Thursday, August 11, 2011

अम्मा की कहानियाँ और मेरा बचपन - तोता और दाल की कहानी (आगे - दृश्य 8 और 9)


Scene 8

विशाल समुद्र सामने हिलोंड़े ले रहा है। काका और चिंटू समुद्र के सामने एक चट्टान पर बैठे हैं।
काका (चिंटू से): “क्या हुआ? अब यहाँ आकर चुप क्यों बैठा है, बोल समुन्दर को”
चिंटू (सोचने की मुद्रा बनाकर): “अपुन कुछ सोच रेला है बॉस”
काका: “क्या?”
चिंटू: “यही~~~~ कि...”
काका: “कि?”
चिंटू: “कि” – कहते हुए चिंटू काका को बड़े ही अर्थपूर्ण तरीके से ग़ौर से देखता है। काका भौहें ऊपर उठाता है और ‘नहीं’ की मुद्रा में सर हिलाता है और ‘नहीं’ बोलना चाहता है मगर उसके ‘न’ कहते ही चिंटू अपने पंख से उसका मुँह बन्द कर देता है।

Scene 9

काका समुद्र के आगे हाथ जोड़े खड़ा है। पीछे कुछ दूरी पर उसी चट्टान पर चिंटू खड़ा है। चिंटू इतनी दूरी पर है कि वह काका की आवाज़ को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं सुन सकता।
काका (अटकते हुए): “समुन्दर-समुन्दर तुम आग बुझाओ, आग न...आग न...न रानी डसे”
उसे अच्छे से याद नहीं आता कि चिंटू क्या कविता कहता था इसलिए वह आँखें बन्द कर एक स्वर में लगातार जो भी और जैसे भी याद आता जाता है, कह देता है।
काका: “रानी....रानी...न दाल निकाले, दाल न साँप मारे, साँप न लाठी जलाए, लाठी न बढ़ई डाँटे, बढ़ई न राजा चीरे, राजा में खूँटा है, क्या खाएँ क्या पीएँ, क्या लेकर परदेस जाएँ”
समुन्दर कुछ नहीं कहता। काका कुछ देर उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करता है लेकिन जब का समुन्दर फिर भी कुछ नहीं कहता तो काका पीछे चट्टान पर खड़े चिंटू को देखता है। चिंटू आगे आता है।
चिंटू (काका के पास आकर): “क्या हुआ?”
काका: “पता नहीं”
चिंटू: “आपने इनसे कहा तो न?”
काका: “हाँ मैंने सब कह दिया, लेकिन इन्होंने कुछ कहा ही नहीं”
चिंटू और काका दोनों समुन्दर को देखते हैं।
समुन्दर की एक लहर ऊपर उठती है और उसमें आँखें और मुँह बनता है। समुन्दर बोलता है: “दरअसल आपने जो कहा मैं उसे सही-सही समझ नहीं पाया। रानी न दाल निकाले, दाल न साँप मारे...कुछ खास समझ नहीं आया”
चिंटू (काका से): “पापा?”
काका: “हाँ”
चिंटू: “आपने सब कुछ ठीक से तो कहा था न?”
काका: “हाँ, जहाँ तक मुझे लगता है”
चिंटू: “हाँ, वो तो समझ में आ रहा है। चलिए, कोई बात नहीं” – फिर समुन्दर को कहता है – “वो बात दरअसल ये है कि हमारे अग्नि देव सुसाइड करना चाहते हैं। वो ये चाहते हैं कि आप उन्हें बुझा दें”
समुन्दर (चौंककर): “सुसाइड?”
चिंटू: “जी”
समुन्दर: “पर ये तो बहुत ही ग़लत बात है”
चिंटू: “हाँ, लेकिन क्या किया जा सकता है...जब मरने वाला ख़ुद ही मरना चाहता हो”
समुन्दर: “नहीं, मैं उन्हें ऐसा करने की इजाज़त नहीं दे सकता......और इसमें सहायता तो बिल्कुल भी नहीं”
चिंटू (नाटकीय/बनावटी रूप से रुआँसा बनकर): “दरअसल सर, वो अपनी ज़िंदगी से बिल्कुल निराश हो गए हैं, ज़िंदगी में साथ देने वाला कोई नहीं, जल-जलकर वे अंदर से राख हो चले हैं...कहते हैं मैं भीगना चाहता हूँ....सर उन्हें भीगने दो सर...भीगने दो...भीगने दो”
समुन्दर: “उनसे जाकर कहना कि जीवन अमूल्य है, जीवन अपने-आप में एक आशा है, सोचने का ढंग है, सोचो तो पूरी दुनिया तुम्हारे साथ है और सोचो तो अपना हृदय भी अपने साथ नहीं। उनसे कहना वे जलने से न भागें। जलना उनकी नियति है और भीगना मेरी नियति...जब मैं उन्हें पुन: जला नहीं सकता तो उन्हें भिगाना भी मेरे हाथ में नहीं”
चिंटू अपना सर पकड़कर बैठ जाता है। कुछ देर बाद वैसे ही बैठे-बैठे कहता है: “अब कुछ नहीं हो सकता”
काका (चिंटू से): “बेटा, मैं एक सुझाव दूँ?”
चिंटू उसकी ओर देखता है।
काका: “गजराज के पास चलते हैं” चिंटू उसे देखता रहता है फिर मुस्कुराता है।

क्रमश:

2 comments:

  1. मुझे याद आती हैं मेरी अनपढ़ दादी द्वारा सुनाई गई कहानि‍याँ...लाख कहानि‍यां पढ़ूं पर वैसा मजा नहीं आता जो उनके सुनाये को सुनने में था। नि‍श्‍छल कहानि‍यां... और सुनने वाला भी ि‍नश्‍छल। उम्र के साथ आदमी में कमीनापन बढ़ता चला जाता है, नहीं क्‍या ?

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  2. सही कहा राजे जी...सुनने वाला भी निश्छल और कहानियाँ भी...

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