अभी-अभी ‘साझा-संसार’ में ‘बच्चियों का घर (चम्पानगर, भागलपुर) – 1 (http://saajha-sansaar.blogspot.com/2011/03/1.html) पढ़ा। अनाथालय चलाने वाले मोहम्मद मुन्ना साहब का एक कथन है, "फ़ायदा भी क्या है लड़कियों को पढ़ाने से?"
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर आज इस पंक्ति ने बड़ा ही अजीब सा माहौल बना दिया मन के अन्दर....शायद एक टीस, एक बेचैनी या शायद एक आहत मन की जानी-पहचानी आदत...hurt होने की....क्या करें ऐसी लड़कियों के लिए जिन्हें अभी से ही यह महसूस कराया जा रहा है कि स्कूली शिक्षा उनके लिए बेकार है, कि उन्हें सिर्फ क़ुरान के हिसाब से जीकर एक दिन मर जाना है...कि उनका मतलब सिर्फ घर, खाना बनाना, दब-छिप कर रहना, हर ज़्यादती को सामान्य रूप में लेना और अपने समर्थन में यदा-कदा किए गए किसी ‘हाँ’ को अपनी ख़ुशकिस्मती मानना ही है.......जाने क्या बहुत कुछ सा कहना चाहती हूँ पर मन अपने सामने शब्दों का आईना रखने से डरता है, डरता है कि कहीं फिर से एक ऐसी कोशिश का सामना न हो जाए जो आधी-अधूरी रह गई हो.....आज हममें बहुत सी ऐसी महिलाएँ हैं जो अपनी ख़्वाहिशों को जी रही हैं, जैसा ख़ुद जीना चाहती हैं वैसा जी रही हैं, अपने-अपने पसंद की ऊँचाईयाँ छू रही हैं...पर अभी बहुत से घर ऐसे हैं जहाँ लड़कियों ने अभी ये भी नहीं जाना कि वे लड़की होने से पहले इंसान हैं, कि ज़िन्दगी पाबन्दियों के पैबन्दों के अलावा भी कुछ है, बहुत कुछ है...
इंतज़ार में हूँ कि कब वो दिन देखूँगी जब हमें ईश्वर के इस अनमोल उपहार को यह बताना नहीं पड़ेगा कि आज़ादी क्या है, कि कब ऐसा दिन आएगा जब वे ख़ुद अपनी-अपनी आज़ादी को महसूस करेंगी......और इसके लिए उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं पड़ेगी....न मेरी, न आपकी, न ख़ुदा के इनायत की....
ऐसा दिन कब आएगा जब एक नारी ख़ुद आज़ादी को महसूस करेंगी......और इसके लिए उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं पड़ेगी....न मेरी, न आपकी, न ख़ुदा के इनायत की....
ReplyDeleteहम अपनी बेटियों को वो सब नहीं भोगने देंगे जो हमने अब तक पढ़ा, लिखा और संसार से जाना, तब शायद ये प्रार्थना असर दिखाये।
@राजे_शा जी>>>आमीन...
ReplyDeleteवो दिन जरुर आएगा| धन्यवाद|
ReplyDeleteसदियों पुरानी किताबों ने आज तक औरत की आज़ादी रोक रखी है.
ReplyDeleteपता नहीं मर्द के ज़ेहन के पर्दे कब खुलेंगे और औरत के चेहरे पर पड़ा पर्दा कब उठेगा.
आपकी उम्मीद को सलाम.
आपने बहुत सही फरमाया मोहतरमा। आपकी राय से मैं सौ फीसदी इत्तेफाक रखता हूं। वैसे आजादी महिला और पुरुष की तो छोड़िए...चाहे जानवर की ही क्यों ना हो..उसका भी हिमायती हूं। एक सवाल आपसे पूछना चाहता हूं...बड़े शहरों में इन दिनों एक ट्रेंड देख रहा हूं। सभी तो नहीं कहूंगा लेकिन कुछ महिलाएं अपनी आजादी को परिवार से आजादी और संबंधों की जवाबदेहियों से आजादी के तौर पर परिभाषित कर रही हैं। ये क्या आजादी का कोई रिफाइंड वर्जन है ? आप तो एक सुलझी हुई लेखिका और समाजसेविका हैं, जरा इस पर भी गौर फरमाएं... अखिलेश आनंद
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