। लोग बिना शादी किए रह कैसे जाते हैं, जीते कैसे हैं! इतने पैसों का क्या करेंगे.........” “अरे, मैडम तो कुँवारी ही रिटायर हो गईं” “ये लोग पैसे वैसे का क्या करेंगे, न बाल न बच्चा, न परिवार, कैसा लगता होगा” किसने क्या कहा – यह मायने नहीं रखता, रखता तो केवल यह कि कहा गया। मैडम के साइन करते हुए हाथ लड़खड़ाने लगे। लगा, ये काली स्याही फैलकर, सांप बन पूरे कागज़ पर रेंग रही है। मैडम ने पेपर छ्टक दिया। आसपास देखकर दुबारा नीचे पड़े पेपर को उठाया और साइन कर दिया। मैडम सेक्शन में पहुँचीं और अपने टेबल पर बैठ गईं। बैठकर अहसास हुआ कि यह भी आखिरी बार। ड्रॉअर खोला – सामने तीन रिनॉल्ड्स, दो रबर, टैग का एक गुच्छा, दो व्हाइटनर, आलपीन की दो डिब्बियाँ रखीं थीं। मैडम ने स्टेपलर उठाया। वह सोच रहीं थीं कितनी ही बार इसमें पिन फँसा था। ड्रॉअर में रखे फोल्डर को निकालकर देखा और पुराने रद्दी पेपरों को फाड़ने लगीं। एक मोटी तहों वाले बंडल को फाड़ते-फाड़ते वे उस पेपर पर पहुँचीं जहाँ से शुरुआत हुई थी। मैडम की ज्वॉइनिंग रिपोर्ट। सतीश ने टाइप की थी यह। अपने घर के टाइपराइटर पर। फिर उस दिन से ठीक पाँच दिन बाद वो हुआ जो अभी भी मैडम में ज़िंदा है। उनकी सादगी में एक हताशा है, उनके बेरंग कपड़ों में काली स्याह भावों का धुआँ है, मशीन की ज़िन्दगी में कसमसाहट है, ऊब है।
मैडम अपने हाथों के पोरों से उस कागज़ के अक्षर पर अक्षर बनाने लगीं। मानों हाथ कह रहे हों ‘अक्षर को कालापन उसका भाव नहीं देता, अक्षर तो हवा में बनने वाले घेरे हैं जो दिखाई नहीं देते लेकिन उनके पीछे हाथ घूमता है तो लगता है अक्षर हवा में तैर रहे हों। मैडम को टोकने फिर कुछ लोग आते हैं जो फिर वही बातें करते हैं – कितने साल, कब आई, कैसे, कहाँ, क्यूँ, अब आगे क्या, जो हुआ क्या वो अच्छा वो बुरा, कैसे वक्त बीता.................................??? रिटयरमेंट पार्टी बैठक कक्ष में हुई। कुछ लोग आए, कुछ घर गए पार्टी जो थी – क्या करना है जाकर.......... मैडम के लिए दो शब्द केवल बनावटी, अच्छे वाले....................देने को एक फॉरमैलिटी के तौर पर बेडशीट कढ़ाई वाली। मैडम आज फिर चुप थीं, केवल मुस्कुरा रही थां। यह तो ज़रूरी था। फॉरमैलिटी आ जाए तो ज़िन्दगी को फॉर्मल तरीके से ढका जा सकता है नहीं तो चेहर और ज़िन्दगी इन्फॉर्मल होकर रह जाती है। यानि खाने के साथ प्रोसे जाने वाला अचार जो गप्पियों और ठहाकाबाज़ों की चुस्की होती है।
पार्टी में दो शब्द के तौर पर सहायक निदेशक महोदय श्री शुक्ला ने कहा - “मैडम कर्मठ कर्मचारी थीं। काम को उन्होंने पूजा................” मैडम की आँखें मिसेज खन्ना पर टिक गईं। उनकी लिपस्टिक से पुते होठों पर कुढ़न लिपग्लॉस का काम कर रही थी। मैडम जानती थीं वह मन में कह रही होंगीं – “हर टाइम तो ऑफिस में सड़ी रहती है यह लेडी! हमारा तो घर है, परिवार है। ये छुट्टी नहीं लेती, इसका है कौन........काम नहीं करेगी तो टाइम पास कैसे होगा” “हम मैडम की आगे की स्वस्थ और खुशहाल ज़िन्दगी की कामना करते हैं........................।”
पार्टी हुई, मैडम को कहा गया आते रहना, सबने कहा अच्छा समय बीता.......एक फॉरमैलिटी और थी....सरकारी गाड़ी घर पर छोड़ने जाती है....मैडम के साथ गाड़ी में कोई नहीं गया........यूँ हीं। फॉरमैलिटी के तौर पर शब्द कहे जा सकते हैं लेकिन शायद ज़िन्दगी को इन फॉरमल शब्दों के सहारे छोड़ा नहीं जा सकता, ज़िन्दगी जी जाती है या ज़िन्दगी को कभी जीना पड़ता है।
आज मैडम के क्वार्टर की खिड़की से चांद झाँक रहा था और मैडम एक पुरानी किताब के पन्नों में रखे गुलाब के सूखे फूल को हाथों से छू रही थीं। उस रात चांद उस खिड़की पर ही ठहर गया। मैंने चांद से पूछ, “ऐसा क्यों”, उसने भी कहा, “यूँ हीं”

2 comments:

  1. मार्मिक ....
    यह दुनिया ऐसे ही चलेगी !
    :-(

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  2. "आँखों के किनारे कभी इतने ऊँचे हो जाते हैं कि जने कितने नमकीन समन्दर समा जाते हैं उसमें। आज पानी फिर तैर गया। शायद पानी को आदत हो गई है बांध तोड़कर बाहर न आने की।"

    मार्मिक प्रस्तुति... और प्रस्तुतीकरण तो जैसे साँसों को चलने से भी मना करता सा लगा..

    कुंवर जी,

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